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साफ-साफ कुछ बातें!
-हरिवंश- हरियाणा में पिछले एक माह में अनेक बलात्कार की घटनाएं हुई. सोनिया जी जिस दिन एक बलात्कार पीड़िता के घर गयीं, उसके ठीक दूसरे दिन ऐसी ही एक और घटना हुई. बिहार, सितंबर में बलात्कार के कई मामले दर्ज हुए. झारखंड में भी सितंबर माह में बलात्कार के अनेक मामले दर्ज किये गये. पिछले […]
-हरिवंश-
हरियाणा में पिछले एक माह में अनेक बलात्कार की घटनाएं हुई. सोनिया जी जिस दिन एक बलात्कार पीड़िता के घर गयीं, उसके ठीक दूसरे दिन ऐसी ही एक और घटना हुई. बिहार, सितंबर में बलात्कार के कई मामले दर्ज हुए. झारखंड में भी सितंबर माह में बलात्कार के अनेक मामले दर्ज किये गये. पिछले कुछेक महीनों में कोलकाता-बंगाल में भी ऐसी अनेक घटनाएं हुईं, जहां के समाज में सदियों से स्त्रियों का अलग महत्व व सम्मान रहा. देश के अन्य हिस्सों में भी हाल के दिनों में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं, हो रही हैं.
सवाल यह है कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेवार कौन हैं? ईमानदारी से खुद से पूछें कि क्या इस तरह की घटना घटने से पहले पुलिस रोक सकती है? आज की दुनिया में कौन लड़का, किस लड़की से प्रेम कर रहा है, यह पुलिस, सरकार या व्यवस्था पता लगा सकती है? कौन लड़का या लड़की, इंटरनेट पर कौन -सी साइट देख रहा है, यह पुलिस, सरकार या व्यवस्था मालूम कर सकती है? कौन लड़का या लड़की, किसके साथ भाग रहा है या भागनेवाला है, इसे पुलिस, सरकार या व्यवस्था बंद करा सकती है?
छपरा, जयप्रकाश विश्वविद्यालय के मेरे मित्र, लाल बाबू यादव बताते हैं कि वह खूब पैदल चलते हैं. पार्को में, सार्वजनिक जगहों पर. रोज देखते हैं, कम्युनिकेशन (संचार) क्रांति का असर. उनके अनुसार छपरा जैसी जगह में वह रोज 500 से अधिक लड़के -लड़कियों को बतियाते देखते हैं. पार्को में आपस में बैठ कर एक -दूसरे में लीन देखते हैं. प्यार, मोहब्बत और शायरी की बातें नहीं, खुल कर सेक्स की बातें करते भी सुनते हैं. यह सब छपरा जैसी जगह में हो रहा है. जहां आज से बीस वर्ष पहले, ऐसे दृश्यों की कल्पना भी असंभव थी.
बिहार समेत अनेक राज्यों में यह नया समाज बन रहा है. याद रखिए, समाज को संस्कार, सरकारें नहीं देती हैं. साफ कहें, तो कोई भी सरकार दुनिया में समाज को संस्कार नहीं देती. पिछले 20-30 वर्षो में पूरी दुनिया में समाज के स्तर में एक नयी क्रांति हुई है. एक नया बदलाव हुआ है. ब्रिटेन के जानेमाने राजनायिक, क्रेन रौस की एक नयी किताब आयी है.
सामाजिक संकट के मूल में उतरिए
द लीडरलेस रिवोल्यूशन-हाउ आडिनरी पीपल विल टेक पावर एंड चेंज पालिटिक्स इन ट्वेंटी फस्र्ट सेन्चुरी (नेताविहीन क्रांति- 21वीं शताब्दी में कैसे सामान्य लोग सत्ता हथिया लेंगे और राजनीति को बदल देंगे) इस पुस्तक का मूल मर्म या संदेश है कि कैसे एक नयी व्यवस्था जन्म गयी है. इस पुस्तक के लेखक ने यह बताने के लिए एक जगह टिमोथिन गार्टन के कथन की चर्चा की है.
वह कहते हैं, यह नयी संसार व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक नयी संसार अव्यवस्था है (दिस इज नाट न्यू वर्ल्ड सिस्टम, बट ए न्यू वर्ल्ड डिसआर्डर). जो समस्याएं समाज में उत्पन्न हो रही हैं, उनके संबंध में लेखक, क्रेन रौस कहते हैं कि कोई राजनीति या सरकार, चाहे वह कितनी भी बुद्धिमान या कुशल क्यों न हो, इसे हल करने की स्थिति में नहीं है. अब बिहार में घटी सितंबर माह के 12 मामलों को ही लें.
