– हरिवंश –
(मास्को में आयोजित वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स और एडीटर्स फोरम में भाग लेकर लौटने के बाद)वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स (वैन) और वर्ल्ड एडीटर्स फोरम की बैठक में भाग लेने हम मास्को पहुंचे हैं.वर्ष 1994 में अमेरिका जाना हुआ. एक पूर्वाग्रह के साथ. हमारी पीढ़ी समाजवादी, साम्यवादी, नक्सली विद्रोह, हिप्पी उभार, चेग्वेरा की चमक, वियतनाम युद्ध और विचाराधाराओं की राजनीति की छांव में पली-बढ़ी, विकसित हुई.
उस युग की स्वाभाविक विरासत थी, अमेरिका विरोधी मानस पनपना. स्वत:. यह मानस लेकर अमेरिका घूमना हुआ. इस यात्रा से ‘अमेरिकी वर्चस्व’ का राज समझने में मदद मिली. अपने देश के प्रति अद्भुत समर्पण. सार्वजनिक जीवन में अनुशासन, संस्थाओं (सेंटर ऑफ एक्सलेंस) को सर्वश्रेष्ठ बनाने में समझौताविहीन मर्यादाएं-नीतियां जैसे संकल्प, अमेरिकी ताकत के मूल में हैं.
यूरोप घूमना, आधुनिक इतिहास की जड़ों से दरस-परस था. आधुनिकता के आरंभ, विकास की सीढ़ियां और फिर यूरोप के पतन-आपसी संघर्ष की झलक दिलानेवाली यात्रा. यूरोपीय वर्चस्व की शताब्दी के अवशेषों-प्रतीकों से दरस-परस. जहां से पहली बार समुद्र को नौ सेना, जहाजी बेड़ों और दिशाबोधक यंत्रों से बांधने में मनुष्य कामयाब हुआ.
पर इसके साथ ही साम्राज्यवादी रुख, गुलाम बनाने की स्पर्द्धा, विस्तारवादी अहं भी यूरोप में जन्मे. रंगभेद का विष भी, यूरोप के बौद्धिक पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति के मंथन क्रम में ही मानव सभ्यता के हाथ लगे. दो-दो विश्व युद्ध का उद्गम स्रोत रहा है, यूरोप. आज औद्योगिक क्रांति की सीढ़ियां सूचना क्रांति, ग्लोबल विलेज और पोस्ट इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन तक पहुंचते-पहुंचते, यूरोप के हाथ से खिसक कर अमेरिकी प्रभाव में है.
चीन देखना, सिंगापुर-हांगकांग जाना, उभरते ‘एशियन शताब्दी’ की चर्चा के दौरान संपन्न हुआ. सिंगापुर में एक व्यक्ति ली युआन क्यू ने न भूलनेवाले सामर्थ्य-रचना शक्ति से साबका हुआ.
मनुष्य चमत्कार कर सकता है, यह देखा. चीन देखते हुए नेपोलियन (या चर्चिल) की मशहूर टिप्पणी याद आयी, इन्हें अफीम के नशे में सोये रहने दो, जगेंगे तो पूरी दुनिया में छा जायेंगे. जागते चीन को देखना, पूरी दुनिया में छाते जाने और बढ़ते वर्चस्व का गवाह होना है. कोरिया (दक्षिण) को देखना, मनुष्य के संकल्प-सामर्थ्य और उर्वरा क्षमता से रूबरू होना था.
कोरिया-चीन में बौद्ध धर्म की गूंज सुनना, भारत के अतीत के मधुर संगीत सुनने जैसा था. बर्मा की धरती पर बौद्ध गोनपाओं को देखते-देखते, मांडले जेल, सुभाष बाबू की सजा, लोकमान्य तिलक का कठोर मांडले कारावास और ‘गीता रहस्य’ रचना की स्मृति छायी रही. बहादुरशाह जफर के मजार पर तत्कालीन भारत के पराभाव और असमर्थता के स्वर भी सुनाई दिये.
