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– हरिवंश – संदर्भ : झारखंड झारखंड निगरानी ब्यूरो द्वारा मंत्रियों के यहां छापे. फिर मंत्रियों की संपत्ति ब्योरे की सार्वजनिक जानकारी. हेलीकॅाप्टर दुरुपयोग का हाइकोर्ट में चल रहा प्रकरण. आयकर छापेमारी में इंजीनियरों की संपत्ति के ब्योरे. झारखंड लोकसेवा आयोग में हुई नियुक्तियों के संबंध में राजभवन से जारी आरोप पत्र….. ये महज झलकियां […]

– हरिवंश –
संदर्भ : झारखंड
झारखंड निगरानी ब्यूरो द्वारा मंत्रियों के यहां छापे. फिर मंत्रियों की संपत्ति ब्योरे की सार्वजनिक जानकारी. हेलीकॅाप्टर दुरुपयोग का हाइकोर्ट में चल रहा प्रकरण. आयकर छापेमारी में इंजीनियरों की संपत्ति के ब्योरे. झारखंड लोकसेवा आयोग में हुई नियुक्तियों के संबंध में राजभवन से जारी आरोप पत्र….. ये महज झलकियां हैं.
कुछ बानगी कि झारखंड किस सड़ांध में है? झारखंड की संस्थाएं किस हाल में पहुंचा दी गयीं? इन चीजों के संदर्भ में देखिए, कहां है विधानसभा की भूमिका? क्या करती रही सरकार? विपक्ष की क्या राजनीति चल रही थी?
राजनीतिक दल कहां थे? मीडिया का एक छोटा वर्ग ही क्यों इन मामलों को उजागर कर रहा था? क्या राज था तब मीडिया के बड़े वर्ग की चुप्पी या पक्षधरता या चाटुकारिता या सत्ता पूजन का? राष्ट्रपति शासन में राजभवन से जो अच्छे कदम उठे हैं या आयकर ने जो कदम उठाये हैं, इसके बाद जो तथ्य सार्वजनिक हुए हैं, इनसे स्पष्ट होता है कि झारखंड किस क्रिटिकल सिचुएशन में है?
किसने सड़ाया झारखंडी संस्थाओं को ? और किसने सड़ने दिया? इस सड़ांध को बढ़ाने में क्यों सब साथ रहे या अन्य निरुपाय रहे या सहभागी रहे या मूकदर्शक बने?
सबसे पहले झारखंड की विधानसभा. विधानसभा में हुई नियुक्तियों या इसकी कार्यप्रणाली की गहन जांच हो, तो पता चलेगा कि राज्य की सबसे पवित्र, लोकतांत्रिक संस्था को कितना मलिन किया गया है? लोकतंत्र में यहीं से राज्य का भाग्य तय होता है. फिसलन या पतन पर रोक लगानेवाली यही प्रभावी संस्था है. इस संस्था की नैतिक अगुवाई और आभायुक्त चरित्र से भविष्य निखरना है.
यही संस्था सरकार पर अंकुश रख सकती है. सार्वजनिक जीवन के महत्वपूर्ण सवालों पर पारदर्शी नीति बना सकती है. पर खुद यही विधानसभा नियुक्ति घोटालों में चर्चित हुई. मंत्रियों की लापरवाही, अयोग्यता, सरकारी कामकाज में या कानून बनाने में निरंतर भूलें? निरंतर बनती जांच कमेटियां, पर इनके काम, बैठक और परिणाम? सिफर.
किसे आंख में धूल झोंकने के लिए दिखावे होते रहे? क्या संदेश दिया है, इस विधानसभा ने राज्य को? देश को? क्या इस विधानसभा के सदस्य राज्य में हो रहे कामकाज से नावाकिफ थे? क्या विधायकों या सरकार को नहीं मालूम था कि मंत्रियों में संपत्ति बटोरने की होड़ है? कुछेक इंजीनियर गिरोह बना कर सरकार चला रहे थे.
हर मुख्यमंत्री और सरकार के ये प्रिय पात्र बन जाते हैं. इस राज्य के मोबाइल दारोगा सरकार चलाते थे, मुख्यमंत्री गिराते थे, बनवाते थे. क्या विधानसभा के माननीय सदस्य ये सच नहीं जानते थे? विधानसभा कमेटी के सामने डीजीपी ने मोबाइल दारोगाओं के बारे में टिप्पणी की.
