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प्रतिशोध के कदम

– हरिवंश – इस तरह टू जी मामले में शुरू जांच की आंच, अब एनडीए नेताओं तक पहुंची है. याद रखिए 2004 से 2009 तक यूपीए का राज रहा. पहला फेज. 2010 में जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर हुआ, तब यूपीए सरकार ने एनडीए राज की भी जांच की बात की. यह गलत नहीं है. […]

– हरिवंश –
इस तरह टू जी मामले में शुरू जांच की आंच, अब एनडीए नेताओं तक पहुंची है. याद रखिए 2004 से 2009 तक यूपीए का राज रहा. पहला फेज. 2010 में जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर हुआ, तब यूपीए सरकार ने एनडीए राज की भी जांच की बात की. यह गलत नहीं है. जांच पिछले 10, 20, 50, या 60 साल की भी सरकार करा सकती है. पर स्वाभाविक प्रक्रिया क्या है?
2004 में जैसे ही एनडीए की हार हुई, यूपीए सत्ता में आयी. उसने एनडीए राज की कुछ चीजों की जांच करायी. उसमें अरुण शौरी का होटल विनिवेश का मामला खासतौर से था. विशेषकर वामपंथी उनके खिलाफ जांच के लिए बड़े प्रखर थे. सीबीआइ की गहन जांच हुई, पर शौरी पर मामूली आरोप भी नहीं लगा या साबित हुआ.
सत्ता का मद सबसे खतरनाक होता है. यह अहंकार, कुछ देखने नहीं देता. इसलिए सरकारें भविष्य की साफ लिखी इबारत को देख नहीं पातीं और बार-बार आत्मघाती गलतियां दोहराती हैं. कैसे? कुछेक दूरगामी प्रभाव की खबरें पढ़ें.
1. आयकर विभाग ने अरविंद केजरीवाल से नौ लाख बकाया मांगा (टाइम्स आफ इंडिया, दिल्ली पेज 1, 2.9.11)
2. सीबीआइ ने टेलीफोन आवंटन में एनडीए नेताओं को लपेटा
( टाइम्स आफ इंडिया, दिल्ली पेज 1, 2.9.11)
3. रामदेव के ट्रस्टों के खिलाफ फेमा उल्लंघन के अब तक सबूत नहीं (टाइम्स आफ इंडिया, दिल्ली पेज 13, 2.9.11)
4. विपक्ष ने कहा शंका, प्रधानमंत्री की मीडिया नियंत्रण की कोशिश (टाइम्स आफ इंडिया, पेज 13 1.9.11)
इन कुछेक खबरों के संदर्भ में समझें-पढ़ें और जानें तो अर्थ साफ होंगे. पृष्ठभूमि और मंशा भी स्पष्ट होगी.
अरविंद केजरीवाल आयकर अधिकारी (भारतीय राजस्व सेवा) थे. 2006 फरवरी में उन्होंने इस्तीफा दे दिया. उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं हुआ. अब आयकर विभाग ने उनसे नौ लाख रुपये बकाया की मांग की है.
सरकार का कहना है कि अध्ययन अवकाश (स्टडी टूर) पर जाने (1.11.2000 से 31.10.2002) के बाद वह फिर काम पर या विभाग में नहीं लौटे. इस तरह उन्हें दो वर्ष की तनख्वाह, सूद व अन्य बकाया (3.5 लाख वेतन + 4.16 लाख सूद + 50,000 कंप्यूटर लोन + एक लाख सूद, इस तरह कुल मिला कर नौ लाख से अधिक बकाया) चुकाना होगा, तब उनका इस्तीफा स्वीकार होगा. इस तरह सरकार अब भी केजरीवाल को सरकारी अफसर ही मानती है. केजरीवाल का कहना है कि अध्ययन अवकाश के बाद वह अपने कामकाज पर वापस लौटे थे. इसके बाद तीन वर्ष से अधिक दिनों तक नौकरी की. उन्होंने इस संबंध में नोटिस दिये जाने के समय को लेकर भी सवाल उठाया है.
इस प्रकरण के तथ्य क्या हैं या सच क्या है यह फिलहाल जानने की जरूरत नहीं. इस नोटिस से जो सवाल उपजे हैं, उन्हें जानना जरूरी है.
