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चीन ने चुरा ली है सोने की चमक

राजीव रंजन झा संपादक, शेयर मंथन सोना सस्ता हो रहा है, तमाम दूसरी धातुएं सस्ती हो रही हैं, कच्चा तेल सस्ता हो रहा है. ये भारत के लिए अच्छी खबरें हैं, क्योंकि भारत इन चीजों का आयातक देश है. उधर, चीन का शेयर बाजार धराशायी हो रहा है. हम खुश हो सकते हैं कि विश्व […]

राजीव रंजन झा
संपादक, शेयर मंथन
सोना सस्ता हो रहा है, तमाम दूसरी धातुएं सस्ती हो रही हैं, कच्चा तेल सस्ता हो रहा है. ये भारत के लिए अच्छी खबरें हैं, क्योंकि भारत इन चीजों का आयातक देश है. उधर, चीन का शेयर बाजार धराशायी हो रहा है. हम खुश हो सकते हैं कि विश्व मंच पर भारत का मुख्य प्रतिद्वंद्वी खुद पस्त हो रहा है. लेकिन, यह इतना सरल समीकरण भी नहीं है. आगे इसकी बात करेंगे.
यूरोप ठीक से संभला नहीं है और ग्रीस को अभी-अभी संकट के गर्त में फिसलने से किसी तरह बचाया गया है. मगर विश्व अर्थव्यवस्था की धुरी रहनेवाला देश अमेरिका जरूर संभलता दिख रहा है और इसका परिणाम विश्व की तमाम प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले डॉलर की मजबूती के रूप में सामने आ रहा है. आप यह जान कर खुश हो सकते हैं कि सोना सस्ता हो गया है.
भारत में ज्यादातर लोग इस खबर से खुश ही होते हैं, क्योंकि ज्यादातर लोगों को सोना खरीदने का ही मन होता है. यहां सोना बेचना तो मजबूरी का काम होता है. बेशक, अब कमोडिटी एक्सचेंजों में नियमित खरीद-बिक्री करनेवालों का भी एक तबका तैयार हो गया है और उस तबके में जो खरीदार होते हैं, उनके लिए भाव घटना अच्छी खबर नहीं होती. लेकिन यह तबका बहुत छोटा है.
सोना सस्ता होना देश के वित्त मंत्री के लिए भी सुकून देनेवाली खबर है. भारत के कुल आयात में सोने के आयात की बड़ी हिस्सेदारी है. इतना कि सोना ज्यादा आयात होने लगे या इसके दाम ज्यादा ऊंचे हो जायें, तो देश का बही-खाता बिगड़ने लगता है. वहीं सोना सस्ता होने से देश का चालू खाते का घाटा नियंत्रण में रहता है, जिससे अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की निगाहें टेढ़ी नहीं होतीं.
2011 से ही विश्व बाजार में सोने की कीमतें लगातार नीचे ही आयी हैं, मगर बीच-बीच में थोड़ी तेजी आती रहती है. उसी रुझान के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी एक्सचेंज कॉमेक्स में सोने की कीमत इस साल जनवरी में 1303.5 डॉलर प्रति औंस के स्तर तक चढ़ गयी थी.
वहां से गिरते हुए 20 जुलाई को यह कीमत 1100 डॉलर के नीचे और 24 जुलाई को 1078.6 डॉलर तक फिसल गयी. इस तरह जनवरी के ऊपरी स्तर से सोने की अंतरराष्ट्रीय कीमत 17.3 प्रतिशत गिर चुकी है. वहीं भारतीय बाजार में सोने की कीमत (एमसीएक्स) इस साल फरवरी में 28,500 रुपये के ऊपरी स्तर तक गयी थी. उसकी तुलना में अब यह कीमत 25,000 रुपये के नीचे आ गयी है. शुक्रवार 24 जुलाई को यह कीमत 24,451 रुपये तक गिर गयी थी. इस तरह भारतीय बाजार में सोने की कीमत फरवरी से अब तक 14 प्रतिशत से अधिक गिर चुकी है.
सोने की यह गिरावट एक तरफ अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मजबूती और डॉलर की कीमत बढ़ने से जुड़ी है, तो दूसरी तरफ चीनी अर्थव्यवस्था के संकट से भी. यह सामान्य सा नियम है कि जब डॉलर मजबूत होता है, तो सोने की कीमत घटती है. वहीं जब डॉलर के प्रति विश्व बाजार में भरोसा कम होता है, यानी अमेरिकी अर्थव्यवस्था संकट में दिखती है, तो लोग सोने में निवेश करके सुरक्षा की तलाश करते हैं.