इनके कथन का आशय था कि ये इतने ताकतवर हैं कि इनके सामने संस्थाएं असहाय हो गयी हैं. यह एक प्रतिबिंब है. ऐसे ही मोबाइल दारोगा, इंजीनियरों के मामले में. वह अन्य जगहों पर थे, जिनका राज चल रहा था.
क्या सरकारों द्वारा ऐसे तत्वों को खुले संरक्षण से विधानसभा के सदस्य वाकिफ नहीं थे? पूरा राज्य यह सब जानता था.
राज्य के विकास, गरीबों के नमक, सड़क और संस्थाओं के पैसे, ताकतवर लोग उदरस्थ कर रहे थे, तब कहां थी विधानसभा, सरकार और ये विधायक? माननीय विधायक लोकतंत्र के पहरेदार हैं. इन्हें इसके लिए वेतन और भारी सुविधाएं मिलती हैं.
विधायकों का सालाना विकास फंड है तीन करोड़ रुपये. फिर भी बार-बार इन्‍होंने वेतन और सुविधाएं बढ़ायीं. ये वेतन, सुविधाएं और विकास फंड किस कार्य के लिए हैं? इसलिए ताकि विधायकस्वच्छ और पारदर्शी शासन दें. इसी एवज में न? पर राज्य में क्या कारोबार चल रहा था? जब झारखंड में पतन की यह स्पर्द्धा चल रही थी, तो हमारे विधायक कहां थे?
क्यों विधानसभा में बार-बार बहस नहीं हुई या सवाल नहीं उठे कि हमारी संस्थाएं सड़-गल और पतित हो रही हैं? हम झारखंड का कैसा भविष्य बना रहे हैं? भविष्य की पीढ़ियों के प्रति कोई फर्ज है या नहीं? पर तब प्रतिस्पर्द्धा थी, महंगी गाड़ियों की. करोड़ों के सोने के हार पहनने की. संपत्ति खड़ी करने की. इतिहास का प्रसंग है, रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था. झारखंड की लोकतांत्रिक सरकारों ने साबित किया कि वे नीरो की भूमिका में थीं.
जब झारखंड की सरकारें, मंत्री और लुटेरे अफसर नीरो की भूमिका में थे, तो विधायक चुप क्यों थे? राज्यसभा के चुनावों में विधायकों ने किस फारमूले के तहत वोट डाले? यह देश ने देखा. हां! कुछेक विधायक हैं, हर पक्ष में हैं, जो धारदार तरीके से इन मुद्दों को उछालते रहे हैं, उठाते रहे हैं. पर क्षमा करेंगे, वे माइनोरिटी में हैं. विधानसभा के लिए अनसुनी आवाज. यहां तक कि इनकी पार्टियां भी इन मुद्दों पर जोर-शोर से सामने नहीं आयीं.
जब झारखंड लोकसेवा आयोग में नियुक्तियों के संबंध में सवाल उठे, बुंडू से एक प्रतिभावान छात्र ने प्रभात खबर को पत्र लिख कर पूछा, क्यों न बन जाऊं मैं नक्सली? तब कहां थे हमारे माननीय विधायकगण और विधायिका? झारखंड में ऐसा क्या हो गया था कि प्रभावी लोगों के बाल-बच्चों में ही अचानक प्रतिभा प्रस्फुटित होने लगी? दिलीप प्रसाद और गोपाल प्रसाद सिंह ही दोषी हैं? नहीं.
मंत्री, सांसद, विधायक, अफसर और समाज के प्रभावी लोगों के सगों में जब अचानक ‘प्रतिभा प्रस्फुटन’ होने लगी, इन ताकतवर तबकों द्वारा राज्य लोकसेवा आयोग को नियुक्तियों के लिए विवश किया गया. इसलिए दोषी आयोग के लोग ही नहीं हैं.
किस ब्यूरोक्रेट या नेता के कितने स्वजन अचानक लेˆरर हो गये? क्या कभी यह भी जांच होगी? सूचनाएं तो यह भी हैं, अनेक ऐसे लोग लेˆरर हो गये हैं, जो एक पेज का शुद्ध आवेदन नहीं लिख सकते? ऐसे अज्ञानी लेˆरर इस ज्ञानयुग (नॉलेज एरा) में झारखंड की भावी पीढ़ियों को कैसे तराशेंगे? क्या शिक्षा देंगे? ऐसे शिक्षकों को लाकर जब झारखंड का भविष्य दावं पर लगाया जा रहा था, तब हमारी विधानसभा या सरकारें थीं कहां? झारखंड ने क्या भविष्य दिया है अपने युवकों-युवतियों को? आठ वर्षों से लॉ कॉलेज की फाइल मोटी हो रही हैं, पर कॉलेज नहीं खुला.