इनके खिलाफ पुलिस द्वारा कानूनी कार्रवाई हुई है. विधि विज्ञान प्रयोगशाला में स्पर्म या अन्य साक्ष्यों की जांच करा कर दोषियों-अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई हुई है. कई दुष्कर्म के मामलों की जांच प्रक्रिया में है. पर पेंच कहां है? अब लोग रातोंरात न्याय चाहते हैं.
पूरे देश में सरकारी कार्यशैली क्या है? यहां रातोंरात न्याय संभव नहीं. भारतीय दंड संहिता (आइपीसी), 1860 में बनी. साक्ष्य अधिनियम, 1872 में बने. सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में बनी. त्वरित न्याय के लिए इन कानूनों में तत्काल परिवर्तन की जरूरत है. यह काम केंद्र की सरकार ही कर सकती है.
यह अलग मसला है. पर जो जनता आज बेचैन है, त्वरित न्याय चाहती है, वह क्या केंद्र में ऐसी ताकतवर सरकार बना रही है, जो इस तरह के सख्त कानून बनाये, ताकि राजसत्ता का भय, सरकार का भय और व्यवस्था का भय समाज में लौटे. दरअसल, महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए अत्यंत सख्त कानून की जरूरत है. तुरंत अॅान द स्पाट फैसला. क्या समाज, राजनीति या सार्वजनिक एजेंडा में इस बदलाव पर कहीं चर्चा या चिंता है? आप चलेंगे पुरानी दुनिया के कानून से, पर परिणाम चाहेंगे क्षणों में? यह कैसे संभव है?
साफ -साफ समझने की जरूरत है. सरकारें, संस्कार नहीं देती. वे 21 वीं सदी की जटिल दुनिया में व्यवस्था चलाती है. विकास-गवर्नेस तक उनकी पहुंच है. सवाल यह होना चाहिए कि संस्कार और मूल्य मिलते कहां से हैं? इसके तीन स्रोत हैं. पहला मौजूदा समाज के मूल्य. याद रखिए, यह मूल्य गढ़ने का काम कोई राजनीतिक दल नहीं करता (गांधी, जेपी और लोहिया अपवाद थे). यह काम बाजार करता है. मार्क्स ने भी कहा था कि अर्थव्यवस्था या आर्थिक ताकतें इतिहास की धारा नियंत्रित करती हैं. आज देश में फ्री मार्केट का असर है. देश के ग्रामीण और शहरी समाज इसी मुक्त बाजार के मूल्यों से संचालित हो रहे हैं.
यही ताकत समाज के मूल्य निर्धारण का सबसे पहला मुख्य स्रोत है. इस स्रोत के मौजूदा मूल्य क्या हैं? विज्ञापन की दुनिया की अलभ्य चीजें पाना. टीवी के विज्ञापनों का इसमें खास रोल (भूमिका) है. उपभोक्ता, बाजार में आकंठ डूब जाना. विलासिता का जीवन जीना. शराब, शबाब, अब नये स्टेट्स सिंबल हैं. भाई लाल बाबू यादव के अनुसार आज जो लड़का गांव में शराब नहीं पीता, मांस नहीं खाता, वह माइनारिटी में चला गया है. हास्य का पात्र. व्यंग्य का विषय. इस युग की परिभाषा, एक पंक्ति में अगर पूछें, तो बेंजामिन फ्रैंकलिन के शब्दों में बिना श्रम किये जिस देश की युवा पीढ़ी धनार्जन की आकांक्षा से प्रेरित हो, उसका डूबना तय है.
गांधी के शब्दों में कहें, तो यह साधन-साध्य का सवाल है.
आज हमारे निजी पारिवारिक या सामाजिक जीवन में गलत के प्रति तिरस्कार नहीं, तो परिणाम गलत ही होंगे. राजनीति में किसी कीमत पर सत्ता चाहिए यानी मैकियावेली (नीति-अनीति से परे, किसी कीमत पर सत्ता) की राजनीति का दौर आज है. दक्षिण अफ्रीका के एक काले युवक से हुई हाल की मुलाकात नहीं भूलती. उसके प्रेरणा के स्रोत नेल्सन मंडेला और गांधी हैं, पर उसकी ख्वाहिश दुनिया के सबसे अमीर इंसान बनने की है, ताकि वह पेरिस में घर ले सके.
