उनके अनुसार इन देशों का दुनिया पर प्रभुत्व (डोमिनेंस) तीन कारणों से रहा. पहला जीडीपी, दूसरा व्यापार की ताकत (ट्रेड स्ट्रेंथ) और तीसरा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ताकत (एक्सटर्नल फाइनेंसियल स्ट्रेंथ).उस ताकत ने सभ्यता, संस्कृति, साहित्य के नये विकास-मापदंड तय किये, पर इस बार अगस्त के दंगों में लोगों ने ब्रिटेन में देखा कि वे मूल्य, मर्यादा, कानूनप्रियता, सब सड़कों पर लुट गये हैं, बिखर गये हैं. ब्रिटेन में कानून-व्यवस्था माननेवाले बहुसंख्यक लोगों ने अचानक पाया कि उनके सहनागरिक कारों में आग लगा रहे हैं.
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ब्रिटेन यात्रा : व्यवस्था का भय लौटाने की मुहिम
-ब्रिटेन से लौट कर हरिवंश- ब्रिटेन ने 19वीं सदी पर राज किया. उसके राज के मुख्य कारण क्या थे? आधुनिक विश्लेषक क्या मानते हैं? हाल में अरविंद सुब्रमनियन की एक पुस्तक आयी है, जिसकी पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है.एक्लिप्स-लिविंग इन द शैडो ऑफ चाइनाज इकोनॉमिक डोमिनेंस. उसमें उन्होंने माना है कि तीन कारणों […]
-ब्रिटेन से लौट कर हरिवंश-
ब्रिटेन ने 19वीं सदी पर राज किया. उसके राज के मुख्य कारण क्या थे? आधुनिक विश्लेषक क्या मानते हैं? हाल में अरविंद सुब्रमनियन की एक पुस्तक आयी है, जिसकी पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है.एक्लिप्स-लिविंग इन द शैडो ऑफ चाइनाज इकोनॉमिक डोमिनेंस. उसमें उन्होंने माना है कि तीन कारणों से 9वीं सदी ब्रिटेन के नाम रही, और 20वीं सदी अमेरिका के नाम और आगे की सदी वह 2030 से चीन का मानते हैं.
बिल्डिंगों को तोड़ रहे हैं. दुकानों को लूट रहे हैं. आग बुझानेवालों पर हमला कर रहे हैं. एंबुलेंस के चालकों पर धावा बोल रहे हैं. सभ्यता, संस्कृति के उत्कर्ष पर पहुंचा समाज अपने आप को बर्बरता के चक्र में घिरा पाया. यह देख ब्रिटेन ने महसूस किया कि आंतरिक नैतिक मूल्यों का अभाव और बाहरी मर्यादा और कानून के कमजोर होने का परिणाम था, सड़क पर गुंडों का राज. ये दंगे पसरे. इनमें कुछ चीजें समान थीं. लूटपाट, आगजनी, हमले और पुलिस से लड़ाई. अब इस पर बहस चल रही है कि ये हुआ कैसे? ब्रिटेन का पूरा समाज सदमे में है, क्योंकि उनके लिए यह घटना अनहोनी है. एक वर्ग की दलील है. सार्वजनिक खर्चों में कटौती कर दी, यह सब इसका परिणाम है.
इस वर्ग का मानना है कि सरकार और उदार बने और अधिक खर्च करे. पर दूसरा बड़ा वर्ग मानता है कि कल्याणकारी राज्य की सुविधाओं ने लोगों को निकम्मा बना दिया है. लोग काम करने से या श्रम करने से देह चुराते हैं या दिल चुराते हैं और सारी सुविधाओं का भोग चाहते हैं. बिना श्रम भोग की भूख.
पश्चिम के मानस में पुराने दंगों की स्मृति नये संदर्भ में उभरी है. 80 के दशक में ब्रिटेन में दंगे हुए थे. 1992 में अमेरिका के लॉस एंजिल्स में, 2005 में फ्रांस में दंगे हुए. ये दंगे न राजनीतिक थे और न रंगभेद को लेकर. आमतौर से पश्चिम की धारणा है कि समाज अगर बेचैन और परेशान है, तो उसे कुछ राहत देकर संभाला जा सकता है.
पर अभी यह बहस है कि एक कल्याणकारी राज्य तो लगातार लोगों को बैठा कर राहत देता है, हर तरह की सुरक्षा है, बेरोजगारी भत्ता से लेकर बूढ़े होने तक राज्य सब कुछ करता है. फिर ऐसा क्यों हुआ? विश्लेषकों का ऐसा मानना है कि ब्रिटेन में युवा लोगों की ऐसी पीढ़ी या तादाद है, जिन्हें लगता है कि इस देश के भविष्य में उनका कोई हिस्सा नहीं है या वे खुद अपने भविष्य के प्रति कोई सपना नहीं पालते.
