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इजी मनी के गर्भ में छिपी है कंगाली

-ब्रिटेन से लौट कर हरिवंश- लंदन में दंगों से भारत को भी सबक लेने की जरूरत है. इस संदर्भ में 08 अगस्त 2011 को ‘द टेलीग्राफ’ में छपे इस लेख के प्रासंगिक अंश को हर भारतीय को पढ़ना चाहिए. ‘लंदन में धधकी आग से सबक ले सकती है दुनिया.’ (8 अगस्त 2011, द टेलीग्राफ) : […]

-ब्रिटेन से लौट कर हरिवंश-

लंदन में दंगों से भारत को भी सबक लेने की जरूरत है. इस संदर्भ में 08 अगस्त 2011 को ‘द टेलीग्राफ’ में छपे इस लेख के प्रासंगिक अंश को हर भारतीय को पढ़ना चाहिए. ‘लंदन में धधकी आग से सबक ले सकती है दुनिया.’ (8 अगस्त 2011, द टेलीग्राफ) : ‘कुचलना है बहुत आसान, इयान जैक.’
हमारा घर उत्तरी लंदन में है, जो इस महीने हुए दंगे वाली जगह से एक या दो मील की दूरी पर है. लेकिन जब लूट और आगजनी फैली हुई थी, तब हम छुट्टियां बिताने एक सुदूर स्कॉटिश द्वीप पर गये हुए थे. हमारे पास न टीवी था, न अखबार, न लैंडलाइन फोन, न लैपटॉप. अगर किसी तरह से संपर्क स्थापित भी होता, तब नेटवर्क काफी खराब होता. मोबाइल फोन के सिग्नल भी नहीं मिल पाते. समाचार पाने के लिए एक मात्र स्रोत एक पुराना रेडियो था.
इसी से हमें शाम में दक्षिण के बारे में प्रसारित हो रहे बुलेटिन की जानकारी मिली. मेरे मस्तिष्क में एक साथ कई बातें घूम गयीं. मैंने सोचा कि इसी तरह अधिकांश लोगों ने सुना होगा कि 1939 में ब्रिटेन और जर्मनी युद्ध में कूद पड़े थे. पर मुझे लगा कि राष्ट्रीय संकट से इसे जोड़ना ज्यादा अच्छा है. जैसे युद्ध (स्वेज, द फॉकलैंड), आतंकवादी घटनाएं (आइआरए और अलकायदा) और औद्योगिक विवादों से उपजे झगड़ों का हिंसक रूप.
देखनेवाली बात यह है कि 1981 के बाद ब्रिटेन में जो दंगे हुए, उसे किस रूप में लिया गया. तीस साल पहले जो संघर्ष था, वह काले लोगों और पुलिस के बीच था, लेकिन आज जो कारण हैं, वह पहले की अपेक्षा ज्यादा पेचीदा हैं. यह इतनी आसानी से सुलझनेवाला मसला नहीं है, परिणाम और भी ज्यादा भयावह है.
यह जानना भी बड़ा कठिन है? कहां से शुरूआत करें? बहुत सारे लोग जैसे राजनीतिज्ञ, समाजवादी, पादरी, पत्रकारों आदि ने इस उन्माद में अपनी आत्मा की खोज और आरोप-प्रत्यारोप पर ही समय व्यतीत किया. राजनीतिक प्रतिक्रियाओं को दो खेमे में बांटा जा सकता है.
एक धड़ा, जिसे हम दाहिना (राइट या कंजरवेटिव) धड़ा कहते हैं, (गंठबंधन सरकार में टोरी को भी शामिल करते हुए) वह वही कह रहे हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने इसे नैतिक पतन बताया था. उनके शब्दों में संकट कहां है? स्वार्थ, गैर जिम्मेदार, ऐसे आचरण करना, जैसे कि आप जो चाहते हैं, वही हो. संकट उन समुदायों के परिवारों में है, जहां अधिकांश में पिता नहीं हैं और स्कूलों में अनुशासन नाम की चीज ही नहीं है.