इस समय विश्व बाजार में निवेशक सोने से दूर हो रहे हैं. थॉमसन रॉयटर्स के ताजा जीएमएफएस सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी है कि साल 2015 की दूसरी तिमाही (अप्रैल-जून) में सोने की भौतिक मांग साल 2009 से अब तक के न्यूनतम स्तर पर है. साल भर पहले की तुलना में यह मांग 14 प्रतिशत कम रही है और इसका मुख्य कारण चीन के खरीदारों का बाजार से दूर हो जाना है.
साल के पहले पांच महीनों में तो चीन के निवेशक सोना खरीदने से इसलिए बचते रहे कि उन्हें अपने शेयर बाजार में मुनाफा मिल रहा था. फिर जून में चीन का शेयर बाजार बुरी तरह गिरने लगा. लेकिन इससे निवेशकों का रुझान सोना खरीदने की ओर नहीं लौटा, क्योंकि उनकी पूंजी शेयर बाजार में फंसी हुई थी.
चीन के शेयर बाजार में अब संकट गहराता दिख रहा है. इस हफ्ते सोमवार को एक ही दिन में चीन का मुख्य शेयर सूचकांक शंघाई कंपोजिट 8.5 प्रतिशत लुढ़क गया. यह पिछले आठ सालों में इसकी एक दिन की सबसे तीखी गिरावट थी. लेकिन, इस संकट के चलते चीन के निवेशक क्या सुरक्षा के लिए सोने की शरण लेंगे? शायद नहीं, क्योंकि इस समय उनके लिए डॉलर का विकल्प कहीं ज्यादा भरोसेमंद है.
जीएमएफएस सर्वेक्षण से पता चलता है कि अप्रैल-जून 2015 की तिमाही में भारत में सोने के गहनों की खपत 2.5 प्रतिशत बढ़ कर 158 टन रही. सोने में खुदरा निवेश में कमी नहीं आयी और इस तिमाही में यह 50 टन पर स्थिर रहा. हालांकि, सोने के आयात में कमी आयी.
सोने, कच्चे तेल और अन्य कमोडिटी भावों की गिरावट में चीन की धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था के असर ने भारत के सामने एक बड़ा अवसर भी रखा है और एक बड़ी चुनौती भी. चीन की विकास दर दहाई के आंकड़े से घट कर 7 प्रतिशत पर आ गयी है. बहुत से विश्लेषक इस आंकड़े को भी विश्वसनीय नहीं मानते और वे 5 प्रतिशत के आसपास की आशंका जता रहे हैं.
कुछ लोग तो इसके घट कर अमेरिकी विकास दर के आसपास यानी लगभग 3 प्रतिशत हो जाने की बातें करने लगे हैं.
चीन की अर्थव्यवस्था में इस धीमेपन का अर्थ यह होगा कि वैश्विक बाजार में सोना, अन्य धातुओं और कच्चा तेल समेत हर तरह की कमोडिटी के भावों में और ज्यादा गिरावट आयेगी. लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि चीन की अर्थव्यवस्था में धीमापन आने से पूरी विश्व अर्थव्यवस्था में हर तरह के उत्पादों और सेवाओं की मांग कम होगी. इसका असर भारत के हर तरह के निर्यात पर भी होगा. इसके अलावा, चीन में धीमापन आने से वैश्विक नकदी का प्रवाह कमजोर हो सकता है और इसका बुरा असर भारत में आनेवाले निवेश पर भी हो सकता है.
इसलिए चीन में संभावित धीमेपन के असर से खुद को बचाना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है. लेकिन, अगर चीन में धीमापन आने के समय ही भारत पूरी शक्ति लगा कर अपनी विकास दर को तेज करने में सफल हो जाये, तो हम इस चुनौती को बड़े अवसर में बदल सकते हैं. भारत की विकास दर बढ़ने से वैश्विक बाजार में कमोडिटी भावों में आनेवाली गिरावट सीमित रह जायेगी.
साथ ही वैश्विक निवेशकों को धीमे पड़ते चीन की तुलना में तेज हो रहे भारत के रूप में निवेश का एक आकर्षक विकल्प दिखेगा, यानी भारत में निवेश की रफ्तार पहले से तेज हो जायेगी. ऐसे में देश में ज्यादा डॉलर आने से रुपये में भी मजबूती आयेगी और भारत डॉलर की मजबूती के चलते अपने ऊपर आनेवाले दबावों से बच जायेगा. लेकिन, क्या भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस अवसर को पहचान पा रहा है?

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