भोग के संसार या इंद्र के स्वर्गलोक का आनंद हमेशा पाये. यह फर्क अफ्रीका, एशिया, यूरोप का नहीं है. यह दुनिया का सपना है. आज का यही युगधर्म है. इस युग का दर्शन है. पैसा, पैसा और पैसा! भोग, भोग और भोग! भला, इस दर्शन को कोई सरकार या व्यवस्था या अफसर या पुलिस कहां रोक पायेंगे?
मूल्य गढ़ने के दो और सबसे मूल स्रोत हैं. परिवार और स्कूल. इन दोनों की क्या स्थिति है? क्या स्कूलों में आज गीता, रामायण या संस्कारों की शिक्षा मिलती है? गांधी का ‘सत्य के मेरे प्रयोग’ (गांधी की आत्मकथा) पढ़ाया जाता है? नैतिक शिक्षा की कोई जगह बची है? हकीकत यह है कि समाज, परिवार को कोई वह मूल्य-संस्कार नहीं देता, जो शिक्षक देते रहे हैं.
आज बिहार में शिक्षक कैसे हैं (सब नहीं, पर कुछ ऐसे हैं, जो आनेवाली पीढ़ियों को तबाह कर देंगे). माफ करिएगा, यह कहना लोगों को बुरा लगेगा. छपरा के प्रोफेसर मित्र बताते हैं टीचिंग कम्युनिटी में जो नये लोग नियुक्त हुए, उनमें से कुछेक लोग कैसे और किस योग्यता के हैं? इनकी नियुक्ति की मानिटरिंग एजेंसी, मुखिया हैं.
अनेक मुखियाओं के किस्से गांव वाले ही गिनाते हैं कि उन्होंने किस तरह के लोगों को अध्यापक बना दिया है? किस पद्धति से, किन हालातों में बनाया? प्राइमरी स्कूलों में जो पुराने सरकारी टीचर हैं, इन्हें 20-25 हजार तनख्वाह मिलती है. इनमें जो पुराने शिक्षक हैं, जो सेवानिवृत्ति के आसपास हैं, उनमें से अधिकांश के पास आज भी सामाजिक सरोकार हैं. पर अब आधुनिक शिक्षा प्रणाली या आरंभिक स्कूल, बच्चों में मूल्य नहीं गढ़ रहें. बच्चों को संवेदनहीन मशीन बना रहे हैं.
व्यवस्था का असंवेदनहीन पुर्जा. इन बच्चों को इंटरनेट उपलब्ध है, मोबाइल उपलब्ध है, ये संचार क्रांति के संसार में हैं, लेकिन इन्हें नैतिक अनुशासन या सामाजिक मर्यादा का पाठ पढ़ानेवाली कोई संस्था नहीं है, तो ये क्या करेंगे? एमएमएस बनाना, अश्लील हरकतें करना, टीवी संसार को देख कर कम उम्र में ही भोग की दुनिया में डूब जाना, शराब पीना आदि इनके लिए फैशन है. इसलिए यह इंद्रिय विस्फोट का युग है.
इंद्रिय निग्रह (अनुशासन) का दौर नहीं. सरकारें या व्यवस्था इंद्रिय निग्रह से जो समाज संचालित हो, वहां कारगर हो सकती हैं. विकास कर सकती हैं. भारत के पुराने दौर में इंद्रिय संयम की बात होती थी.
इंद्रिय संयम सिर्फ यौन अर्थ में ही नहीं है. जीवन जीने में, रहने में, सोचने में और समाज के प्रति अपने फर्ज निभाने में है. व्यक्ति या समाज के संपूर्ण व्यक्तित्व से इसका आशय है. तहलका के युवा पत्रकार और गहराई से सोचनेवाले, निराला दस दिनों तक बिहार के एक गांव में रहे. उन्होंने अपना अनुभव सुनाया. फॉर्मूला में सुनिए –
शिक्षा बुरी स्थिति में है. क्योंकि योग्य शिक्षकों की कमी है.
शराब सबसे अच्छी स्थिति में है.
गांवों में कलह है, जो पहले कभी नहीं रही. सोलह साल का किशोर भी शराब से कुल्ला करता है. वगैरह-वगैरह.