आइआइटी और मैनेजमेंट संस्थान खोलने के प्रस्ताव पड़े हैं, कोई सुध नहीं लेनेवाला. विश्वविद्यालयों में शिक्षा किस हाल में है? राज्य में हर साल हम कितने बेरोजगारों की फौज खड़ा कर रहे हैं? झारखंड के गरीब बच्चे और बीमार लोग झारखंड के बाहर पढ़ने-इलाज कराने जाते हैं.
साल में हजारों करोड़ रुपये इन मदों (शिक्षा, स्वास्थ्य) में खर्च करते हैं. झारखंड बनने के बाद इन क्षेत्रों में क्या काम हुए हैं? जब प्रभात खबर में लगातार हर विभाग के कुकर्मों की रपटें छप रही थीं, तब विधानसभा में कुछ विधायक कहते थे, अखबार में छपे पर विधानसभा चलेगी? इस तरह बार-बार वर्षों से प्रभात खबर इस सड़ांध से जुड़े एक-एक प्रसंग, सवाल उठाता रहा है, सामने लाता रहा है.
जोखिम उठा कर. साहस कर. अपने लिए नहीं, इस देश, समाज और झारखंड के लिए. झारखंड के लिए कुर्बानी देनेवालों के लिए. झारखंड की भावी पीढ़ियों के लिए. बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के . प्रभात खबर ने जितने प्रकरण अकेले उठाये, वे सामने हैं. इन सवालों के ताल्लुक सीधे विधानसभा से थे.
विधानसभा अपनी भूमिका से भटक गयी है. सारे रोगों की जड़ राजनीतिज्ञों की अकर्मण्यता है या साझेदारी है या चुप्पी है. प्रभात खबर ने कोशिश की कि जब लोकतंत्र की सबसे प्रभावी संस्था अप्रभावी बनने लगे, तब अखबार वह मंच बने, जहां लोक-पीड़ा, अकर्मण्यता, चोरी, भ्रष्टाचार वगैरह के सवाल उठे. समाज इन पर गौर करे. बिना राग-द्वेष प्रभात खबर अकेले इस भूमिका में बढ़ता रहा, क्योंकि झारखंड की मुक्ति इसी रास्ते है.
पर, विधानसभा में क्या-क्या हुआ? बार-बार प्रभावी लोगों के इशारे और पहल पर प्रभात खबर के खिलाफ प्रिविलेज लाने की तैयारी- धमकी. सरकारों ने अखबार का कितना और क्या नुकसान किया? इस पर कभी और. पर गांधीवादी अप्रोच के तहत प्रभात खबर ने यह भी फैसला किया कि हम अपना ढिंढ़ोरा नहीं पीटेंगे. नहीं छापेंगे कि हमारे उठाये इशूज के इंपैक्ट क्या हो रहे हैं.
पिछले कुछेक वर्षों में प्रभात खबर में उठाये गये एक-एक इशू आज जांच या आयकर छापे के बाद पुष्ट हो रहे हैं या उजागर हो रहे हैं. तब भी हम यह ढोल नहीं पीट रहे कि ये मुद्दे हमने उठाये. न भविष्य में दावा करेंगे. क्यों? यह समाज, सरकार, विधानसभा या राज्य के लिए दुखद प्रसंग है. किसी को आहत करना हमारी पत्रकारिता नहीं है.
जिनके खिलाफ छपा, वे भी क्षमा करेंगे, क्योंकि किसी से निजी द्वेष है ही नहीं. पर, जो गलत रास्ते पर हैं, वे भी सोचें कि गलत काम उनके और उनकी भावी पीढ़ियों के हित में नहीं हैं. राज्य, समाज, हर वर्ग, गरीब, अमीर, सभी खुशहाल होंगे, तो इससे समाज आगे जायेगा. गरीब रोम-रोम से शासकों को दुआएं देते हैं. अच्छे कामों के लिए. क्या हम पूरे समाज को खुशहाल नहीं बना सकते? या मुट्ठी भर लोग समाज की कीमत पर ऊपर जाना चाहेंगे? इसलिए प्रभात खबर ने पूरे समाज की पत्रकारिता की.