एक ही बंधन है जो अबतक इन लोगों को और उन्मादी या दंगाई होने से रोक रहा है, वह है सही और गलत की परंपरागत समझ का आज भी मौजूद होना. अपनी नौकरियों के प्रति कोई चिंता या शैक्षणिक भविष्य के प्रति सजगता या लोक-लाज का भय इन युवाओं में नहीं है. समाज में बड़े पैमाने पर अलगाव भी है. हर आदमी खुद में सिमटा, अकेले. साझा करनेवाले, दुखदर्द बांटनेवाले या अकेलापन दूर करनेवाले नहीं मिलते. कई मनोवैज्ञानिक तो मानते हैं कि कहीं न कहीं समाज का एक हिस्सा ही बीमार हो गया है.
अर्थतंत्र का स्वरूप (प्रोफाइल) बदल रहा है. परिणामस्वरूप अब कम दक्षतावाले लोगों के लिए नौकरियों की संख्या घट गयी है. लंबे समय से परिवार का ढांचा और अनुशासन भी टूट चुका है, बिखर चुका है. टेक्नोलॉजी ने अलग ढंग से समाज को बदला है.
लंदन दंगों में ब्लैकबेरी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ, लुटेरों की भीड़ जुटाने के लिए. हालांकि टेक्नोलॉजी ने अरब के देशों में बड़े बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार की है, जिसे अरब बसंत कहा गया. भारत में भी अन्ना हजारे के आंदोलन में टेक्नोलॉजी का असर दिखा, पर ब्रिटेन के दंगों में टेक्नोलॉजी का गहरा कुप्रभाव दिखा. अनैतिक असर. दंगाइयों का एक ऐसा वर्ग उभरा, जिसने टेक्नोलॉजी के बल ब्रिटेन के समाज को स्तब्ध कर दिया है. देश का समझदार वर्ग इस पूरी घटना से अपमानित महसूस कर रहा है.
प्रधानमंत्री डेविड केमरून ने दंगों पर विशेष बहस के लिए बुलायी गयी पार्लियामेंट में कहा कि पॉकेट ऑफ ब्रिटेन आर फ्रेंकली सिक (ब्रिटेन के कुछ हिस्से सचमुच बीमार हैं). पुलिस या गवर्नेंस की विफलता से ब्रिटेन चिंतित है.
सभी आवश्यक कदम उठाये जा रहे हैं. एक सर्वे हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने कहा-दंगाइयों के खिलाफ रबड़ की गोली (बुलेट) न चलायी जाये, बल्कि जीवित कारतूस इस्तेमाल किये जाये. पहले ब्रिटेन में अपराधी मिलते थे, तो उन्हें दुनिया के दूसरे द्वीपों पर भेज दिया जाता था. पहले अमेरिका ब्रिटेन के लिए मनपसंद उपनिवेश था, जहां उसने अपने समाज के सजायाफ्ता-अपराधियों को भेजा. लगभग 40,000 ऐसे अपराधी भेजे गये.
जॉर्ज-तृतीय ने अमेरिका के हाथ से निकल जाने के बाद ऐसे निर्जन द्वीपों की तलाश में खास रुचि ली, ताकि जो ब्रिटेन में न रहने योग्य (अनवरदी टू रिमेन इन देयर आइलैंड) हों, ऐसे लोगों का पुनर्वास दूसरे द्वीपों पर किया जाये. पहले जिब्राल्टर (दक्षिण अफ्रीका) पर राय बनी, फिर ऑस्ट्रेलिया की खोज हुई.
ऑस्ट्रेलिया में जब तक ऐसे लोगों को ब्रिटेन से जबरन भेजा जाता रहा, तब तक यह संख्या औरत, पुरुष और बच्चों को मिला कर दो लाख पहुंच गयी. इन लोगों को पुन: ब्रिटेन नहीं लौटना था. ब्रिटेन का समाज अपने पूर्व अपराधियों को अपने देश की सड़कों पर नहीं देखना चाहता था. इसी क्रम में फाकलैंड, आइसलैंड और अंटार्कटिका को भी तलाशा गया.
ब्रिटेन का अतीत और इतिहास बताता है कि जब-जब वहां अपराध या भीड़ हिंसक हुई, ब्रिटेन के भद्र लोगों ने ब्रिटेन से ऐसे तत्वों को या लोगों को हटाना ही मुनासिब समझा. चाहे उन्हें फांसी देकर हो या दुनिया के किसी दूसरे द्वीप में भेज कर हो, या बाहर से आनेवाले लोगों पर पाबंदी लगा कर हो. अगस्त 2011 के दंगों के एक सप्ताह के अंदर ही पूरे देश में दंगों को लेकर गंभीर बहस शुरू हो गयी. कंजरवेटिव सांसदों ने जजों की तारीफ की है.
