हमें शशि थरूर का आभार इस बात के लिए मानना चाहिए कि इस मुआवजे की मांग के बहाने उन्होंने अंगरेजी राज की विरासत का तटस्थ लेखा-जोखा तैयार करने के लिए हम सभी को उद्वेलित किया है.
शशि थरूर की तारीफ जितनी की जाये, उतना कम है. जिस दिन सवेरे उन्होंने अपनी नेता नंबर एक से डांट खायी, उसी दिन दोपहर जिन नरेंद्र मोदी की खोट बखानने में वह व्यस्त रहते हैं, उनके मुखारविंद से अपनी तारीफ के पुल सुन कर बाग-बाग ही नहीं हुए वरन् सुर्खियों में भी छा गये. यह पराक्रम असाधारण ही कहा जा सकता है. बहरहाल, इस घटना का सही विश्लेषण करने के लिए इसकी पृष्ठभूमि जानना बेहद जरूरी है.
थरूर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की वार्षिक वाद-विवाद सभा में भाषण दे रहे थे. उन्होंने इस मौके का लाभ उठाते हुए औपनिवेशिक दौर में ब्रिटेन द्वारा भारत के शोषण तथा उत्पीड़न का ब्योरा पेश करने के साथ यह मांग भी मुखर की कि भारत को अपनी संपदा और प्राकृतिक संसाधनों की लूट का मुआवजा मिलना चाहिए! यह भाषण सोशल मीडिया में ‘वायरल’ हो गया और लाखों लोगों ने शशि के विचारों से अपनी सहमति प्रकट की. नरेंद्र मोदी शशि थरूर की प्रशंसा व्यक्ति के रूप में नहीं कर रहे थे, बल्कि उनके देशप्रेमी-उपनिवेशवाद विरोधी तेवरों का अनुमोदन कर रहे थे.
यहां एक और बात याद दिलाना परमावश्यक है. कुछ वर्ष पहले भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इसी विश्वविद्यालय की इसी सभा को संबोधित किया था. उनके भाव-विभोर भाषण का स्वर अंगरेजों के चरण-चुंबन जैसा ही था. उनकी समझ में अंगरेजों की दो अनमोल देन भारत को चिरस्मरणीय रहेंगी- अंगरेजी भाषा और कानून का राज बरकरार रखनेवाली पुलिस. जाहिर है कि इस विद्वान की मानसिक दासता का प्रमाण जगजाहिर करने के अलावा इस भाषण ने कुछ हासिल नहीं किया. यह शर्मनाक टिप्पणी कुछ पल विवादास्पद बनी. फिर जैसा मनमोहन सिंह के साथ होता था- उनकी कही बातों को बिसरा दिया गया. हमारी समझ में विलायत की पढ़ाई से अभिभूत मनमोहन ने एक अच्छा अवसर गंवा दिया. परंतु ‘जो आज्ञा महाराज! (या महारानी!)’ के अनुसार जीवन यापन करनेवाले प्रशासक, दरबारी अनुचर से किसी मौलिक विचार की अपेक्षा ही देश को कब रही है?
बहरहाल, मोदी ने जिन शब्दों की भूमिका के साथ शशि की पीठ थपथपायी, वह नजरअंदाज नहीं किये जा सकते. प्रधानमंत्री ने कहा कि शशि ने उपयुक्त जगह पर सही बात की. ‘उपयुक्त जगह’ का प्रयोग विडंबनापूर्ण लगता है. अगर यही बात विलायत के एक प्रख्यात विश्वविद्यालय में नहीं, बल्कि स्वदेश में कही गयी होती, तो क्या यह इंटरनेट पर इतना तूफानी बवंडर पैदा कर सकती थी? क्या यह खुद औपनिवेशिक दासता का लक्षण नहीं कि ऑक्सफोर्ड- कैंब्रिज, हार्वर्ड, येल आदि की कीमत हमारे अपने शिक्षण-शोध संस्थानों से कहीं ज्यादा आंकी जाती है. क्या यह सच नहीं कि इसी कारण अपने जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा विलायत में बितानेवाले अमर्त्य सेन के फतवों को इतना तूल दिया जाता है? भारतीय गणराज्य में हर मौके पर रंग जमानेवाले मेघनाद देसाई अपने नाम के आगे ‘लॉर्ड’ की उपाधि लगाना कभी नहीं भूलते. यह दोहराना इसलिए जरूरी है कि हाल के दिनों में प्रधानमंत्री की आलोचना इसलिए होती रही है कि उनकी असली चिंता अपनी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग बढ़ाने की ही है. ताबड़तोड़ विदेश यात्रओं का और सबब क्या है? क्या यह सच नहीं कि अपनी सरकार का आर्थिक सलाहकार चुनते वक्त उनकी निगाह भी अमेरिका में बसे और काम करनेवाले पानागढ़िया तक ही सीमित रही?