सरकार की भूमिका-
झारखंड में पिछले आठ वर्षों में जो सरकारें आयीं, वे एक से बढ़ कर एक. माल्थस ने कहा था, जनसंख्या गुणात्मक गति से छलांग लगाती है. बननेवाली हर सरकार अपनी पिछली सरकार को लाख गुना बेहतर साबित कर देती थी, अपने आचरण से. पतन में स्पर्द्धा थी, लूट में स्पर्द्धा थी.
सरकार की नीतियों और फैसलों को बेचने में स्पर्द्धा थी. इतना ही नहीं इसके बाद मंत्रियों के दंभ, आचरण और बड़बोलापन देखने योग्य थे. वे इस अंदाज में बात करते थे, मानो दुनिया इनकी मुट्ठी में हो. हार्न बजा कर सड़कों पर खौफ पैदा करते थे, जैसे वे अविनाशी हों, अनश्वर हों.
इनके शब्द कानून थे. संविधान की धज्जियां इन मंत्रियों ने अपने-अपने विभागों में उड़ा दीं. कोड़ाजी मुख्यमंत्री थे. इनके राज्य में सभी मंत्री मुख्यमंत्री हो गये थे. मुख्यमंत्री मंत्रिमंडल की बैठक में मंत्रियों का इंतजार करते थे. कैबिनेट की बैठक में दो-चार घंटे बाद नये बादशाह मंत्री पधारते थे. अपनी ही सरकार या मुख्यमंत्री के खिलाफ सार्वजनिक बयान देते थे. किसी संवैधानिक मर्यादा का बोध नहीं था. न संवैधानिक या सामूहिक आचरण था. न गरिमा थी. न कैबिनेट में इशूज (मुद्दे) को लेकर शालीन बहस होती थी.
विधानसभा या सरकार में बहस की गुणवत्ता तब बेहतर, शालीन और उम्दा होती, जब विधायक या मंत्री अपने-अपने विषय के जानकार होते या पढ़ते. पर विधानसभा तो गलाफाड़ प्रतिस्पर्द्धा का अखाड़ा बनायी गयी. कौन कितना अशालीन और अभद्र हो सकता है, इसकी प्रतियोगिता चलती थी.
मुट्ठी भर जो शालीन और जानकार विधायक हैं, हर पक्ष में, वे चुप और मूकदर्शक बना दिये गये. शराब माफिया का जन्म, तबादलों के उद्योग की स्पर्द्धा, तबादलों में बोली और खुले रेट, राज्य के राजस्व में भारी कमी, राज्य में कानून और अव्यवस्था की स्थिति, नक्सलियों का बढ़ता वर्चस्व, कई इलाकों में खूनी गिरोहों के बीच चलता संघर्ष और मंत्रियों का संरक्षण. अफसरों में धनवान बनने की होड़.
कहां पहुंचा दिया झारखंड को सरकारों और नेताओं ने? दूसरी ओर महंगी शादियों की स्पर्द्धा थी. शानदार बर्थ डे पार्टियों की होड़ लगी थी. नोट गिनने की मशीन खरीदने की स्पर्द्धा चल रही थी. सोने की ईंटों को खरीदने का शौक था. सूटकेस भर कर नोट दिल्ली और बाहर ढोये जाते थे. जमीन खरीद में होड़ लगी थी.
ईमानदार अफसरों को राज्य निकाला दिया जा रहा था. इन कामों-कुकर्मों को रोकने का दायित्व अंतत: सरकार का था. यह उनका संवैधानिक, पवित्र दायित्व था. पर वे उसी तरह के कामों के हिस्सेदार या प्रेरक बन गये. नायक ही खलनायक की भूमिका में थे. और यह खलनायक की भूमिका चोरी-छिपे नहीं थी.
संवैधानिक पीठ पर बैठ कर. डंके की चोट पर यह सब हुआ. देश के किसी राज्य में संविधान की यह दुर्दशा नहीं हुई, जो झारखंड में हुई. सरकारों ने और क्या किया? झारखंड की माइंस बेचने का धंधा. उल्लेखनीय है राज्यपाल महोदय के शासन में घाटकुरी माइंस बच गयी. उनके कारण और एक ईमानदार सचिव के कारण. राज्य के खनिज व संपत्तियां खुलेआम बाजार में बेची गयीं.