दंगाइयों को सख्त सजा देने के लिए. जिन दो लोगों ने फेसबुक के माध्यम से उपद्रव को भड़काने की कोशिश थी, उन्हें भी चार वर्ष की सजा मिली है. टेरी सांसदों ने सजायाफ्ता परिवारों को कांउंसिल हाउसिंग (सरकारी आवासों) से खाली कराने की मांग की. हजारों जेलों को बंद करने के पहले की मुहिम का कंजरवेटिव मीडिया बड़े पैमाने पर विरोध कर रहा है. बहुसंख्यक लोग चाहते हैं कि दंगाइयों को मिलनेवाली सरकारी राहत मदद बंद हो. लुटेरों-उपद्रवियों को सख्त सजा हो.
जो हिंसक उपद्रवों के दोषी माने जाये, उन्हें सख्त से सख्त सजा हो (जो हो भी रही है). पूरा मीडिया, संसद और सड़क से तेज आवाज उठ रही है कि परिवार का ढांचा टूट गया है और समाज अंदर से हिल गया है. 2011 के ब्रिटेन दंगों में सख्त और कठोर जेल सजा, दंगाइयों को उनके घरों से खाली कराना और सरकारी सहायता बंद कर देना, ये सब शुरू हो गया है. यानी गवर्नेंस को सही करने, राज्य का प्रताप लौटाने और सरकार या व्यवस्था का भय जो खत्म हो गया था, को लौटाने की मुहिम चल रही है. ब्रिटेन में अब औद्योगिक क्रांति पर चर्चा हो रही है.
हाउस ऑफ कॉमन्स में उल्लेख हुआ कि ‘मोरल्स ऑफ चिल्ड्रेन आर टेन टाइम्स बैड देन फॉर्मली (बच्चों का नैतिक मानस पहले से दस गुणा खराब हो चुका है.) राजनेता फिर मांग कर रहे हैं कि समाज के खराब तत्वों को समाज से हटा दिया जाये. माना जा रहा है कि ब्रिटेन समेत यूरोप-अमेरिका के इस फिसलन या पतन के पीछे एक तत्व बेरोजगारी है. ओइसीडी के संपन्न देशों में आज 4.5 करोड़ (44 मिलियन) पढ़े-लिखे बेरोजगार हैं.
इनकी बेरोजगारी की कुल तादाद स्पेन की जनसंख्या के बराबर है. स्पेन में खुद 21 फीसदी बेराजगारी है. मैड्रिड और बार्सिलोना की कुल जनसंख्या के बराबर यह संख्या है. अमेरिका में बेरोजगारी की अधिकाधिक तादाद 14 मिलियन है, यानी लगभग 1.5 करोड़. अमेरिका में 11 मिलियन यानी एक करोड़ दस लाख के आसपास लोग बेरोजगार हैं. जर्मनी में बेरोजगारों की तादाद कम है, पर स्पेन में 46 फीसदी युवा (25 वर्ष की उम्र से कम) बेरोजगार हैं. इटली में आधे से अधिक लोग बेराजगार हैं. इस तरह इन हालातों के बीच भी ब्रिटेन कैसे रास्ता तलाश रहा है, यह जानना खासतौर से भारत के लिए प्रसांगिक और ज्ञानवर्धक होगा.
400 साल पहले ब्रिटेन की पूंजी भारत आ रही थी. उसने ईस्ट इंडिया कंपनी बनायी. इस कंपनी और ब्रिटिश पूंजी ने भारत में इसकी नींव डाली. आगे इतिहास बना. पर पिछले कुछ सालों में टाटा ग्रुप ने बड़े पैमाने पर ब्रिटेन में निवेश किया है. स्टील, इंजीनियरिंग, कैमिकल, टेलीकॉम, टी (चाय) उद्योग में.
तकरीबन 15 बिलियन डॉलर टाटा समूह ने ब्रिटेन के मशहूर फर्मों-कंपनियों को खरीदने में निवेश किया है. पहले टेटली टी खरीदा, जो इंपीरियल कैमिकल इंडस्ट्री को शुरू करनेवाला था. फिर कोरस (पहले ब्रिटिश स्टील) फिर जगुआर लैंड रॉवर (जेएलआर) ब्रिटेन के मशहूर कारों के निर्माता को लिया. इन कंपनियों को खरीदने के कारण आज टाटा ब्रिटेन का सबसे बड़ा इंडस्ट्रियल इंप्लायर (औद्योगिक क्षेत्र में नौकरी देनेवाला) बन गया है.
यह एक बड़ी रणनीति का एक हिस्सा है. बड़ी संख्या में ब्राजील, भारत, चीन और रूस की बड़ी कंपनियों ने ब्रिटेन में निवेश किया है. 2006-08 में बाहरी देशों ने ब्रिटेन में 20 कंपनियां खरीदी थीं, आज उनकी संख्या बढ़ कर 62 हो गयी है.
