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संतोष से ही आयेगी विश्व शांति

‘चांद न बदला, सूरज न बदला, न बदला है भगवान, कितना बदल गया इनसान.’ यह गीत पुराना है, पर मन को टटोलता है. लेकिन मुङो ऐसा लगता है कि इनसान नहीं बदला है. बदलती परिस्थितियां तथा सामाजिक व आर्थिक विषमताएं उसे अपने अनुसार ढलने को मजबूर करती हैं. लोभ, हिंसा और महत्वाकांक्षा पहले भी थी […]

‘चांद न बदला, सूरज न बदला, न बदला है भगवान, कितना बदल गया इनसान.’ यह गीत पुराना है, पर मन को टटोलता है. लेकिन मुङो ऐसा लगता है कि इनसान नहीं बदला है. बदलती परिस्थितियां तथा सामाजिक व आर्थिक विषमताएं उसे अपने अनुसार ढलने को मजबूर करती हैं.
लोभ, हिंसा और महत्वाकांक्षा पहले भी थी और आज भी है. इतिहास के पन्नों को पलटने से मालूम होता है कि महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर साम्राज्यवाद की लालसा में कितने युद्ध हुए तथा जान-माल की कितनी हानि हुई. इससे लगता है कि इनसान परिस्थिति का गुलाम है एवं इसकी जड़ अंतुष्टि है. यही असंतुष्टि अपनी जड़ फैला कर सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक सभी प्रकार की गतिविधियों में अपना मायाजाल फैला देती है, जो देश के विकास में बाधक बनता है.
वास्तव में कोई दो जून की रोटी के लिए खून-पसीना एक करता है, तो कोई लोभ-लालच, महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर करोड़ों में खेलता है, जिससे समाज में एक बहुत बड़ी खाई पैदा हो जाती है. यही खाई अंतत: लूट-खसोट, छिनतई, चोरी, भ्रष्टाचार तथा आतंकवाद को जन्म देती है.
हमें याद रखना होगा कि चाहतों का कोई अंत नहीं होता. एक लक्ष्मण रेखा खींचे जाने की जरूरत महसूस होती है. मेरा मानना है कि वह अमोघ अस्त्र संतोष है. संतोष को पाकर हम आगे बढ़ सकते हैं.
यही वह अस्त्र है, जो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक और राजनैतिक ताने-बाने को बदल सकता है. यदि सही मायने में देश को विकास कराना है, तो पहले लोगों में संतोष का बीज बोना होगा. यदि कोई संतोषपूर्वक निष्ठा का निर्वहन नहीं करेगा, तो देश में विकास संभव ही नहीं है.
उदय चंद्र, रांची

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