वह भयभीत हैं कि दस वर्षो बाद का यह स्वरूप कैसा होगा? वह कहते हैं कि गांव का समाज भी दार्शनिक, कृष्णनाथ जी के शब्दों में कहें, तो ‘और-और की कामना में मरता मुल्क’ की स्थिति में है.
ध्यान रखिए इनमें से कोई भी चीज आज की तारीख में सरकारें नहीं बदल सकती. सरकारों की सीमाएं हैं. लोग कहते हैं कि सरकार चाहे, तो शराब बंद करा सकती है. यह गलत धारणा है. देश में जहां भी शराबबंदी हुई, वहां जाकर देख लीजिए. शराब पीनेवाले पीते ही हैं. यह पाबंदी मनुष्य या समाज की आदत, प्रवृति, संयम या स्व अनुशासन पर निर्भर है.
परिवारों की क्या स्थिति है, जहां से मूल्य मिलते हैं? यह संस्था टूट गयी है. शहरों में मां-बाप के पास समय नहीं है और गांवों में मां-बाप और बुजुर्गों को कोई सुनता नहीं. इन्हें फालतू माना जाता है. टीन एज प्रेगनेंसी (कम उम्र में गर्भधारण) बेतहाशा बढ़ रही है.
यह महिला अस्पताल से निजी बातचीत में पता कर जांच लें. कुछेक वर्षो पूर्व वेलेंटाइन डे के दिन हिंदी इलाके के एक शहर के पार्क में तकरीबन 400 लोग चुंबन या आलिंगनबद्ध हुए. इसके पीछे के बाजार को जानिए? आज दुनिया में तकरीबन 40 हजार बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, जिनकी 2.5 लाख से अधिक शाखाएं हैं. ये मीडिया और बाजार को नियंत्रित कर रही हैं.
एक उपभोक्तावादी समाज हम बना रहे हैं, जिसमें संबंध का महत्व नहीं, तिजारत का जोर है, शरीर का महत्व है. आज तलाक मामूली चीज है. रोज नये-नये संबंध बनाना सामान्य है. बिना विवाह के साथ रहने (लिव इन रिलेशन) का यह दौर है. यह भजन नहीं, भोग का दौर है. भोग सको, तो भोग लो का दौर या युग या मानस. एक आकलन के अनुसार 2003 में सौ करोड़ रुपये से अधिक के वेलेंटाइन डे कार्ड की बिक्री भारत में हुई. 40 फीसदी वार्षिक वृद्धि से जोड़कर इसके बाजार का अनुमान लगा लीजिए? इस युवा पीढ़ी के दर्शन को समझने के लिए, पलाशकृष्ण मल्होत्रा की पुस्तक, द बटरफ्लाई जेनरेशन जरूर पढ़नी चाहिए.
इस युवा पीढ़ी के लाइफस्टाइल, मूल्य और सरोकार अगर आप समझ सकते हैं, तो बलात्कार की बढ़ती घटनाएं, उच्छृंखलता की बढ़ती घटनाओं की पृष्ठभूमि आसानी से समझ लेंगे. यह अल्कोहल (शराब), हार्ड एंड साफ्ट ड्रग (नशीली दवाएं) या कैजुएल सेक्स (यौन संबंध) को माननेवाली पीढ़ी है. पर इन युवाओं का संसार सूना है, खुशी नहीं है. अकेलापन है. तड़प है. बेचैनी है. भौतिक चीजों की भूख है. अब यह स्थिति हो, तो कोई व्यवस्था कैसे बलात्कार और महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचार को कारगर तरीके से रोक सकती है? इस सामाजिक संकट के मूल में उतरिए और समझिए कि आज परिवार किस हाल में हैं?
एकल परिवार हैं, पति-पत्नी और बच्चे बस. दादा-दादी, चाचा-चाची रहे नहीं. टूटते – छीजते रिश्ते हैं. घर पहली पाठशाला है. माता-पिता पहले आदर्श हैं, पर बच्चों को अभिभावक समय नहीं देते.
पड़ोस-समाज का अपनापन गायब है.
स्कूल में नंबर और परीक्षा पास करने की पढ़ाई है. किसी तरह नंबर अधिक आये. टॉप कर जायें. ट्यूशन से काम करें.
बच्चों को सामाजिक सरोकार से कोई परिचय नहीं रहा.