इस देश में पंडित नेहरू ने सपना देखा था, सार्वजनिक क्षेत्रों का, भारत के नये मंदिर, मसजिद और गिरजाघरों के रूप में. यह घाटकुरी माइंस सार्वजनिक क्षेत्र की संपदा है. अगर सार्वजनिक क्षेत्र फेल हो जायें, तब बात समझ में आती है कि इसके माइंस वगैरह निजी क्षेत्र को सौंप दिये जायें.
इससे भी बड़ा सवाल इस प्रसंग में इनवाल्व था कि जिस फैसले को कैबिनेट ने लिया था यानी रिजर्व करने का फैसला कैबिनेट का था, उस फैसले को एक अफसर का नोट कैसे पलट या बदल सकता है? कैबिनेट का फैसला कैबिनेट ही बदल सकती है. पर यह सब गोरखधंधा झारखंड में हुआ. सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था है, सीसीएल. झारखंड में इसका मुख्यालय है. इसकी फाइलें क्लीयर करने के लिए राजनीतिज्ञों ने पैसे मांगे. शिकायत प्रधानमंत्री तक पहुंची.
पर कुछ नहीं हुआ. राष्ट्रपति शासन में अंतत: यह काम क्लीयर हुआ. इसमें राज्य का भला निहित है. सीसीएल कई सौ करोड़ खर्च कर राज्य में सड़कें बनवाना चाहती है, पर इस प्रोजेक्ट को सरकारों ने मंजूरी नहीं दी. वे चाहते थे कि सीसीएल उन्हें पैसा सौंप दे कि वे सड़क बनवायें. इरादा स्पष्ट था.
रातोंरात सड़क नापनेवाले अरबपति-खरबपति बन गये. झारखंड के सार्वजनिक मूल्य बदल गये. राज्य बनने के बाद पैसा जीवन की केंद्रीय भूमिका में आ गया. सामाजिक क्षेत्र में भी पैसे से मूल्यांकन होने लगा. हर वर्ग में दलाल उभर आये. दलाल बनने की होड़ लग गयी.
इस संस्कृति ने यह झलक दी कि बिना श्रम, ईमानदारी या मूल्यों के लूट-खसोट या पॉलिटिक्स से कैसे अरबपति बना जा सकता है? बिना ज्ञान या सामाजिक प्रतिबद्धता के कैसे सफल हुआ जा सकता है? झारखंड की सरकारों और राजनेताओं ने इस नयी लूट और भोग संस्कृति को जन्म दिया, बहाया और बढ़ाया. यह झारखंड का कितना नुकसान करेगी, यह तो भविष्य देखेगा.
जिस झारखंड की खासियत थी कि वहां की मिट्टी से निकले लोगों ने सार्वजनिक जीवन में असाधारण ईमानदारी का परिचय दिया हो, वहां यह हाल! कार्तिक उरांव जैसे पढ़े-लिखे नेता. विदेश पलट इंजीनियर और केंद्र में मंत्री रहने के बाद, मुफलिसी में रहे.
ललित उरांव थे बीजेपी में. पर झारखंडी ईमानदारी थी. आज भी परिवार या घर फटेहाल हैं. झारखंड में अब भी ऐसे अनेक नेता, पूर्व मंत्री, पूर्व सांसद हैं, जो हल चला कर शान का जीवन जीते हैं.
ईमानदारी से जीवन बसर करते हैं. क्यों? क्योंकि वे जानते हैं कि सार्वजनिक धन और पाप की कमाई का रिश्ता झारखंड की संस्कृति और मनुष्य से नहीं है. झारखंड की इस बुनियादी संस्कृति को विधायकों और सरकारों ने तबाह और बरबाद कर दिया.
इन मंत्रियों का कंपीटेंस (योग्यता, क्षमता) क्या था? सिफर. मंत्रियों या सरकारों का एक काम जिस पर ये छाप छोड़ पाये हों? उल्टे यह कहना ठीक होगा कि जंह-जंह पांव पड़त संतन के, तंह-तंह बंटाधार.
जहां-जहां इनकी दृष्टि गयी या इनका संसर्ग हुआ, वहां-वहां लूट, कमीशनखोरी और चोरी. झारखंड के एजी बार-बार पत्र लिख कर विधानसभा को और सरकारों को सूचना देते रहे हैं कि विभिन्न कामों में तकरीबन 6500 करोड़ रुपये एडवांस के तौर पर इंजीनियरों ने, अफसरों ने ले रखे हैं, उनका हिसाब दिया जाये.