1. क्यों पांच वर्षों तक केंद्र सरकार के अफसरों के इस्तीफे पर फैसले नहीं होते. अटके रहते हैं? भारतीय राजस्व सेवा अत्यंत प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण सरकारी नौकरी है. उसके अफसरों की निर्णायक भूमिका, भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में है. बेहतर बनाने में है. इस तरह के महत्वपूर्ण सरकारी विभागों में अफसरों के भविष्य पर पांच-पांच वर्षों तक फैसले नहीं होते? आर या पार निर्णय तो होना ही चाहिए.
क्या 21 वीं सदी में इसी कार्यशैली, इफीशियंसी (तत्परता) और कार्य संस्कृति से भारत महाशक्ति बननेवाला है? खबरें आती रहती हैं कि केंद्र सरकार के अनेक महत्वपूर्ण विभागों के अफसर सरकारी प्रावधान, मापदंड या परंपराएं तोड़ कर निजी क्षेत्रों में नौकरी करते हैं, विदेश स्टडी लीव पर चले जाते हैं. सरकार से बिना मुक्त हुए दूसरा एसाइनमेंट (काम) संभाल लेते हैं. वर्षों-वर्षों से गायब या अनुपस्थित रहते हैं. क्यों सरकार इतनी लापरवाह, ढीली ढाली, अनिर्णायक और सुस्त पड़ी रहती है? इसमें किसका दोष है?
2. अरविंद केजरीवाल पर अभी ही यह मामला क्यों उठा? यह रहस्य जानने से सरकार की कार्यशैली और मानस पर रोशनी पड़ेगी. अन्ना हजारे आंदोलन के मुख्य सिपहसलार, रणनीति बनानेवालों में से वह हैं.
संसद में सत्तारूढ़ पक्ष के अनेक जानेमाने लोग, मंत्री और कुछ विपक्षी नेता भी उनके खिलाफ जहर उगल चुके हैं. हालांकि संसद में पहले समृद्ध परंपरा थी कि जो व्यक्ति संसद में मौजूद न हो, उसकी चर्चा नहीं होती थी. उसका नाम नहीं लिया जाता था. इस परंपरा के पीछे आदर्श था कि जो व्यक्ति अपने बचाव या अपना पक्ष रखने के लिए संसद में मौजूद न हो, उसकी चर्चा नहीं होगी. पर कुछेक सांसदों ने तो ऐसी परंपराओं को ताक पर रख दिया है. कुछेक सांसद केजरीवाल के खिलाफ संसद में अपना गुस्सा दबा या छिपा नहीं पाये. क्‍यों? क्योंकि लोकताकत को जगाने में समझदार, संवेदनशील और प्रतिबद्ध अरविंद केजरीवाल की निर्णायक भूमिका रही है. इसलिए वह सत्ता प्रतिष्ठान की निगाह में हैं. जिन परिस्थितियों में उन्हें यह नोटिस दी गयी है, उसके संदेश साफ हैं.
बदले की भावना. लोग टिप्पणी करते हैं कि क्या सरकार जैसी महान संस्था, बदले की आग में जलेगी? अगर अरविंद केजरीवाल इस आंदोलन में नहीं होते, तो क्या उन्हें नोटिस मिलती? क्या सरकार का विरोध कर रहे लोगों के लिए भी इस सरकारी कार्रवाई में कोई संदेश दिया है? हां, सरकार का विरोध करने की कीमत चुकानी पड़ेगी.
3. अरविंद केजरीवाल ने दो सितंबर को प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि उनके सगे-संबंधियों पर सरकारी अफसर दबाव डाल कर केजरीवाल की संपत्ति वगैरह पता कर रहे हैं. केजरीवाल को जो लोग जानते हैं, वे उनके साफ, पारदर्शी और उद्देश्यपूर्ण जीवन को भी जानते हैं. ऐसे लोग ही समाज, देश की उम्मीद हैं, भविष्य हैं.
सरकार क्या ऐसे कामों से अपने नागरिकों को डराना चाहती है? विरोध का नैसर्गिक अधिकार छीनना चाहती है? जनता द्वारा दी गयी सत्ता से ही जनता को भयभीत करना चाहती है? अगर केजरीवाल की कहीं गलती रही है, तो वह पहले क्यों नहीं दंडित हुए? अगर आप सरकार का, नेताओं के भ्रष्टाचार का विरोध करेंगे, तो आपके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी? राजसत्ता प्रतिशोध लेगी? यह तो इमरजेंसी से भी बदतर कार्रवाई-कदम है?
