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– हरिवंश – मई के अंतिम सप्ताह की खबर है. दिल्ली से. देश के सबसे बड़े अंगरेजी अखबार में पहले पन्‍ने पर. दिल्ली में रहनेवाली एक कंप्यूटर प्रोफेशनल युवती ने सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया है. वह आइटी उद्योग में कार्यरत एक लड़के साथ रहती थीं. पिछले आठ वर्षों से. आधुनिक समाजशास्त्र की भाषा […]

– हरिवंश –
मई के अंतिम सप्ताह की खबर है. दिल्ली से. देश के सबसे बड़े अंगरेजी अखबार में पहले पन्‍ने पर. दिल्ली में रहनेवाली एक कंप्यूटर प्रोफेशनल युवती ने सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया है. वह आइटी उद्योग में कार्यरत एक लड़के साथ रहती थीं. पिछले आठ वर्षों से. आधुनिक समाजशास्त्र की भाषा में या आधुनिक बोलचाल में इसे ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ कहते हैं. स्त्री-पुरुष का बिना शादी-ब्याह या सामाजिक मान्यता के साथ रहना.
पश्चिम में जब यह ट्रेंड प्रचलन में आया, तो उसके पीछे परंपरा से विद्रोह का भाव था. शादी-ब्याह नकार कर, मुक्तमन-स्वछंद बिहरना, बिचरना और साथ रहना. दार्शनिक कृष्णनाथ जी जब यूरोप-अमेरिका गये और पृथ्वी परिक्रमा की, तो अपने संस्मरणों में लिखा कि यह छुट्टा-छुट्टी का मामला है.
जब चाहा साथ रहा, जब चाहा साथ छूटा. इसके पीछे परंपराओं से विद्रोह का बोध था. पुरानी मान्यताओं-परंपराओं को नकारनेवाले पश्चिमी इसे ही क्रांति मानने लगे. आगे चल कर पश्चिमी समाज पर इसका बुरा असर हुआ. तलाक बढ़ गये. समाज छिन्न-भिन्न होने लगा. परिवार बिखरने लगे. एकल परिवार होने लगे. अकेली मां के पास बच्‍चा या अकेले पिता के पास बच्‍चा.
अनाथगृहों में बच्चों की बढ़ती तादाद. बिना परिवार के बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. अपराध बढ़ने लगा. समाज बीमार होने लगा. फिर अमेरिका और ब्रिटेन में कई चुनाव लड़े गये, पिछले दो दशकों में, सिर्फ परिवार और परिवार के मूल्यों को वापस करने के सवाल पर. क्योंकि समाजशास्त्रियों ने माना कि परिवार टूटने, तलाक बढ़ने, स्वछंद ‘लिव-इन रिलेशन’ जैसे सामाजिक रिश्तों से समाज बीमार हो रहा है. अपराधी और मनोवैज्ञानिक रोगी बच्चों की संख्या बढ़ रही है. इसलिए पश्चिम में बिना बंधन के एक साथ रहने के संबंधों पर सवाल उठने लगे हैं.
पर भारत में लिव-इन रिलेशनशिप, फैशन बन रहा है. दिल्ली की घटना के बारे में पहले जान लीजिए. इसी तरह भारतीय परंपरा से विद्रोह करनेवाले दो युवाओं (एक युवा और एक युवती) ने लिव-इन रिलेशनशिप के तहत साथ रहने लगे. वे एक, दो, तीन या चार साल साथ नहीं रहे.
आठ वर्षों तक एक ही छत के नीचे रहे. साथ-साथ. दोनों आइटी उद्योग से हैं. नये युग का नया उद्योग, जहां पुरानी मान्यताओं-परंपराओं को तोड़ने में ही लोग क्रांति का दर्शन करते हैं. हिंदी कविता में जब पुरानी परंपरा के विरोध में विद्रोह हुआ, तो नारा था, तोड़ छंद के वंद.
यानी छंदों पर आधारित कविता की चली आ रही परंपराओं को तोड़ देना. इस तुड़ाव-नकार को ही बहुत लोग क्रांति मानते हैं. यह कविता में ही नहीं था, सामाजिक रिश्तों में भी था. राजनीति में भी रहा. एक बार चंद्रशेखर जी ने संस्मरण सुनाया था. वह युवा थे, विद्रोही स्वभाव के थे. गांव के चंवर (खेतों में देवी-देवता, ब्रह्म का पहले चौरा या पूजा स्थान होता था) में मिट्टी के ब्रह्म को तोड़ दिया. किशोरावस्था में.