वर्षों से यह अग्रिम पड़ा है. सूचना है इनमें से कई हजार करोड़ रुपये राज्य के बाहर कंस्ट्रक्शन उद्योग में निवेश किये गये हैं. दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू वगैरह में. यह सरकार का पैसा है, जनता के विकास के लिए है. एजी चेता रहा है, पूछ रहा है, ये पैसे कहां हैं. और न सरकार कुछ कर रही है, न विधानसभा.
इस तरह कुशासन और इनकंपीटेंस में स्पर्द्धा थी. सार्वजनिक धन को निजी बनाने की प्रतियोगिता थी. राज्यपाल के एक सलाहकार का कुछ दिनों पहले यह बयान आया कि कैसे विभिन्न मंत्रियों के यहां कैलकुलेटर का इस्तेमाल बढ़ गया था.
केंद्र से जो पैसा सीधे राज्य को विकास मद में मिलता था, इसे मिलते ही कैलकुलेटर से कैलकुलेट किया जाता था कि इतना धन अमुक प्रोजेक्ट में हस्तगत होगा. यानी कमीशन का कैलकुलेशन.
यही स्थिति हेलीकॉप्टर दुरुपयोग में है. मामला अदालत में चल रहा है. जो तथ्य सामने आ रहे हैं, वे स्तब्ध करते हैं. इनसे स्पष्ट है कि झारखंड के मंत्रियों या सरकारों का लोक आचरण क्या था?
हेलीकॉप्टर उड़ने का कोई नार्म्स या नियम नहीं था. सरकार की मरजी जिसे चाहे उड़ाये, उतारे. जनता के करोड़ों रुपये, अपनी मौज में खर्च करे या रहस्यमय उड़ानों पर झोंके. कई उड़ानों के कागजात उपलब्ध नहीं हैं कि इन पर कौन उड़े. देश के कानून के अनुसार ऐसी उड़ानें संभव नहीं हैं. पर झारखंड सरकार ने यह गैर कानूनी काम किया.
ऐसे अनंत प्रकरण हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि झारखंड की सरकारें जनता के लिए नहीं थीं, जनता के हित में नहीं थीं. जब देखिए बंद. और सरकार और प्रशासन? किंकर्तव्यविमूढ़- दिशाहीन या मूकदर्शक.
पांच या दस लोग शहर बंद करायें, सार्वजनिक जीवन बंधक बना लें, सड़क पर खड़े होकर उत्पात करें, फिर भी चौतरफा चुप्पी? किस रोग की दवा है सरकार या पुलिस-प्रशासन? क्यों लोग कर चुकाते हैं? न सुरक्षा, न कोई देखनेवाला. उसका असर? जनता अंतत: सुरक्षा देनेवालों को टैक्स देने के लिए विवश होगी. सरकार और प्रशासन लोगों को ठेल कर नक्सलियों का समर्थक बनने या उनकी शरण में जाने को बाध्य करते रहे हैं.
यह सब हो रहा था और विपक्ष कहां था? जिस राज्य में ऐसी अराजक स्थिति हो, वहां विपक्ष का लोकधर्म क्या है? जनसंघर्ष, संसद से सड़क तक. नीतियों के सवाल पर. भ्रष्टाचार के सवाल पर. पतन के सवाल पर. अदालत, विजिलेंस, सीवीसी सबके दरवाजे खटखटा कर. पर, झारखंड का विपक्ष भी इतिहास रच गया. इतना अकर्मण्य, अनाक्रामक! देश के किसी राज्य में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता. इसलिए झारखंड के पतन का समान साझीदार विपक्ष भी है.
कहां थी ब्यूरोक्रेसी? अच्छे ब्यूरोक्रेटस प्रताड़ित किये गये. अपमानित किये गये. बार-बार बदले गये. अधिसंख्य को झारखंड छोड़ने पर मजबूर किया गया. जो बचे हैं, उनमें अधिसंख्य की भूमिका क्या है? इस पर राज्यपाल के एक सलाहकार की टिप्पणी फिर जानिए. रिम्स में मॉल बनने का प्रस्ताव आया. अस्पताल में दुकान? इस कमिटी में तीन ब्यूरोक्रेटस भी थे. सबने सहमति दी.
राज्यपाल के सलाहकार, जो खुद वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट रहे हैं, उन्होंने कहा कि अगर ब्यूरोक्रेट सहमति नहीं देते, तो क्या ऐसी योजनाएं बनतीं? ब्यूरोक्रेट का कोई क्या कर लेता? महज ट्रांसफर करवाता. चपरासी तो नहीं बनाता.