ऐसे में तो यही लगता है कि राज्य का जो कल्याण तंत्र है, वह एक तरह से मानव प्रकृति के बुरे पहलुओं को ही अपने अंदर समेटता है या फिर उभारता है या प्रोत्साहित करता है. सही मायनों में यह निरुत्साहित ही करता है. उदारवादियों और वामपंथियों ने इस पूरे मामले को और आगे बढ़ाते हुए वही कहा, जैसा कि लेबर नेता एड मिलिबैंड ने बताया-लालच, स्वार्थ और संपूर्ण गैर-जिम्मेदारी, एटीट्यूड, जिससे हर किसी के आचरण की पहचान होती है, चाहे वह गरीब हो या धनी. अंतर केवल जोर देने के प्रश्न पर है.
आप दोनों पक्षों से सहमत हो सकते हैं. कई घरों में बच्चे लापरवाह परिवार के साथ पलते हैं, जहां नैतिक शिक्षा का पाठ टेलीविजन शो पढ़ाते हैं और राज्य के द्वारा जो सुविधाएं दी जाती हैं, वह दो या तीन पीढ़ियों के लिए मुफ्तखोरी का काम करता है, जिनके लिए सरकार ही माई-बाप हैं.
हां, लालच और पैसे की अकड़ पूरी ब्रिटिश संस्कृति पर हावी है. चाहे वे फुटबॉलर हों, जो एक सप्ताह में दो लाख पाउंड कमाते हैं या फिर रूसी धनाढ्य वर्ग, जो एक समय में कंट्री हाउस के लिए 200 मिलियन पाउंड तक दे सकते हैं या फिर संसद सदस्य जो अपने खर्चों में हेराफेरी करते हैं, लेकिन यह बात यहीं नहीं खत्म हो जाती कि बच्चे और किशोर लूट और आगजनी कर रहे हैं. फ्रेंच मूल के लेखक जिन ऐंथेलम ब्रिलेट-सवारीन ने कहा था कि आप मुझे यह बतायें कि आप क्या खाते हैं और मैं आपको यह बताऊंगा कि आप हैं कौन? तब से यह एक जुमला हो गया कि आप वही होते हैं, जो आप खाते हैं.
आज के संदर्भ यही कहा जायेगा कि आप जो खरीदते हैं, आप वही होते हैं. जैसे हिप्पेस्ट ट्रेनर्स, पसीना सोखने वाले पैंट, फैशनेबुल मोबाइल, लेटेस्ट हैंडबैग, बड़ा से बड़ा टीवी. आप उन्हें अफोर्ड करने में समर्थ नहीं हैं? और तब एक कांच का टुकड़ा आपको उन सब से अलग कर देता है. इसे तोड़ डालिए और आप उस विज्ञापन में दिखाये और बताये जा रहे व्यक्तित्व (जैसे नाइकी, एडिडास और उससे भी आगे न जाने कितने ब्रांड) जैसा ही रूप ग्रहण कर लेंगे.
यह किसी गरीब द्वारा भोजन की मांग में किया गया दंगा नहीं था. जो इस लूटपाट में शामिल थे, उन्हें यह बड़ा ही रोमांचकारी लग रहा था. हजारों लोगों में से जिन कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया, उनमें से थोड़े बहुत ही 30 की उम्र से अधिक के थे, कुछ के पास विश्वविद्यालय की डिग्रियां थीं, कुछ नौकरी में भी थे. प्रजातीय रूप से देखें, तो अभी यही कहा जा सकता है कि वे कैरेबियन वंशजोंवाले काले और श्वेत अंगरेज के मिश्रित रूप थे.
इतिहासकार डेविड स्टार्के ने टीवी शो के दौरान कहा कि ‘इन दंगाइयों में से अधिकांश श्वेत ही थे, जो कि काले बन गये हैं.’ उन्होंने यह भी जोड़ा कि एक खास तरह की हिंसक, विध्वंसकारी और गैंगेस्टर संस्कृति के पनपने से उन जैसे लोगों को यह एहसास होता है कि वह किसी विदेशी देश में जी रहे हैं. इशारा इस ओर था कि काले बच्चों से यह कैसे श्वेत बच्चों में फैल गया. यह कहा जा सकता है कि यह सब अमेरिकन पॉप कल्चर के रास्ते पर चल कर हुआ है, न कि एडिडास द्वारा रैप म्यूजिक देनेवालों या गैंग चलाने वालों के कारण.