पाठय़क्रम से नैतिक शिक्षा गायब है. अनुशासन, नैतिकता, मर्यादा, बड़ों के आदर-सम्मान का अभाव है. छुटपन में ही अहंकार है
आदर्श और प्रेरणा के मॉडल नहीं हैं-अर्थ ही सब कुछ लगता है.
टीवी सीरियल, इंटरनेट, फेसबुक, मोबाइल के अत्यधिक और बेजा उपयोग विचार और मानस गढ़ते हैं.
सदाचार और सहिष्णुता पराई चीजें हैं.
तेज भागती युवा पीढ़ी बचपन से ही दबाव-तनाव में है.
गलाकाट प्रतिस्पर्धा में लक्ष्य को येन केन प्रकारेण पाना मकसद है.
कुछ भी हो तुरत-फुरत में हर चीज चाहिए. नहीं मिलने पर क्रोध, हिंसा, लोभ, वासना,लालच और अंतत: नशे की गिरफ्त में फंसते जाना.
चकाचौंध व पाश्चात्य आधुनिकता से सोच प्रभावित. रहन-सहन और जीवनशैली बाजारवाद और भोगवाद से प्रभावित. अन्य राज्यों के मुकाबले, बिहार से जुड़ा एक दूसरा बड़ा सवाल है. बढ़ती आबादी का. बिहार की आबादी आज 10 करोड़ 38 लाख है. बिहार में जनसंख्या घनत्व शायद आज दुनिया में सबसे अधिक है, 1102 प्रतिवर्ग किलोमीटर. जबकि राष्ट्रीय जनसंख्या घनत्व है, 382 प्रतिवर्ग किलोमीटर. इस जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कितनी पुलिस चाहिए? बिहार में आज पुलिस बल की संख्या लगभग 45 हजार है. देश में प्रति लाख की आबादी पर 126 पुलिसकर्मी हैं, जबकि बिहार में 80. फर्ज करिए बिहार सरकार तय करती है कि अमन-चैन और रामराज्य बनाने के लिए घर-घर पुलिस बैठा देंगे, तो इसके लिए बिहार सरकार को अकूत धन चाहिए. वह कहां से मिलेगा? कौन देगा? 2012-13 में बिहार में पुलिस पर खर्च लगभग 75119.12 लाख रुपये है.
हाल के वर्षों में, बिहार में विकास पर खर्च बढ़कर 28 हजार करोड़ रुपये योजना मद में हुआ है. पहले तो यह अत्यंत मामूली था. पिछले कुछेक वर्षो से बिहार में आर्थिक विकास दर सबसे तेज गति से बढ़ा. पर पूरे बिहार को देश के स्तर पर लाने के लिए अगर यह विकास दर चाहिए, तो धन कहां है? 15-20 वर्षों तक लगातार अगर इस दर से बढ़े, तो आज के महाराष्ट्र या अन्य राज्यों के बराबर बिहार पहुंचेगा. तब तक वे राज्य कहां चले जायेंगे? जनसंख्या वृद्धि की दर की गति यही रही, तो क्या हालात होंगे? इंसान पर इंसान रहेगा. इन बुनियादी सवालों पर क्या बिहार का समाज आज सोचने के लिए तैयार है?
कितनी पुलिस चाहिए, बिहार में बढ़ते अपराध को नियंत्रित करने के लिए? फर्ज कर लें दो-चार करोड़ पुलिस हो गयी, तो ऐसी कौन सी विद्या है कि पुलिस भविष्य जान लेगी कि कौन प्रेम में धोखा करनेवाला है? कौन बलात्कार करनेवाला है? यह तो इंसान के मूल्य, जीवनदर्शन, संस्कार और प्रवृति पर निर्भर है.
इंसान बनाने का काम सरकारें नहीं करती. परिवार, स्कूल या उच्च शिक्षा केंद्र करते हैं. बिहार तो छोड़िए, हिंदी राज्यों के उच्च शिक्षा संस्थाओं को बंद कर दीजिए, तो कोई असर नहीं पड़नेवाला? एक विदेशी शिक्षाशास्त्री ने एक हिंदी राज्य के विश्वविद्यालय के कामकाज और सामाजिक योगदान का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला है कि छात्र यहां टाइमपास करते हैं. समय काटते हैं. जहां छात्र समय काटे, वहां क्या संस्कार पड़ेंगे? समाज के ये सबसे अहम् सवाल आज हैं? पर क्या ये सवाल कहीं समाज के सार्वजनिक एजेंडा में हैं?