पाकिस्तान की यात्रा, भारत के धवल-कीर्तिमान अतीत से ले कर मौजूदा आंतरिक कमजोरी की झलक पाने का अवसर था. चाणक्य, चंद्रगुप्त, अशोक तक्षशिला से लेकर अकबर तक का दौर, फिर द्वेष, ईर्ष्या और हिंसा के बीज-खाद से स्पर्द्धा. शत्रुता की खेती.
इन यात्रा अनुभवों के साथ ‘एयरोफ्लोट’ , रूसी विमान से रूस की यात्रा शुरू हुई. देर रात, विमान उड़ान भरने के साथ ही विमान में लगे टीवी पर यात्रा रूट (मार्ग) दिखाया जाता है. दिल्ली से लाहौर होते हुए काबुल, ताशकंद, तुला होते हुए मास्को. साढ़े छह घंटे की हवाई यात्रा. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान होते हुए मास्को की यात्रा. अफगानिस्तान-पाकिस्तान भारत के इतिहास का सबसे प्रमुख राजमार्ग रहा है. बाबर से लेकर अतीत में सिकंदर तक के अभियान का गवाह इलाका. लाहौर से काबुल के बीच घनघोर बादल हैं. 42000 फीट पर उड़ता ‘एयरोफ्लोट’ भी अस्थिर है.
बामियान (अफगानिस्तान) में बुद्ध की नष्ट मूर्तियों से लेकर लादेन का स्मरण, काबुल-अफगानिस्तान से गुजरते हुए होता है. शांति से ध्वंस की ओर अग्रसर मानव यात्रा. अफगानिस्तान पार होते-होते सुबह हो जाती है. दुर्गम पहाड़ियों के जाल दिखाई देते हैं. भारत पहुं चे लगभग सभी विदेशी आक्रमणकारियों ने इन कठिन यात्रा मार्गों का उल्लेख किया है.
यात्राएं, जीवन-संसार और सृष्टि की झलक दिखाती हैं. नये उत्साह-ऊर्जा का संचार करती हैं. पर पिछले कुछेक वर्षों से यात्राएं बोझ लगने लगी हैं. शायद नौकरी के तनाव, नौकरी की जरूरत और काम के बोझ को ढोते हुए होनेवाली यात्राओं ने, यात्रा के मूल मर्म (कुछ नया देखना-जानना) और आनंद को खत्म कर दिया है.
इसलिए यात्राएं अरुचिकर हो रही हैं या बढ़ती उम्र के कारण बोझ लग रही है, नहीं जानता. पर रूस-मास्को की यात्रा की संभावना ने रोमांचित किया था. सोवियत रूस को लेकर मन में बैठी न जाने कितनी संचित चीजें उभर आयीं. गोर्की, पुश्किन, चेखव, टालस्टाय, बोरिस पास्तेर्नाक ….. से सोल्जेनेत्सिन तक. जार से लेनिन तक. यायावर राहल सांकृत्याय का ‘बोल्गा’ से ‘गंगा’ तक के स्मरण.
प्रखर पत्रकार-चिंतक राजेंद्र माथुर का सोवियत रूस के बारे में एक टिप्पणी हमेशा कौंधती रही है, ढलती रात में विमान से बादलों को देखते हुए याद आती है … ‘लेनिन की बोल्शेविक क्रांति. दस दिन, जिन्होंने दुनिया को हिला दिया. दस दिन, जिन्होंने पचास वर्ष तक दुनिया को प्लेग दिया, सन्निपात दिया, पागलखाना दिया और सारी धरती की जवानी को मोक्ष का पार्थिव पर्याय दिया. तब लगता था कि एक प्रयत्न और किया, एक धक्का और दिया, तो यह पृथ्वी हर्षातिरेक की सामूहिक समाधि तक पहुंच जायेगी. लेकिन वह नहीं पहुंची.