ब्रिटेन में भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी परिवारों की एक मजबूत संरचना है. इन परिवारों की प्रशंसा होती है, जबकि अंगरेजों के वर्किंग क्लास में केवल खोखली चीजें ही बची हैं.
हालांकि हर किसी के लिए इसे कहने का मतलब होगा कि सामने एक आशाहीन भविष्य खड़ा है. चलिए, मैं इसे एक व्यक्तिगत नजरिये से बताता हूं. जब मैं भारतीय ऑडियंस को ध्यान में रख कर लिखता हूं, तो इस बात को ध्यान में रखूंगा कि पाठक इस बात की उम्मीद करेंगे कि उनके बच्चे उनसे अधिक समृद्ध होंगे. यही बात ब्रिटेन में भी लागू होती है.
मैं एक धनी व्यक्ति हूं और अपने पिता की जिंदगी से बहुत अधिक समृद्ध जीवन जी रहा हूं. मेरे पिता भी, मेरे दादा की अपेक्षा काफी बेहतर स्थिति में थे. यह एक बहुत ही आम धारणा है. अब यह खत्म होने को आया है. एक पीढ़ी के रूप में हम यह जानते हैं कि हमारे बच्चे हमसे बहुत ही बुरी स्थिति में होंगे. नौकरियों के लाले पड़ जायेंगे, शिक्षा बहुत ही महंगी हो जायेगी. सार्वजनिक बजट में कटौती होगी. सत्ता और उसका प्रभाव का साया तो पश्चिम से पूर्व तक फैल गया है. सभी पश्चिमी देश काफी हद तक यह महसूस करते हैं.
लेकिन इंग्लैंड में (स्काटलैंड में कम) उम्मीदों का ताना-बाना खत्म होता कुछ ज्यादा दिख रहा है. गार्जियन ने एक रिपोर्ट में एक 27 वर्षीय महिला का उल्लेख किया, जो पूर्वी लंदन के एक सुपरमार्केट से लूट कर तीन बैग ले जा रही थी. उसने कहा कि जिन लोगों ने शिक्षा नहीं पायी है और जिन लोगों ने शिक्षा तो पायी है, पर नौकरी नहीं है, दोनों में कोई अंतर नहीं है. एक विश्वविद्यालय से उसने चाइल्ड साइकोलॉजी में डिग्री लिया है. उसे नौकरी नहीं मिली. उसका कहना है कि मैं अब तक स्टूडेंट लोन चुका रही हूं, इसलिए मैं उतना ही लूटी, जितना मैं लूट सकती थी.
एक आंकड़े पर गौर किया जाये, तो पता चलता है कि अब ब्रिटेन में प्रत्येक जॉब वैकेंसी के लिए 83 बेरोजगार स्नातक हैं. अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है. मुद्रास्फीति, बैंक अॅाफ इंग्लैंड के टारगेट से दोगुना है और किसी को उम्मीद नहीं है कि अगले कुछ सालों में एक ठीक-ठाक वृद्धि दर को प्राप्त किया जा सकेगा.
एक बात जिस पर चर्चा की जा सकती है, वह है वर्किंग क्लास का फ्यूचर. कई नियोजक पूर्वी यूरोप से आनेवाले प्रवासियों को उनके कठिन मेहनत और योग्यता के आधार पर प्राथमिकता देते हैं. उन्हें वही वेतन मिलता है, जो ब्रिटेन में जन्मे बेरोजगार व्यक्ति को राज्य बेरोजगारी लाभ योजना से मिलता है.
(दूसरे तरीके से देखा जाये, तो इन बेरोजगार लोगों की कमाई इनसे भी अधिक है. अगर इसमें ड्रग और दूसरी आर्थिक गतिविधियों को जोड़ दें तो.) जब राज्य थोड़ा कम खर्च करने लगेगा, जैसा कि आगे होनेवाला है, तो फिर और दूसरी तरह की समस्याएं उत्पन्न होंगी.