पर जब ब्यूरोक्रेट ही आत्मा गिरवी रख दें या लूट में साझीदार बन जायें, तो वही होगा जो झारखंड में हुआ. राज्यपाल के एक सलाहकार का यह बयान महज संकेत है.
ब्यूरोक्रेसी का कामकाज, रवैया और चेहरा समझने के लिए. राज्य में जो ईमानदार ब्यूरोक्रेट बचे, उन्हें महत्वहीन पद दिये गये. फिर भ्रष्टाचार में शामिल नौकरशाह बहती गंगा में हाथ धोने कूद पड़े. सच तो यह है कि मंत्री और नेता बहुत बदनाम हुए, पर उनसे कम भ्रष्टाचार भ्रष्ट नौकरशाहों का नहीं है.
क्या भूमिका रही राजनीतिक दलों की? मुख्यत: मध्यमार्ग. राजनीतिक दल सिद्धांतविहीन हो गये हैं. उनके पास न मुद्दे हैं, न कार्यकर्ता. हर राजनीतिक दल में ठेकेदार या दलाली करनेवाले निर्णायक भूमिका में हैं. उनकी निगाह सांसद या विधायक कोष पर है. इस तरह से राजनीतिक दल सिमट रहे हैं. सही अर्थों में वे जनता की धड़कन से दूर हैं.
जनता की नब्ज भी वे नहीं जानते. गांव वगैरह से उनका संपर्क टूट गया है. अगर राजनीतिक दलों में प्रतिबद्धता होती, तो वे झारखंड में हए इन पापकर्मों के प्रति सजग होते. वे लड़े होते. इन मुद्दों को जनमुद्दा बनाया होता.
धन लूट की बलवती इच्छा से झारखंड का पतन हुआ. भारतीय मान्यता है कि जीवन के चार मकसद हैं, अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष. भारतीय मानस धन कमाने को बरजता नहीं, मना नहीं करता.
पर वैसे ही धन की मान्यता है , जो श्रम से हो, ईमानदारी से हो. पर झारखंड में धन-लोभ ने सारी सीमाएं तोड़ दी थीं. पर आ›र्य कि जब यह सब हो रहा था, मीडिया का बड़ा तबका या तो चुप था या तटस्थ या प्रशंसक. जब जिसकी सरकार या हवा, तब उसका गुणगान.
क्या मीडियावाले अपनी आत्मा (अगर है) के आइने में अपना चेहरा खुद देखेंगे? झारखंड के इस पतन में हम मीडियावालों की क्या भूमिका रही ? पैसे से हर कुछ मैनेज करनेवाले घूम-घूम कर मीडिया के नाम गिनाते चलते हैं. दलालों का यह मनोबल कि वे मीडिया के बारे में ऐसा बोलें? कमजोरी हमारे अंदर है.
हमारा घर ही साबुत नहीं है. जरूरत है कि मीडिया के लोग अपनी इस भूमिका का अपने स्तर पर ही पुनर्मूल्यांकन करें और देखें कि उनकी भूमिका ने राज्य, समाज और झारखंड के भविष्य को कहां पहुंचा दिया. मीडिया अगर मिल कर इन सवालों को उठाती, तो झारखंड के हालात भिन्न होते.
जनता से-कहावत है जैसी प्रजा वैसे राजा. झारखंड में जब यह सब हो रहा था. तो जनता कहां थी? लोकतंत्र में अंतत: जनता ही मालिक है.
जनता की चुप्पी या राजकाज के प्रति उदासीनता का ही परिणाम है उसकी यह दुर्दशा और झारखंड की यह हालत. अगर विकास नहीं हो रहा, न्याय नहीं मिल रहा, सड़कें नहीं बन रहीं, कानून-व्यवस्था सही नहीं है, पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था नहीं है, इलाज के लिए लोग भटक रहे हैं, तो इसका दोषी कौन है? बुनियादी तौर पर विधायक, सरकार और अफसर. पर, जनता भी बराबर की गुनहगार है.
जो समाज चौकस नहीं रहता, वह बार-बार धोखा खाता है, लुटता है और बरबाद होता है. क्या झारखंडी जनता ‘सब लुटा कर’ कुछ सीखेगी? चुनाव के वक्त फिर नेता ठगने की भूमिका में होंगे.
तरह-तरह से. क्या जनता चौकस रहेगी? क्योंकि उसे पांच वर्षों में एक ही मौका मिलता है वोट डालने का. नेता दावा करते हैं खस्सी, मुर्गा, दारू और धन के बल वे अपना भविष्य संवार-सुधार लेंगे. क्या भविष्य में भी ऐसा ही होगा? यह जनता को तय करना है.
