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सिर्फ वाड्रा दोषी नहीं!

-हरिवंश- अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण द्वारा जारी दस्तावेजों के अनुसार सोनिया गांधी के दामाद, राबर्ट वाड्रा की संपत्ति पचास लाख से तीन सौ करोड़ हो गयी. महज तीन वर्षों में. उधर डीएलएफ के मालिक, केपी सिंह भी पिछले कई वर्षों से प्रबंधन के बड़े विशेषज्ञ के रूप में चर्चित होते रहे हैं.उनके प्रबंध-कौशल पर […]

-हरिवंश-
अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण द्वारा जारी दस्तावेजों के अनुसार सोनिया गांधी के दामाद, राबर्ट वाड्रा की संपत्ति पचास लाख से तीन सौ करोड़ हो गयी. महज तीन वर्षों में. उधर डीएलएफ के मालिक, केपी सिंह भी पिछले कई वर्षों से प्रबंधन के बड़े विशेषज्ञ के रूप में चर्चित होते रहे हैं.

उनके प्रबंध-कौशल पर अनेक किताबें आयीं. वह महंगी पत्रिकाओं के कवर स्टोरी के विषय बने. उनकी सफलता के गुणगान हुए. दरअसल, ऐसे मामलों की तह में जायें, तो बड़े राज खुलेंगे. वाड्रा की संपत्ति में इजाफा और केपी सिंह के सबसे धनवान बनने के बीच एक संबंध है, जो राजनीति -सत्ता के पुल से गुजरता है. पर इसकी जांच कौन करायेगा?
महज एक सप्ताह पहले, मुंबई के एक भाजपा राज्यसभा सांसद की कंपनी की खबर आयी कि सिंचाई योजनाओं में कई सौ करोड़ उन्हें अग्रिम दिये गये. इसके लिए पांच अनुशंसा पत्र लिखा, बीजेपी अध्यक्ष, नितिन गडकरी ने. उनसे पूछा गया कि आपने ऐसा क्यों किया, तो उन्हें लोक -लाज, शर्म-हया नहीं आयी. उन्होंने कहा, ऐसा बार-बार करेंगे.
फिर इसी भाव या मुद्रा में कल सलमान खुर्शीद, राबर्ट वाड्रा का बचाव कर रहे थे. इनके पास महज एक तर्क था कि बिल्डर्स, अपने नजदीकी मित्रों, सगे-संबंधियों को बहुत छूट के साथ फ्लैट देते हैं. पर वाड्रा को केपी सिंह ने छूट देकर अपनी कंपनी को रियल स्टेट की सबसे बड़ी कंपनी बना ली, इस बारे में कोई नहीं बोल रहा.
भाजपा अध्यक्ष के बयान और कांग्रेस की इस बचाव के पीछे एक ही राजनीतिक संस्कृति या मानस है. आज की राजनीति में साधन, साध्य या शुचिता का सवाल प्रासंगिक नहीं रह गया है. पिछले कई सालों से भारत में महाभ्रष्टाचारों का भंड़ाफोड़ हो रहा है.
2जी, कामनवेल्थ गेम्स, कोयला घोटाला, राज्यों के घोटाले, बीस-तीस हजार करोड़ के जगन मोहन रेड्डी के घोटाले को छोड़ दें, तो ऐसे अनंत मामले हैं, जो पिछले कुछेक वर्षों में सामने आये हैं. किसी भी समझदार समाज में ये चीजें स्तब्ध करनेवाली हैं. पर इसकी जड़ें कहीं और हैं, जिन पर बात होनी चाहिए.
कितना धन चाहिए, एक इंसान को ?
आखिर किसी समाज, देश, मुल्क या व्यक्ति को जीने के लिए कितना धन चाहिए? धन तो माध्यम है, खुशी पाने का. धन से खुशी मिलती है. खुशी विषय को लेकर आज दुनिया में जितना अध्ययन हो रहा है, वह जानना हतप्रभ करता है. यह खुशी पर शोध, सबसे अधिक दुनिया के संपन्न और पश्चिमी देशों में हो रहा है. क्योंकि वहां सबसे अधिक बेचैनी है.
हाल की लंदन यात्रा में, लंदन स्कूल आफ इकानामिक्स की पुस्तक दुकान से एक नयी प्रकाशित पुस्तक ली, ‘हाउ मच इज इनफ’ (कितना पर्याप्त है)- द लव आफ मनी एंड द केस आफ गुड लाइफ (पैसे से प्यार और अच्छे जीवन का मामला). यह पुस्तक दो लोगों ने लिखी है.
राबर्ट स्किडेलस्काइ (राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अध्यापक हैं) और एडवर्ड स्किडेलस्काइ (दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हैं). आज भारतीय समाज में यह बहस होनी चाहिए कि हमें कितने पैसों की जरूरत है? 1986-87 में बोफोर्स, 64 करोड़ का सबसे बड़ा प्रकरण लगा. आज तो लाखों-करोड़ों में लोग खेल रहे हैं. झारखंड में एक एमवीआइ, कई सौ करोड़ कमा रहा है, तो दोष सिर्फ राबर्ट वाड्रा को ही क्यों? वैसे ही झारखंड में भ्रष्टाचार की जो स्थिति है, देश के संदर्भ में वह देखें, तो कुछ भी नहीं है. हाल के इन प्रकरणों को देख कर तो यही लगता है कि मधु कोड़ा, एनोस एक्का, हरिनारायण राय वगैरह के साथ ज्यादती हो रही है.