आज पूरे देश में खबरों पर नजर डालिए. सेक्स विस्फोट की स्थिति है. याद रखिए, सेक्स बाडी का विषय नहीं, दिमाग (माइंड) का विषय है. दिमाग में ही विचार उपजते हैं. वहीं से हम, मां, बहन, पत्नी या मित्र का वर्गीकरण करते हैं. बच्चों में मस्तिष्क की इस विचारधारा से ही भावना (फीलिंग) या योजना (एक्शन) उपजते हैं. अगर संस्कार से जुड़ी शिक्षा है, नैतिक सवालों से जुड़ी शिक्षा है, तो बच्चे के दिमाग में विकृत चीजें आने से पहले कई सवाल उठेंगे, जो उसकी आत्मा पर चोट करेंगे.
यह विचारधारा का सवाल है. आज बगैर शादी साथ रहने (लीव इन रिलेशन) को उच्चतम न्यायालय से ही मान्यता है. होमोसेक्स्युलिटी को भी मान्यता है. देश के एक टाप प्रबंधन संस्थान में 25-30 फीसदी बच्चे-बच्चियां लिव इन रिलेशन के तहत साथ रहते हैं. किसी का किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं. शिक्षक या प्रोफेसरों की क्या स्थिति है? क्लासरूम में उपदेश दिया और बात खत्म. जिम्मेदारी खत्म. दरअसल, गुरु और शिष्य का रिश्ता क्लासरूम के बाहर का है.
किशोर उम्र से ही बच्चे शराब पी रहे हैं. नशा करते हैं. जनता यह कह सकती है कि सरकार इसे बैन कर दे. शराबखोरी बंद हो जायेगी. हम नागरिकों का जो चरित्र है, उसके तहत ऐसी स्थिति में शराब की मांग और बढ़ जायेगी. भ्रष्टाचार और बढ़ जायेगा. टयूनिशिया में इंटरनेट, फेसबुक वगैरह पर पाबंदी लगी, तो वहां उतना ही तेज आंदोलन भड़का. आज प्रतिबंध से चीजों को आप नहीं रोक सकते. विचार, विवेक और संस्कार ही हमें बचायेंगे. पर विवेक, विचार और संस्कार देनेवाले केंद्र चाहिए. समाज को इस हिंसक होते या कामुक होते समाज का यही उपचार है. तीन तरह की शिक्षाएं आज खत्म हो गयी हैं.
पारिवारिक शिक्षा (फैमिली एजुकेशन), स्कूली शिक्षा (स्कूल एजुकेशन) और सामाजिक शिक्षा (सोसाइटी एजुकेशन). शहरों में 80 फीसदी मां-बाप नौकरी करते हैं. बच्चे गंदे-गंदे एमएमएस करने में मग्न हैं. ऐसे युवाओं का तर्क है कि भगवाल कृष्ण की 16 हजार प्रेमिकाएं थीं, तो हमारी दो-चार भी नहीं हो सकती? समझ का यह दारिद्र्य, विचारों का यह दारिद्र्य, हमें यहां पहुंचा दिया है? हम करते क्या हैं? ऐसी कोई घटना हो गयी, तो सरकार दोषी, पुलिस दोषी, प्रशासन दोषी. आग लगा दो, जला दो, आंदोलन करो. उधर राजनीति को गद्दी का अवसर माननेवाले, ऐसे ही मौके तलाशते हैं. ऐसे अवसरों पर वे आग में घी डालते हैं.
एक मिनट शांति से, अकेले में अपनी आत्मा से पूछिए कि अस्पताल, थाना, समहरणालय फूंकते हैं, तो जिनपर कानून व्यवस्था बचाने की जिम्मेदारी है, वे क्या करेंगे? उनके पास क्या विकल्प हैं? उनकी मजबूरियां क्या हैं? इसका परिणाम क्या हुआ? निशांत नाम के एक छात्र को गोली लगी.