तब उन्हें लगा कि देश में बड़ी क्रांति की शुरुआत ऐसे काम से ही होगी. बाद में वह इस प्रकरण को याद कर, ऐसी अबोध चीजों का उल्लेख करते थे. मनुष्य के मन में भ्रम की बात बताते थे. इसी तरह दिल्ली में हुआ. आठ वर्ष तक दोनों क्रांतिकारी युवा साथ रहे. पर जब विवाह का प्रसंग आया, तो युवा का मन डोल गया. उसने अपनी साथी महिला मित्र को तर्क दिया कि मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता, क्योंकि पारिवारिक दबाव है.
वह आधुनिक युवा यहीं तक नहीं रुका, उसने अपने मां-बाप द्वारा पसंद की गयी अपरिचित लड़की से शादी भी कर ली. अब परंपराओं से विद्रोह में उसकी साथी रही युवा महिला मित्र नाराज हो गयी. अपने क्रांतिकारी साथी युवा मित्र के खिलाफ वह अदालत में चली गयी. रेप (बलात्कार) का आरोप लेकर. सुप्रीम कोर्ट ने इस लड़की के आरोप को मान भी लिया है और लड़के पर लड़की को धोखा देने, डिच (छोड़ देना) करने की टिप्पणी की है. यह सही भी है.
अब न्यायिक प्रक्रिया चलेगी. पर इस एक प्रसंग से अनेक सवाल खड़े हुए हैं. पहला, जब परंपराओं का विरोध कर इस ‘युवा दंपती’ ने साथ रहने का फैसला किया, तब उक्त युवक ने क्या अपने परिवार, मां-बाप या समाज की परंपरा से इजाजत ली? दूसरा, कोर्ट में पंजीकरण करा कर कानूनी मान्यता ली? जब यह नहीं हुआ, तो अब इस युवा ने मां-बाप से पूछ कर शादी का फैसला क्यों किया? क्यों मां-बाप की चुनी लड़की को ही शादी करने के लिए पसंद किया.
नैतिक रूप से दो-दो युवा लड़कियों के परिवार या संसार को अस्त-व्यस्त करने का दोषी तो यह युवा ही है? बिना शादी बंधन या सामाजिक मान्यता या कानूनी शादी के बगैर आठ वर्षों तक किसी युवा के साथ रहने के पहले इस लड़की ने भी अपने मां-बाप या समाज से पूछा? कोर्ट से इजाजत ली?
दरअसल, युवा पीढ़ी पैसे, बाजारवाद, भोगवाद की संस्कृति की देन है. एव्री थिंग इज नाउ. वह क्षण में जीना चाहती है. जीवन को भोग मानती है. इंद्रियसुख ही इसके लिए बड़ा है. पर जब यह तंद्रा टूटती है, तब परिवार, समाज, संस्कार, कानून, परंपरा याद आते हैं.
हाल में भारतीय युवाओं की इस नयी पीढ़ी के दर्शन पर पलाशकृष्ण मल्होत्रा की उल्लेखनीय पुस्तक आयी है, द बटरफ्लाइ जेनरेशन (तितली पीढ़ी). इस पुस्तक में युवाओं की नयी दुनिया के बदलाव के अद्भुत वर्णन हैं. पश्चिम जिस सामाजिक रिश्ते से पीठ मोड़ कर स्वस्थ परंपराओं की ओर लौट रहा है, भारत के युवा पश्चिम के उसी जूठन, सड़ी सामाजिक मान्यताओं को गले लगा रहे हैं.
इससे आनेवाले दिनों में भारतीय समाज में बड़े विघटन की संभावना है. दुर्भाग्य है कि आज की राजनीति समाज के मूल सवालों से कट गयी है. अन्यथा यह राजनीति का धर्म है कि वह समाज को बिखरने-टूटने से बचाये. भारतीय युवाओं को राजनीति से ही नयी रोशनी मिलती रही है. गांधी ने इन्हें राह दिखायी.
कभी इन्हीं युवाओं के बल सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद ने आजादी की लड़ाई लड़ी, जेपी की अगुवाई में युवाओं ने 1974 के आंदोलन में शिरकत की थी. तब नारे रहते थे, जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है. पर आज की जवानी किधर है? समाज किधर है? और युवा चित्त कहां और कैसे हैं? क्या इन सवालों पर कहीं चिंता है?