यह निवेश अगर भारत में होता, या झारखंड-बिहार में होता, तो हमारे देश की प्रतिक्रिया क्या होती? दुनिया के चार बड़े देशों की कंपनियां आकर हमारे देश की इतनी कंपनियां खरीदतीं या कहीं पूंजी निवेश करतीं, तो हम आंदोलनरत होतें. कहते कि हम बाहरी देशों के गुलाम हो गये हैं. बाहरी कंपनियों ने हमें खरीद लिया है. ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुभव दोहराये जानेवाले हैं. वगैरह-वगैरह. ब्रिटेन इसे कैसे देख रहा है यह जानना रोचक है? ब्रिटेन ने अत्यंत सकारात्मक ढंग से बाहरी पूंजी निवेश को स्वीकार किया है.
मैक्सिको की कंपनी सी-मैक्स ने 2004 में ब्रिटेन की कंपनी आरएमसी को खरीदा. इसी तरह साउथ कोरियन नेशनल ऑयल कंपनी ने अबेरडिंग डाना पेट्रोलियम को खरीदा. 2000-2010 के बीच विश्व बैंक के अनुसार ब्रिटेन में 120 बिलियन विदेशी पूंजी का निवेश हुआ. अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तुलना में चौगुना पूंजी या विदेशी निवेश ब्रिटेन में हुआ.
ब्रिटेन की सफलता के पीछे उसकी अर्थव्यवस्था का खुला होना है. भारतीय मूल के लक्ष्मी मित्तल, जिन्होंने यूरोप में 2006 में स्टील कंपनी आसेंर्लर खरीदी थी, तो तूफान खड़ा हुआ था. पिछले 7 वर्षों से वह ब्रिटेन के सबसे संपन्न नागरिक हैं, पर इसकी रत्ती भर भी चर्चा नहीं कि एक भारतीय कैसे ब्रिटेन में सबसे अधिक धनवान है. दरअसल, विकास के लिए पूंजी चाहिए. पूंजी के साथ ही उद्यमिता का कौशल और हुनर भी. प्रबंधन का कौशल और हुनर भी. ये कंपनियां ब्रिटेन में पूंजी, प्रबंधन वगैरह के साथ मौजूद हैं और ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण काम कर रही हैं.
आज लंदन विश्व का फाइनेंसियल हब है. यह सही है कि भारत में या बिहार-झारखंड में आप चाहें भी तो ऐसी पूंजी नहीं आयेगी. पर, एक सीमा तक अगर औद्योगिक विकास चाहते हैं, तो उनके प्रति एक विजन और दृष्टिकोण समाज को बनाना ही पड़ेगा. भीतरी-बाहरी और उद्यमियों के खिलाफ माहौल से समग्र विकास पर क्या असर पड़ता है, इस पर समाज को डिबेट करना चाहिए. ब्रिटेन का औपनिवेशिक अतीत और वाणिज्यिक पहुंच है, जिनसे विश्व के प्रसिद्ध ग्लोबल ब्रांड वहां पहुंच रहे हैं.
ब्रिटेन में विश्व स्तर की श्रेष्ठ संस्थाएं हैं, शैक्षणिक संस्थाएं हैं, जिनकी प्रतिभाएं बड़ी कंपनियों को चाहिए. मसलन लॉ, प्रबंधन, इकोनॉमिस्ट वगैरह की श्रेष्ठ संस्थाएं. पहल हो या जमीन देनी हो, तो हमारा समाज तैयार नहीं है? सर्वश्रेष्ठ शिक्षा भी चाहिए, पर संस्था के लिए जगह नहीं. बेंगलुरु के सिलिकॉन वैली बनने के पीछे एक प्रमुख कारण वहां शैक्षणिक संस्थाओं का होना भी था. ब्रिटेन में खनन का काम एक पीढ़ी पहले बंद हो गया, पर दुनिया की मशहूर खनन कंपनियों का मुख्यालय लंदन में है.
ब्रिटेन में यह भय नहीं है कि विदेशी कंपनिया देसी कंपनियों का अधिग्रहण (टेकओवर) कर लेंगी. ब्रिटेन अपने यहां आनेवालों का स्वागत करता है.
और तो और खुद ब्रिटेन की ट्रेड यूनियन बाहर से आनेवाली कंपनियों के साथ हैं. विदेशी निवेश के प्रति ब्रिटेन की कंपनियां अत्यंत सकारात्मक हैं. कभी ब्रिटेन के गुलाम रहे लोग या गुलाम रहे देशों के वाशिंदे वहां जाकर निवेश कर रहे हैं, मालिक बन रहे हैं, पर ब्रिटेन को जरा भी गुरेज या आपत्ति या शिकायत नहीं है.
…जारी
दिनांक : 21.10.2011
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