कमलेश पांडेय
झारखंड वनों से भरा-पूरा प्रदेश है. यहां वन और वन्य प्राणियों का काफी महत्व है. यहां के लोगों की कई पारंपरिक रीति-रिवाज वन और वन्य प्राणियों से जुड़ी हुई हैं. इसको बचाने के लिए जन सहभागिता जरूरी है.
जब तक लोग नहीं चाहेंगे, न हम वन बचा सकते हैं, न वन्य प्राणी. इसलिए एक प्रयास होना चाहिए कि अधिक से अधिक लोगों को कैसे वनों से जोड़ें. वन विभाग समय-समय पर यह काम करता रहता है. लेकिन, इसकी एक सीमा है. इस सीमा से आगे सामाजिक व्यवस्था और जागरूकता है. जन भागीदारी है.
जन भागीदारी से ही हम परंपरा पालन के नाम पर होनेवाले वनों और वन्य प्राणियों की क्षति को बचा सकते हैं. विभाग के एक प्रयास का नमूना दलमा वन्य आश्रयणी में दिखता है. वहां रहनेवाले लोगों (ग्रामीणों) के सहयोग से जंगल भी बच रहा है और जानवर भी. पिछले कुछ वर्षो से वहां काम करने का मौका मिल रहा है. लोगों को जोड़ने का प्रयास किया गया है.
यही नतीजा है कि आज दलमा के वन्य प्राणियों (विशु शिकार के दिन) को नहीं मारे जाने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल रही है. 2013 में वन विभाग के अधिकारियों ने तय किया कि दलमा वन्य आश्रयणी में पड़नेवाले करीब 85 गांव के लोगों को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कैसे जोड़ा जाये. विभाग ने जंगली जानवरों से होनेवाले क्षति का मुआवजा तुरंत भुगतान करवाया. यहां रहनेवाले लोगों के लिए रोजगार सृजन की संभावना खोजी गयी. कौशल विकास कार्यक्रम के तहत उन्हें प्रशिक्षित किया गया.
उन्हें वन के महत्व की जानकारी दी गयी. वन कानून उल्लंघन करने पर होनेवाली कार्रवाई के बारे में बताया गया. कोशिश की गयी कि लोगों का भावनात्मक जुड़ाव जंगलों से हो.
आदिवासी समुदाय के प्रभावशाली लोगों को समझाने की कोशिश की गयी. बताया गया कि परंपरा का पालन जरूरी है, लेकिन अंदाज पुराना हो, यह जरूरी नहीं. वन्य प्राणियों और जंगलों को बचाने का कर्तव्य भी हमारा ही है. यह हमारा धर्म भी. आज पूर्व की तरह व्यवस्था भी नहीं है. जंगल घट गये हैं. जानवरों की संख्या भी घट गयी है.
पूर्व में जानवर और जंगल ही जीवन यापन का साधन हुआ करते थे. आज इसके कई विकल्प हैं, जिसमें सरकार भी सहयोग करना चाहती है. सरकार के विश्वास दिलाने के बाद ग्रामीण भी आश्वस्त हो गये. पिछले दो साल से यही स्थिति है. सरकार और जनता के विश्वास के नतीजा है कि वहां वन और वन्य प्राणियों की सुरक्षा हो रही है.
यह केवल एक प्रयोग है, जिसमें लोगों को जोड़ने का प्रयास किया गया. इसका नतीजा भी सामने है. यही प्रयोग पूरे राज्य में चलाने की जरूरत है. लोगों में जागरूकता की कमी नहीं है. कोई कानून को हाथ में नहीं लेना चाहता है. कहीं-कहीं मजबूरी भी होती है. यह मजबूरी क्या है, यह जानने और समझने की जरूरत है.
झारखंड वनों का प्रदेश है, तो इसके महत्व को बचाये रखने की जिम्मेदारी हमारी है. इसे एक अभियान के रूप में लेने की जरूरत है.
दलमा एक उदाहरण हो सकता है. उम्मीद है कि विभिन्न स्वयंसेवी संगठनें, इको विकास समितियां, स्थानीय निकाय सहयोग करें. बच्चों में वन के प्रति एक मोह पैदा करना होगा, वही देश के भविष्य हैं. उन्हें वन के महत्व की जानकारी होगी, तो यह कारवां आगे बढ़ता रहेगा.
( लेखक रांची में वन प्रमंडल पदाधिकारी हैं )