दिल्ली के इस युवा दंपती का प्रसंग पढ़ते हुए एलविन टाफलर की मशहूर किताब याद आयी, फ्यूचर शॉक. इस श्रृंखला में उन्होंने तीन-चार किताबें लिखीं. युवा दिनों में यह पुस्तक पढ़ी थी. लगभग तीस वर्ष पहले. इस पुस्तक में, बदलती टेक्नोलॉजी से बदलनेवाले सामाजिक रिश्तों, सामाजिक संरचना और परिवार के ढांचे में होनेवाले बदलाव का वर्णन था. तब इस पुस्तक में उल्लेख था कि आनेवाले समय में न्यूक्लियर फैमिली (एक पति और एक पत्नी) आदर्श होंगी, पर समाज वहीं नहीं ठहरेगा. उसके आगे एकल परिवार का जन्म होगा.
जहां मां या बाप अकेले अपने बच्चे के साथ रहेंगे. यह भी चर्चा थी कि बच्चे के जन्म के लिए औरत-मर्द आनेवाले दिनों में साथ नहीं रहेंगे. मनचाहा बच्चा, मनचाहे शुक्राणु से, वैज्ञानिक पद्धति से, कृत्रिम गर्भ से पैदा होगा. यानी समाज के ढांचे में रिश्तों की डोर नहीं होगी. चीजें मशीनों से संचालित होंगी. मशीनें जैसी होंगी, संसार वैसा होगा, रिश्ते भी उसी तरह यांत्रिक होंगे.
क्या आज की दुनिया ऐसी ही हो गयी है? भारत के बड़े या छोटे शहरों में भी ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ जैसी बातें या शादी-ब्याह में आये तरह-तरह के बदलाव हर जगह दिखाई देते हैं. क्या यह पुराने सामाजिक मूल्यों की कब्र पर एक नये समाज के उदय की आहट है, या सिर्फ पुराने से विद्रोह है, पुराने का ध्वंस है? आगे कोई रास्ता नहीं. विकल्प नहीं.
प्रेम विवाह के खिलाफ आंदोलन
हाल में चेन्नई में था. प्रिय शहर. आधुनिकता के साथ परंपराओं और पुरानी संस्कृति का अद्भुत समन्वय है, चेन्नई में. यह सामाजिक बदलाव की भूमि रही है. अलग पहचान की. कन्नड़ भाषी पेरियार ने तमिल आत्मसम्मान और क्षेत्रीय आत्म गौरव की बात की. एक मलयाली जो श्रीलंका में जन्मे, तमिलनाडु के सबसे लोकप्रिय नेता (एमजीआर) बने. द्रविड़ आंदोलन जो अपने दर्शन और सिद्धांत के कारण, दलितों के उत्थान का वाहक बनता, अंतत: गतिशील आगे बढ़ती मध्यवर्ती जातियों (अपवर्डली मोबाइल मिडिल ग्रुप्स) के उत्थान की सीढ़ी बना.
डीएमके नेता अण्णादुरै (क्षेत्रीय पहचान के सूत्रधार) के नेतृत्व में जब देश में पहली बार किसी क्षेत्रीय दल ने कांग्रेस की जड़ें मिटा दीं, 137 विधानसभा सीटें जीत कर तो अण्णा ने अपने बेटे से कहा, नहीं! हमें इतनी सीटें नहीं जीतनी चाहिए थी, लोगों ने उस कांग्रेस को उखाड़ फेंका है, जिसका 150 वर्ष पुराना इतिहास है, हमारी पार्टी बमुश्किल 15 साल की है. यह दुखद है कि कामराज और भक्त वत्सलम जैसे कांग्रेसी नेता चुनाव हार गये हैं.
और इसके लिए हम दोषी हैं. यह बयान अण्णादुरै की ऊंचाई दिखाता है. पर यही धरती है ऋषि राजगोपालाचारी की. अपढ़, पर चोटी के विलक्षण, चरित्रवान प्रतिभावान कामराज की पुण्यभूमि. कामराज ने ही आधुनिक तमिलनाडु की नींव डाली. तमिलनाडु में (आजादी की लड़ाई से 1980-90 के दशक तक) जाति तोड़ने, जातिवादी मान्यताओं को तोड़ने, छुआछूत खत्म करने और सामाजिक सुधार के बड़े आंदोलन चले.