जाने दीजिए इस विषयांतर को. असली बहस शशि ने जो मुद्दे उठाये, उन पर ही केंद्रित रख जारी रहनी चाहिए. थरूर इस बात को भली भांति जानते हैं कि ब्रिटेन अपने अपराधों का मुआवजा हिंदुस्तान को कभी नहीं देगा. मगर उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि गलती की माफी को ही काफी समझा जायेगा, यदि यह काम ईमानदारी से किया जायेगा. ‘अगर अगले दो सौ साल तक भारत पर बेरहमी से राज करने के एवज में ब्रिटेन हर साल एक रुपया मात्र भी देगा, तो हम संतुष्ट होंगे! कड़वा सच यह है कि यह भी हमें नसीब होनेवाला नहीं. बीच-बीच में उत्कट राष्ट्रभक्त यह मांग उठाते रहेंगे- महारानी एलिजाबेथ कोहिनूर हीरा वापस करें या किसी नीलामी में कोई मनमौजी अय्याश कुबेर टीपू सुल्तान की तलवार खरीद कर लौटा लायेगा. या फिर हम मुखमार्जन के लिए इस्तेमाल किये जानेवाले पान मसाले के विज्ञापन में ईस्ट इंडिया कंपनी खरीदने के दावे से ही गदगद होते रहेंगे.
हमारी समझ में हमें शशि का आभार इस बात के लिए मानना चाहिए कि इस मुआवजे की मांग के बहाने उन्होंने अंगरेजी राज की विरासत का तटस्थ लेखा-जोखा तैयार करने के लिए हम सभी को उद्वेलित किया है. करीब दो सौ साल के इतिहास के बारे में ही नहीं, आज के जनतांत्रिक हिंदुस्तान की विषमता से पीड़ित असलियत के लिए अंगरेजों की जिम्मेवारी के बारे में भी पश्चिमी खास कर विलायती सोच, और लगभग प्रायोजित बौद्धिक अभियानों की पड़ताल की जरूरत है. बात इतनी सी नहीं कि अंगरेज उदीयमान शक्ति भारत में अपने मुनाफाखोर कारोबार को फैलाने के लिए ब्रिटेन की मौजूदा या भविष्य की कोई सरकार माफी मांग लेगी या शायद प्रतीकात्मक मुआवजा भी देना कबूल कर ले. समस्या यह है कि क्या हम एक बार फिर शहद सनी बातों के झांसे में फंस जायेंगे? कब तक विलायत और अमेरिका में अपनी छवि के संदर्भ में ही मनमोहन या मोदी नीति-निर्धारण करते रहेंगे?
इसके साथ जुड़ी उलझी गुत्थी बौद्धिक दासता की है. बरसों से ‘सबाल्टर्न’ कहलानेवाले इतिहासकार जमीनी हकीकत को अदना इंसानों की नजर से देख इतिहास के पुनर्लेखन की बात करते रहे हैं. पर मार्क्सवादी हों, सबाल्टर्न या उत्तर आधुनिक, इन सभी भारतीय विद्वानों के प्रेरणास्नेत और मार्गदर्शक गुरु विलायती पंडित ही रहे हैं. आधुनिकता, पंथनिरपेक्षता, जनतंत्र और मानवाधिकार सम्मत कानून की हमारी कसौटियां पश्चिमी (बर्तानवी-अमेरिकी) ही बनी हुई हैं. यहां स्थानाभाव के कारण इस बारे में तफसील से बात नहीं की जा सकती. पर इसका मतलब यह नहीं कि हम इसे ज्यादा समय तक टाल सकते हैं.
क्रिकेट के खेल में व्याप्त भ्रष्टाचार हो अथवा संसदीय विशेषाधिकार का दुरुपयोग, क्या इन सब के लिए 19वीं सदी के विक्टोरियाई कुंठाओं से ग्रस्त मानसिकता और तत्कालीन ‘प्रबुद्ध’ सोच का अंधानुकरण ही नहीं है? ब्रिटेन से माफी और मुआवजे की मांग के साथ क्या हमें अपने शासकों से उनके बदस्तूर सामंती राजाओं, निरंकुश जातिवादी सूबेदारों और उद्दंड गोरे लाट साहबों या अंगरेजों के जमाने के जेलर सूरमा भोपाली की तरह आचरण करने के लिए यही मांग नहीं करनी चाहिए?
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com