उसे अस्पताल ले जाया गया. वहां कोई डाक्टर नहीं था. क्योंकि अस्पताल में हुए हड़ताल और अगलगी से डाक्टर जान बचा कर भाग गये. जो डाक्टर निशांत की जान बचा सकते थे, उन्हें अपनी जान के लिए भागना पड़ा. इसी तरह जो निशांत बच सकता था, वह नहीं बचाया जा सका. क्या सरकार, पुलिस, प्रशासन को यह पता है कि कहां-कहां, कौन-कौन निजी जीवन में प्रेम, घृणा, द्वेष या पलायन कर रहा है? हां, पुलिस-प्रशासन या सरकार का फर्ज है कि घटना के बाद त्वरित कार्रवाई करें. इस विफलता पर आप व्यवस्था को दोषी दे सकते हैं.
विरोध या आंदोलन कर सकते हैं. पर समाज के अंदर ब्लैकमेल का धंधा चले, स्कूल में एमएमएस या अश्लील इंटरनेट से जीवन चले, टीवी की अश्लील चीजें हमारे मानस को गढ़े, तो हम कहां जायेंगे? यह कौन सी व्यवस्था रोक पायेगी? यह पूरी व्यवस्था, नैतिक आचारसंहिता से मुक्त हो चुकी है. भविष्य तो और भयावह दिखता है. समाज में तीव्रतम प्रतिस्पर्धा है. हर चीज के लिए. हिंसा या अपराध करनेवालों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करें, तो पायेंगे कि इसमें अच्छे घरों के लोग शरीक हैं.
वे बेहतर पृष्ठभूमि से आते हैं. गरीबी के कारण ये चीजें नहीं बढ़ गयी. बल्कि इन्हें जीवन में रस और मौज चाहिए. इसलिए इनकी आदतें बेलगाम हो रही हैं. क्रेन रौस की पुस्तक के अनुसार आज दुनिया में छह बिलियन डालर से अधिक का हथियारों का कारोबार है. आज पश्चिमी देशों में ब्रिटेन या अमेरिका में पग-पग पर सीसीटीवी या कैमरे लगे हैं, पुलिस तैनात हैं, पर अपराध या इस तरह की घटनाएं रूक नहीं पा रही ?
क्योंकि सिर्फ और सिर्फ पुलिस बढ़ा देने से, सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा देने से, निगरानी बढ़ा देने से यह हालात नियंत्रित नहीं होनेवाले? पश्चिम का समाज मानता है कि इस बीमारी की जड़ कहीं और है. हमारा सामाजिक जीवन टूट गया है. यह मूल वजह या कारण है. एक दूसरे के प्रति सम्मान का, बड़े-छोटे के भाव का, आपसी स्नेह, मर्यादा या रिश्तों का हमारे समाज में टूटन-बिखराव है.
इसी तरह भारतीय या बिहारी समाज टूटा है. इस टूटे समाज को जोड़ने की ताकत राजनीति के पास नहीं है. पश्चिम के जानेमाने समाजशास्त्री या चिंतक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि बदलाव का एक ही रास्ता है कि हम खुद को बदलें (मोस्ट इंपारटेंट एजेंट ऑफ चेंज इज अस, आवरसेल्फ). पुरानी भारतीय मान्यता रही है, आत्मदीपो भव:. इस लौ को जलानेवाली आज कौन-सी धारा हिंदी इलाके के समाज में काम कर रही है? समाज को बेहतर बनाने की चर्चा किस दर्शन में है?
किसके पास है? आज पश्चिम के वे समझदार लोग, जो इस बदलाव को गहराई से देख रहे हैं. वे कह रहे हैं या नारा लगा रहे हैं कि अब दुनिया में बदलाव का एक ही रास्ता है, चेंजिंग द सेल्फ, मे चेंज द वर्ल्ड (खुद को बदलें, शायद संसार बदल जाये). अगर बलात्कार से, अश्लीलता से, हिंसा से मुक्ति पानी है, तो हमें समाज के लिए मूल्य गढ़ने होंगे.
पहले हर गांव-शहर में यह काम धर्म, दर्शन, संस्कृति से संभव था. इनसे तो हमने मुक्ति पा ली, तो कौन हमारा संसार, नैतिक मानवीय और रहने लायक बनायेगा? जिस ‘सत्य के प्रयोग’ (महात्मा गांधी की आत्मकथा) में इंसान को बदल देने की ताकत है, कितने घरों में बच्चों को पढ़ाया जाता है? कितने अध्यापक लगातार उसे पढ़ रहे हैं और छात्रों को माज रहे हैं? समाज को गढ़नेवाले आध्यात्मिक आश्रम अब कहां हैं?
दिनांक 14.10.2012
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