प्रगतिशील धरती और राज्य के रूप में यह प्रांत चर्चित हुआ. पर मई के अंतिम सप्ताह में, चेन्नई से प्रकाशित एक बड़े अंगरेजी अखबार के पहले पेज पर खबर थी कि तमिलनाडु के बड़े-बड़े समूह-संगठन, अंतरजातीय विवाह (इंटरकास्ट मैरेज) के खिलाफ जोरदार मुहिम चला रहे हैं. यह खबर पढ़ कर लगा कि शायद यही मनुष्य का इतिहास चक्र है? पहले नकारना, तोड़ना और फिर उसी को अपनाना. क्या यही भव चक्र है? संसारचक्र है? शुरुआत में दक्षिण से वाम तक, कुछ ने खुले, कुछ ने परोक्ष रूप में और कुछ ने दबी जुबान से जाति तोड़ने की बात की.
जनेऊ तोड़ने की बात की. अब उन्हीं लोगों की संतानें, जाति का दुर्ग मजबूत करने का अभियान चला रही हैं. इस काम में अत्यंत दलित व पिछड़ों से लेकर ऊपर तक की जातियां शामिल हैं. वन्नियार जाति, यहां की सबसे पिछड़ी जातियों में से एक है. इसके नेता खुलेआम अंतरजातीय विवाह के खिलाफ धमकी देते घूम रहे हैं. एक विधायक यह मुहिम चला रहे हैं. उनके खिलाफ मामला भी दर्ज हुआ है.
पर मामला दर्ज होने से कोई फर्क नहीं है. इसी तरह एक दूसरी जाति है, व्यापार-कारोबार में लगी. उसके नेता भी अभियान चला रहे हैं कि तुलनात्मक रूप से संपन्न इसकी जाति की महिलाएं बाहर शादी न करें. केजीवीपी (कोंगू वेल्लार गोंडूर पेरावई) अत्यंत प्रभावशाली जाति समूह है. इन लोगों का भी अभियान चल रहा है कि अंतरजातीय विवाह या प्रेम विवाह न हो. उधर ब्राह्मण समूह भी इस आंदोलन में शरीक है. 15 वर्षों से अधिक उम्र के ‘हमारे युवा-युवती इस परंपरा से बाहर जाने या अंतरजातीय विवाह करने के खिलाफ शपथ ले रहे हैं’.
साथ ही तमिलनाडु के प्रगतिशील लेखक और लोग इस तरह मुहिम के खिलाफ भी हैं. वे कहते हैं, हाल के वर्षों में, तमिलनाडु में एक अत्यंत स्वस्थ और अच्छी परंपरा विकसित हुई है. पढ़े-लिखे, स्वतंत्र युवा, जाति और धर्म के परे सोच रहे हैं. ऐसे युवा-युवती हर जाति, समूह या धर्म से निकल रहे हैं. प्रेम विवाह करते हैं. इस धारा के लोगों का तर्क है कि यह नयी पीढ़ी जातिविहीन समाज गढ़ रही है. इससे नेता परेशान हैं. क्योंकि उनका वोट बैंक दरक रहा है.
इससे भी बड़ी बात है कि एक नये युवा वर्ग का उदय हो रहा है, जो जाति, धर्म के समीकरणों से अलग राजनीति पर या सामाजिक सवालों पर या गर्वनेंस के इश्यूज पर सोच और सवाल कर रहा है. इस वर्ग की प्रतिबद्धता किसी जाति धर्म के प्रति नहीं, इसका वोट निर्णायक बन रहा है.
परंपरागत ढंग से जाति और धर्म के सांचे में राजनीति करनेवाले हर दल या समूह या नेता परेशान हो रहे हैं कि जाति या धर्म नहीं माननेवाले इस वर्ग का उदय सभी जातिगत राजनीति का समीकरण अस्त-व्यस्त कर देगा. संख्या में यह वर्ग अभी छोटा ही है.
पर ये जिधर जायेंगे, उधर का पलड़ा भारी हो जायेगा. इससे जाति और धर्म की परंपरागत रेल पटरी पर चलनेवाली भारतीय राजनीति की गाड़ी के लिए गहरा संकट होगा. क्योंकि बीच में एक नयी पटरी खड़ी हो रही है, जो जाति और धर्म दोनों से परे है. इस पटरी ने परंपरागत-जातिगत पटरियों के लिए संकट खड़ा कर दिया है.
दरअसल, यह सिर्फ तमिलनाडु की परिघटना नहीं है. देश के हर हिस्से में, इस तरह का नया मध्य वर्ग जन्म ले रहा है, जिसका रिश्ता जाति या धर्म से नहीं. राजनीति के मूल सवालों पर वह मौलिक ढंग से सोचता है. उसके वोट, जिस करवट जायेंगे, नक्शा बदल देंगे. इस नये वर्ग का वोट, नये मुहावरे वाले, नये नेता के पक्ष में होगा.
दिनांक 03.06.2012

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