स्वर्ग के द्वार पर दस्तक दे कर बीसवीं शताब्दी लौट आयी. तब कौन जानता था कि ये पट कभी नहीं खुलते. इंसानियत की नियति है कि वह बार-बार इन तटों पर दस्तक दे. हर सदी में अपने-अपने ढंग से दस्तक दे. नियति है कि द्वार तक पहुंच कर हम छले जायें. यही प्रगति है. मंजिल सदा-सदा से छल ही रही है. केवल प्रयत्न यथार्थ है और हमारे सपनों का केलकुलस यथार्थ है.’
तातारों, ओटोमन साम्राज्य, मुगल हमलावरों, जर्मन आक्रमणकारियों, नेपोलियन से लेकर हिटलर तक के हमलों को झेलते-झेलते 20वीं शताब्दी में दुनिया की दूसरी महाशक्ति के रूप में उभरनेवाली धरती है रूस.
अत्यंत केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था (कमांड इकानामी), सर्वहारा की तानाशाही, एक अत्यंत ताकतवर टेक्नोलॉजिकल, इंडस्ट्रियल, साइंटिफिक और मिलिट्री इकानामीवाले राजसत्ता का उदय. जहां विरोध, व्यक्ति स्वातंत्रय, निजी स्वामित्व और वे सारी चीजें जिन्हें प्रगतिशीलों ने मानव विरोधी, प्रगति विरोधी करार दिया, खत्म कर दी गयीं. क्रूरता से कुचल दी गयीं. और इस नये प्रयोग को नयी सभ्यता-संस्कृति का उदय कहा गया. इस नयी दुनिया के आगमन-आहट की खुशी में दुनिया के कोने-कोने में उल्लास-हर्ष के स्वर सुनाई पड़े.
पर महज सात दशकों में ही दो ध्रुवीय दुनिया, एक ध्रुवीय बन गयी. सपनों की वह नयी दुनिया बिखर गयी. सात दशकों तक सोवियत रूस को चलानेवाले सात शासक हुए. एक का शासन (या आधिपत्य) तीस वर्षों से अधिक रहा.
दो ऐसे हुए , जिनका कार्यकाल एक वर्ष के आसपास रहा. पोलितब्यूरो और कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति यानी लगभग 114 लोगों के हाथ में दुनिया की दूसरी ‘महाशक्ति’ की सत्ता सिमटी थी. पर सत्ता की कुंजी पार्टी महासचिव के हाथ में थी. यानी व्यवहार में एक व्यक्ति की तानाशाही.
इन सातों सुप्रीम सोवियत नेताओं में से कभी भी किसी को जनता ने नहीं चुना. नंबर एक कुरसी के लिए परदे के पीछे हर षड्यंत्र-तिकड़म होता रहा. पर ‘प्रोफेशनल रिवोल्यूशनरी’ नंबर एक का चयन करते रहे. जहां ‘सर्वहारा की तानाशाही’ साकार करते-करते ‘ब्यूरोक्रेटाइजेशन’ का जन्म हुआ. मजदूर, किसान, सर्वहारा की बात करते-करते जहां शासकों के एक नये वर्ग का उदय हो गया. सर्वशक्तिमान, निरंकुश और अनएकाउंटेबुल. और वह महाशक्ति ग्रेट सोवियत रूस, देखते-देखते 15 से अधिक टुकड़ों में बंट-बिखर गया. एक दूसरे के खिलाफ युद्ध के गर्जन सुनाई देने लगे.
इस 20वीं सदी की एक प्रमुख सूत्रधार रही, धरती पर पांव रखना रोमांचकारी लग रहा था. मन में, भावों में, अतीत में, स्मृति में, पर यथार्थ से रूबरू होने में कुछेक घंटे शेष थे. मुझे याद आया गांधीवादी रवींद्र केलेकर का एक कथन. वी आर आल आन एन एसाइनमेंट यानी हम सभी किसी कार्य-योजना के तहत इस धरती पर हैं. पृथ्वी पर का हमारा जीवन एक तरह का ‘बिजनेस ट्रिप’ है. इस बिजनेस ट्रिप का ही एक पड़ाव है, रूस की यात्रा.