सरकार के पास समस्या के समाधान के कुछ रास्ते हैं. जैसे किसी पॉलिसी को बनाने में अधिक से अधिक सतर्कता और सावधानी बरतना, अपराधियों को कठोर कारावास, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर पैनी नजर रखना और पारिवारिक जीवन में फिर से नैतिक मूल्यों को लौटाना. अंतिम में जो मैंने बताया, यानी पारिवारिक जीवन, वह असंभव दिखता है. जैसा कि टोरी पार्टी इस बात को समझती है. स्थिर, जिम्मेदार, लविंग, नैतिकता यह सब ब्रिटिश परिवारों से बहुत पहले ही गायब हो चुका है. जो दूसरे लोग हैं, उन्हें सुधारने के बजाय उन पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है.
इस महीने हमने यह पाया कि लंदन के धुएं से जो कुछ दिख रहा है, वह शेष दुनिया के लिए एक सबक है. जब मूल्यों को पैसे से तौला जाये और सामाजिक समरसता उपभोक्तावाद पर निर्भर करे, तब आप वही होंगे, जो आपके पास होगा. तब लोग उपभोग करने के रास्ते तलाश लेंगे. लूटनेवाले बहुत जल्दी अपने को संगठित कर लेंगे और तब कांच को तोड़ना और भी आसान हो जायेगा.
एक जाने-माने चिंतक पत्रकार की नजर में यह है आज के ब्रिटेन की स्थिति- बेंजामिन फ्रेंकलीन ने कहा था ‘द डारकेस्ट पीरियड इन द लाइफ ऑफ ए यंग मैन कम्सेन ही वांट्स टू गेट मनी विदाउट अर्निंग इट’. इस कथन का आशय है कि एक युवा के जीवन में सबसे अंधेरे का क्षण वह होता है, जब वह बिना परिश्रम किये धन चाहता है. यह क्षण ब्रिटेन, यूरोप या अमेरिका के सामाजिक जीवन में आ गया है.
आज पश्चिम की कंगाली के पीछे एक मूल वजह यह भी है कि युवा बड़े पैमाने पर बिना श्रम किये भोग चाहते हैं. 1999 से 2000 के बीच ‘स्टेट्समैन’ में आइआइएम कोलकाता के मशहूर प्रोफेसर एसके चक्रवर्ती का एक लेख छपा था. दो किस्तों में. वैनिशिंग एथिक्स (खत्म होते मूल्य) उसका अंतिम पैराग्राफ था लाइफस्टाइल पर. उसमें जो उल्लेख था उसका हिंदी आशय था-
‘पिछले दिनों (ऑस्ट्रेलिया के अखबार ‘द कुरियर मेल’, 23 अक्तूबर 1999 में) एक लेख छपा था. इस बात पर चिंता प्रकट करते हुए या रोते हुए कि 25-40 वर्ष की उम्र में युवा लोगों में दिवालिया होने की घटनाएं बड़े पैमाने पर बढ़ गयी हैं. वे अपने दिवालिया होने का घोषणापत्र संस्थाओं को सौंप रहे हैं.
इसका कारण आप जानते हैं? अनुशासनहीन जीवन शैली और क्रेडिट कार्ड की बाढ़. यह क्रेडिट कार्ड भारतीय संस्कृति के अनुरूप है ही नहीं, न ही नैतिक रूप से यह सही है. अगर आपके पास ॠण का धन आसानी से उपलब्ध हो जाये, तो मनुष्य की इंद्री लोभ और भोग में फंसती है, पर आज क्रेडिट कार्ड के बगैर जीवन ही नहीं चल रहा है.
क्या पश्चिम की यह तकनीकें भारतीय समाज को भी उसी रास्ते पर ले जायेंगी, जहां पश्चिम का समाज दरिद्र और कंगाल होकर पहुंच रहा है. भारत की यह परंपरा थी कि करोड़ों अरबों का लेन-देन जुबान पर होता था. अब भी यह परंपरा है. गांव का गरीब आदमी भी मरते वक्त अपने परिवार को यह बता कर जाता था कि मैंने अमुक-अमुक से कर्ज लिया है, इसे चुका दें.
क्योंकि वह कर्ज को नैतिक बोझ और परायाधन के रूप में मानता था. कर्ज का एक गुण है कि वह कर्महीन बनाता है. आलसी और उदयनहीन. यह आत्मविश्वास भी खत्म करता है पर कर्ज इजी मनी है और लोग आज भी यही चाहते हैं. इसके गर्भ में छिपे हैं कंगाली और कष्ट के दिन.
…जारी
दिनांक : 19.10.11

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