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पहले इंसानियत मरी, फिर मरा इंसान!
मुजफ्फरपुर: भिखारी.. मानो इस छोटे से शब्द ने सबको उनकी जिम्मेदारी से छुटकारा दिला दिया हो. चाहे प्रशासनिक तंत्र हो, जनप्रतिनिधि हो, या फिर समाज की बेहतरी के लिए लंबे-चौड़े दावे करने वाले सामाजिक संगठन. सकरा प्रखंड के दिहुली गांव के पास 19 जुलाई की रात भूख से हुई अधेड़ की मौत ने पूरे सिस्टम […]
मुजफ्फरपुर: भिखारी.. मानो इस छोटे से शब्द ने सबको उनकी जिम्मेदारी से छुटकारा दिला दिया हो. चाहे प्रशासनिक तंत्र हो, जनप्रतिनिधि हो, या फिर समाज की बेहतरी के लिए लंबे-चौड़े दावे करने वाले सामाजिक संगठन. सकरा प्रखंड के दिहुली गांव के पास 19 जुलाई की रात भूख से हुई अधेड़ की मौत ने पूरे सिस्टम को कटघरे में खड़ा कर दिया है.
बस, किसी की जवाबदेही इसीलिए तय नहीं हो पा रही कि उसके पीछे कोई आवाज उठाने वाला नहीं है. सकरा पुलिस ने शव का पोस्टमॉर्टम करवा कर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया. तीसरे दिन तक उसकी पहचान नहीं हो सकी थी.
एनएच 28 (मुजफ्फरपुर-समस्तीपुर मार्ग) पर सकरा थाना के दिहुली गांव के पास रविवार की शाम 45 वर्षीय व्यक्ति की भूख से तड़प कर मौत हो गयी. कुछ देर में ही मौके पर ग्रामीणों की भीड़ जुट गयी. गांव के लोगों ने उसकी पहचान एक भिखारी के रूप में की, जो तीन-चार दिनों से गांव के आसपास भटक रहा था. न कोई पता, न ठिकाना. रात करीब 10 बजे ग्रामीणों की सूचना पर पहुंची सकरा थाना की पुलिस ने शव को कब्जे में ले लिया. सोमवार को शव का पोस्टमार्टम कराया गया. पुलिस के मुताबिक पीएम रिपोर्ट में यह बात सामने आयी कि अधेड़ की मौत भूख से हुई है. उसके पेट में अन्न का एक भी दाना नहीं था.
भले ही यह मौत एक भिखारी की है, लेकिन इससे सिस्टम के साथ समाज की संवेदना पर भी सवालिया निशान लग गया है. खुद ग्रामीणों का कहना है कि चार दिनों से इधर-उधर घूम रहा था. यानी आसपास के क्षेत्र में वह भोजन की आस लिए भटकता रहा. किसी को उसकी दशा पर तरस नहीं आयी. फिर, उसकी मौत केवल चार दिन भूखे रहने से नहीं हो सकती. इससे पहले भी वह न जाने कितने दिनों से भूखा होगा, और न जाने कहां-कहां भोजन की आस में चक्कर लगाये होंगे.
बस, सब उसे भिखारी मानकर दुत्कारते रहे और वह दो रोटी की आस में आगे बढ़ते-बढ़ते मौत के मुंह तक पहुंच गया.
कागज पर चल रहे बेहतरी के प्रयास
अनाथ-बेसहारा लोगों की बेहतरी को राज्य में कई सामाजिक संगठन काम कर रहे हैं. हालांकि इनकी नजर कभी शहर-कसबे की चमक-दमक से दूर गांवों की ओर शायद ही पड़ती है, जहां हकीकत में लोग लाचारी का जीवन जी रहे हैं. अधिकतर काम कागजों पर ही पूरा करके अपनी जिम्मेदारी खत्म मान लेते हैं, जबकि उनके इंतजार में बहुत सारे जरूरतमंद बैठे हैं.
सरकारी योजनाओं का भी नहीं मिलता लाभ
राज्य व केंद्र सरकार की ओर से ऐसे लोगों के लिए तमाम योजनाएं चलायी जा रही हैं. हालांकि जो सही में पात्र हैं, वे खुद सरकारी कार्यालय तक नहीं पहुंच पाते और सरकारी कर्मचारियों को गरज ही नहीं कि उन्हें ढूंढकर लाभ दिलाएं. ऐसे में अधिकतर योजनाओं का लाभ सही तौर पर पात्रों को नहीं मिल पाता.
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