4. अरविंद केजरीवाल के साथ हुई इस घटना को एक संयोग मान लिया जाये. पर अन्ना के दूसरे सहयोगी कुमार विश्वास (जो पूरे आंदोलन में अन्ना के पास दिखे) लेक्‍चरर हैं. अन्ना सत्याग्रह खत्म होने के दूसरे दिन ही उन्हें भी आयकर की नोटिस थमा दी गयी. चुन-चुन कर अन्ना के सहयोगियों के साथ ही यह बरताव क्यों? क्या इससे यह मैसेज नहीं ध्वनित होता कि विरोधियों के खिलाफ सरकार का अभियान चल रहा है?
विदेशी बैंकों में जिन भारतीयों ने धन दबाये-छिपाये हैं, जो रोज गलत ढंग से अरबों-खरबों में खेल रहे हैं, सरकारें उनके इशारे पर नाचें, पर एक मामूली लेक्‍चरर को तुरंत आयकर नोटिस दी जाये, क्या यही न्याय है? अन्यायों के ऐसे ढेर में जब विस्फोट होते हैं, तो शासकों के पैर के नीचे की धरती गायब हो जाती है, यह जानने के बाद भी ऐसे कदम?
यह भी संभव है कि सरकार में ऊपर बैठे लोगों को यह सब पता भी न हो. मीडिया से ही जानकारी मिली हो.
पर मौजूदा हालात में इसे मानने के लिए कोई तैयार होगा?
इस तरह टू जी मामले में शुरू जांच की आंच, अब एनडीए नेताओं तक पहुंची है. याद रखिए 2004 से 2009 तक यूपीए का राज रहा. पहला फेज. 2010 में जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला उजागर हुआ, तब यूपीए सरकार ने एनडीए राज की भी जांच की बात की. यह गलत नहीं है. जांच पिछले 10, 20, 50, या 60 साल की भी सरकार करा सकती है. पर स्वाभाविक प्रक्रिया क्या है? 2004 में जैसे ही एनडीए की हार हुई, यूपीए सत्ता में आयी. उसने एनडीए राज की कुछ चीजों का की जांच करायी. उसमें अरुण शौरी का होटल विनिवेश का मामला खासतौर से था. विशेषकर वामपंथी उनके खिलाफ जांच के लिए बड़े प्रखर थे.
सीबीआइ की गहन जांच हुई, पर शौरी पर मामूली आरोप भी नहीं लगा या साबित हुआ. उसी समय (2004 में) यूपीए की नयी सरकार जब बनी थी, तो पूर्व की एनडीए सरकार के कार्यकाल में बनी दूरसंचार या आवंटन नीति की सीबीआइ जांच कराती. और उस दौर में (2004-2009) एनडीए कार्यकाल में टेलीफोन विभाग में भ्रष्टाचार की बात उजागर होती, तो यह स्वाभाविक जांच मानी जाती. आरोप पुष्ट होता. उसमें विश्वास का पुट होता. लोग यकीन करते. 2010 में टू जी में जब केंद्र सरकार पर आंच आयी, तो पीछे की जांच शुरू हुई.
‘हम गलत तो तुम भी गलत’ साबित करनेवाली मानसिकता की बू. मेरी सफेद कमीज पर कालिख तो तुम्हारी कमीज उजली क्यों? अगर 2004 में सत्ता पाते ही यूपीए ने एनडीए की दूरसंचार नीति की जांच करा दी होती, उसमें एनडीए नेता दोषी पाये जाते, तो अपराध पुष्ट होता. सत्ता से हटने के 7 वर्षों बाद जांच? हर जांच और मुकदमे में भी ‘टाइम बार’ (अवधि सीमा) का वैधानिक प्रावधान होता है, क्या ऐसी जांचों में नहीं? फिर भी सीबीआइ कह रही है कि जांच में अरुण शौरी के खिलाफ व्यक्तिगत कुछ भी नहीं मिला, पर उनके कार्यकाल में ‘डीओटी आफिशियल्स’ (दूरसंचार विभाग के अफसरों) ने नीति का उल्लंघन किया. जसवंत सिंह से पूछताछ की संभावना है, प्रमोद महाजन की भी जांच हुई है. पर दयानिधि मारन (मई 2004 से मई 2007 तक मंत्री) के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं.