जब सरकारों के कुकर्मों या झारखंड में चल रहे लूट के बारे में अखबार में सामग्री छपती थी, तो जनता की टिप्पणी थी, कुछ नहीं हो सकता.
क्या इसी रुख से बेहतर समाज बनेगा? नेता तो दंभ के साथ कहते ही थे कि अखबारों में छपने से क्या होता है? सही भी है. झारखंड में आज जो भी हो रहा है, वह कैसे संभव हुआ?
भ्रष्टाचार के मामलों को कुछ ‘स्पिरिटेड’ (उत्साही) लोग अदालत ले गये. इस बीच तमाड़ में राजा पीटर जीते. उनकी जीत के बाद व पहले राजनीतिक समीकरण अचानक पलट गये. सरकार ही दो मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई कर बैठी. उधर, उच्च न्यायालय में कई मामले आ गये. आय से अधिक संपत्ति का मामला. हेलीकॉप्टर दुरुपयोग वगैरह -वगैरह. राज्य का विजिलेंस जांच करने लगा.
उससे माहौल बना. असंभव संभव दिखने लगा. परिस्थितियां वैसी बन गयीं और मंत्रियों के घर छापे पड़ने लगे. इंजीनियरों के घर आयकर के छापे पड़े. कहावत है समय होत बलवान. यह ईश्वरीय हस्तक्षेप कह लें या काल का प्रभाव. ताकतवर लोग कानून से खेलते दिखे. कहा भी जाता है किसी का समय एक जैसा नहीं रहता. याद करिए महाभारत का प्रसंग. युद्ध के बाद श्रीकृष्ण के परिवारवालों को अर्जुन हस्तिनापुर ले जाते हैं. द्वारका से.
बीच में भील रोक लेते हैं. युद्ध होता है. अर्जुन का वही गांडीव, वही तीर, वही अर्जुन धनुर्धर, पर वे लुट जाते हैं. झारखंड के मंत्री और शासक कम से कम काल और अनश्वरता को समझें, तो वे ही बेहतर झारखंड और समाज गढ़-बना सकते हैं. सिकंदर विश्व विजय अभियान पर था. भारत पहुंचा.
जीत के बाद उसकी मुलाकात एक साधु से हुई. उसने पूछा दुनिया जीत के बाद क्या? सिकंदर चुप. साधु ने ही जवाब बताया. खुले हाथ आये हो धरती पर, खुले हाथ जाओगे. सिकंदर जीवन का मर्म समझा. वहीं से लौटा.
क्या महज इंजीनियर पारस या पूर्व मंत्री हरिनारायण राय या पूर्व मंत्री एनोस एक्का या झारखंड लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष, सदस्य और पूर्व सदस्य ही दोषी हैं? नहीं. हमारा यकीन गांधीवाद में है.
इसलिए हम मानते हैं कि शुरू से ये ऐसे नहीं रहे होंगे. हम सब में अच्छे और बुरे तत्व हैं. ये भी हमारे बीच के हैं. हम जैसे हैं. पर, इनमें से अनेक को शीर्ष से फेवर करने के लिए विवश किया गया होगा. ऐसा माहौल मिला, संरक्षण मिला. कानून का भय नहीं रहा, क्योंकि कानून पालन सुनिश्चित करानेवाले ही गलत चीजों में हिस्सेदार थे. दरअसल समाज के मूल्य बदल गये हैं.
पैसे और पद से हम लोगों को आंकते हैं. चरित्र, तप, त्याग और ईमानदारी से नहीं. अधिसंख्य उन्हीं कामों में लगे हैं. भयहीन माहौल है. समाज चुप है. राजभय नहीं रहा. मीडिया भी इसी दौड़ में है. राजनीति साझेदार है.
क्या समाज के बुनियादी मूल्य बदलेंगे? क्या राजनीतिक दल, नौकरशाह अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करेंगे? क्या भविष्य की सरकारें उसी राह पर चलेंगी या कुछ सीखेंगी? क्या विधानसभा फिर उसी रास्ते पर रहेगी? क्या जनता इसी तरह मौन दर्शक की भूमिका में होगी? महज तमाशबीन. अगर सब कुछ यही रहा, तो झारखंड में आगे क्या संभावना है?
दिनांक : 01-03-09

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