यूपीए के जिन मंत्रियों के कार्यकाल में इतने बड़े घोटालों का बीजारोपण हुआ, वे पाक साफ? और जिस एनडीए कार्यकाल में इतने बड़े घोटालों के सबूत नहीं, उन पर आफत? एनडीए के कार्यकाल में 2जी स्कैम जैसे घोटालों के सबूत नहीं हैं, हां नीतिगत निर्णयों के उल्लंघन या गलत नीति बनाने का आरोप उन पर हो सकता है. पर क्या दोनों में फर्क नहीं?
तीसरी खबर बाबा रामदेव से जुड़ी है. टाइम्स अॅाफ इंडिया (दिल्ली) में छपी खबर (दिनांक 2 सितंबर 2011, पेज 13) के अनुसार प्रवर्तन निदेशक ने माना है कि बाबा रामदेव के ट्रस्टों के खिलाफ फेमा उल्लंघन के मामले नहीं हैं. (नो प्रूफ ऑफ फेमा वायलेशंस एगेंस्ट रामदेव ट्रस्टस) हम इस बहस में ही न जायें कि रामदेव जी या उनके ट्रस्ट दोषी हैं या निर्दोष?
मूल सवाल यह है कि अगर बाबा रामदेव ने विदेशों में नेताओं द्वारा छुपा कर रखे धन की वापसी की मांग न की होती, आंदोलन न किया होता, तो उनके खिलाफ यह जांच होती? यानी इस व्यवस्था में हर कुकर्म-अपराध करें, पर व्यवस्था-सरकार के गीत गाते रहें, तो 100 खून माफ. इसीलिए हाजीमस्तान (60 के दशक से) से लेकर अब तक आरोप लगते रहे हैं कि अपराध करनेवाले, सत्ता के संरक्षण में पलते हैं. यानी अपराध करें, पर सरकार-सत्ता की मुखालफत नहीं.
पर रामदेवजी जैसे लोगों पर तो राजनीतिक प्रतिशोध में कार्रवाई हो रही है, क्या यह नैतिक, सही और लोकतांत्रिक भावनाओं के अनुरूप है?
इसी तरह चौथी खबर दिल्ली से प्रकाशित टाइम्स इंडिया से है. ‘सस्पिशस सेज अपोजिशन ऑफ पीएम’स मूव टू रेगुलेट मीडिया (1.9.11) खबर के अनुसार मीडिया की एकाउंटबिलिटी अध्ययन के लिए प्रधानमंत्री ने केंद्रीय मंत्रिमंडल का एक ग्रुप गठित किया है. खबर के अनुसार अन्ना हजारे प्रकरण में मीडिया की भूमिका से बौखलाये कुछ सहकर्मी मंत्रियों के दबाव में प्रधानमंत्री ने यह समूह गठित किया है. क्योंकि केंद्र सरकार के कुछ मंत्री अन्ना के आंदोलन में मीडिया की भूमिका को ‘सरकार विरोधी’ मान रहे हैं.
मीडिया की भूमिका पर बहस की जरूरत है. उसकी एकाउंटबिलिटी तय होनी चाहिए. पत्रकार भी अपनी संपत्ति का ब्यौरा दें, आचारसंहिता मानें, यह सब सही है. मीडिया का एक वर्ग भी ऐसा चाहता है. पर क्या यही इसके लिए सही समय है?
सरकार के ऐसे सभी कदमों को मिला कर देंखें, तो लगता है, वह विरोध सहने के लिए ही तैयार नहीं है. प्रतिशोध के कदम उठा कर सरकार निरंकुश होना चाहती है. बोफोर्स के बाद राजीव गांधी ने भी प्रेस को नियंत्रित करने की कोशिश की थी. डॉ जगन्नाथ मिश्र, बिहार में शिखर पर थे, तो वह भी प्रेस बिल ला रहे थे, क्या हुआ? इन कदमों से मीडिया में सुधार हुआ? सत्ता में बैठे लोग प्रतिशोध में काम करें, तो क्या अंजाम होगा? यह जानते हुए भी कोई सीखने-समझने को तैयार नहीं.
दिनांक : 04.09.2011

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