राजा, कन्निमोजी और कलमाडी छूट जाते हैं. फिर संसदीय समितियों में उनकी ताजपोशी होती है. केंद्र के घोटालों को देखिए, अन्य राज्यों को देखिए, तो मान लेना चाहिए कि झारखंड में भ्रष्ट से भ्रष्ट आदमी भी साधु-संत है. रांची में जनरल (सेवानिवृत्त)वीके सिंह ने कहा कि भ्रष्टाचार पर अध्ययन करनेवाने एक विशेषज्ञ ने उन्हें बताया है कि 1992 से आज तक (हाल के दो वर्षों के महाघोटालों को छोड़ कर) के घोटालों में 73 लाख करोड़ की लूट हुई है. अब इस महालूट में झारखंड के नेता-अफसर कहां हैं? क्यों इन्हें ही दंड मिले?
दरअसल, भ्रष्टाचार और घोटालों की बाढ़ आयी है. इसका मूल कारण है, आज की राजनीतिक संस्कृति. जब तक यह नहीं बदलेगी, व्यक्ति नहीं बदलेंगे, तब तक पात्र बदलते जायेंगे, पर भ्रष्टाचार नहीं रुकनेवाला?
पश्चिम के समृद्ध और अघाये समाज में यह सवाल उठ रहा है कि एक इंसान को कितना धन चाहिए? लोभी बैंककर्मियों को करोड़ों-करोड़ों मिलनेवाले बोनस के खिलाफ असंतोष है. उस राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की मांग हो रही है, जिसमें कोई अधिक से अधिक संपदा एकत्र नहीं कर सके. गरीबों और अमीरों के बीच आय की विषमता खत्म हो. पैसा क्यों चाहिए, इस सवाल पर पश्चिम समाज सोच रहा है. वे इस मर्म पर बात कर रहे हैं कि धन या संपदा अपनेआप में साध्य नहीं है, बल्कि अच्छे जीवन के महज साधन भर हैं.
याद करिए, यह सवाल गांधी ने उठाया था. भारतीय संस्कृति और भारत के मनीषियों-ऋषियों ने हमें यह जीवन-दर्शन दिया. पर ब्रिटेन में इस विषय पर नयी बहस हो रही है, भारत में नहीं. इस पुस्तक में विख्यात अर्थशास्त्री, जान मेयार्ड कींस के भविष्य के आकलन की चर्चा है.
कींस ने तब आंका था कि अगली सदी में जब प्रति व्यक्ति आमद काफी बढ़ जायेगी, तब शायद कोई भी सप्ताह में पंद्रह घंटे से अधिक काम न करे. वह जीवन के दूसरे सुख में अपना समय गुजारे. जीवन का मर्म जाने, अर्थ खोजे. समय, संगीत, नृत्य, कला, साहित्य या मनपसंद क्षेत्र में डूबे, उतराये और जीवन का आनंद ले. ब्रिटेन के ये दोनों विद्वान कहते हैं कि अर्थशास्त्र को एक नैतिक विषय समझकर हमें चलना चाहिए.
यह गलती हुई कि हमने इसे धन उपार्जन का विज्ञान मान लिया. इन दो लेखकों ने अरस्तू से लेकर अब तक ढ़ूंढ़े गये जीवन के लक्ष्यों से समाज के भटकने पर खास नजर डाली है. वे कहते हैं कि मनुष्य, समाज या देश की प्रगति का संकेत न महज जीडीपी है या हैपीनेस (खुशी). वे सात रास्ते बताते हैं. साथ ही आर्थिक नीतियों में मौलिक बदलाव की बात करते हैं, ताकि मनुष्य अपने जीवन का चरम सुख पा सके. जिस अध्याय में उन्होंने अच्छे जीवन की बात की है, उसमें उमर खय्याम का अंगरेजी में एक अंश उद्धृत किया है, जिसका आशय है –
मुझे शराब का एक मग चाहिए और कविता की किताब/ रोटी का आधा टुकड़ा चाहिए, ताकि खा सकूं/तब मैं और आप सुनसान स्थान पर भी बैठे होंगे/ तब भी हमारे पास किसी सुल्तान से अधिक संपदा होगी
भारत में अगर भ्रष्टाचार खत्म होता है, तो उसके लिए जरूरी है कि नयी बहस शुरू हो कि कितना धन चाहिए, एक इंसान को? क्यों यह समाज धनखोर बन रहा है? क्यों अनैतिक छल-छद्म से भी सिर्फ धन के लिए हाहाकार है? कितना धन चाहिए, एक इंसान को? धन की भूख की कोई सीमा है? आज के भारत में यह किसी एक व्यक्ति का सवाल नहीं है. यह मानस है, जो हर जगह, हर तरफ है. इस मानस-मनोवृत्ति की ललक क्या है? इस भूख का मनोवैज्ञानिक राज क्या है? बड़ा आसान फॉर्मूला है.
उपभोक्ता मानस को दोष देना. कहना कि यह पश्चिमी मानस है. पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव. लोभ-लालच को इसकी जड़ बताना. फिर भी पूरा उत्तर नहीं मिलता. जीने के लिए कितना और क्या?
उदारीकरण ने भारत की मिट्टी छीन ली है. पश्चिमी आर्थिक मॉडल ने भारत को नया मानस दिया है. यह मानस है, संपूर्ण भोग का. भारतीय मानस मानता था, भोग-लालसा, आग है . इंद्रिय भोग भी आग है. उसमें घी डालिए, यह भभकेगा. अनियंत्रित उदाम इच्छाएं, वासनाएं. आज समाज की मुख्यधारा में इच्छाओं-वासनाओं की बाढ़ है. यही ’91 के बाद का भारतीय मानस है.
समाज की मुख्यधारा का. आजादी की लड़ाई से लेकर ’91 के बीच तक, राजनीति में भारतीय मानस मौजूद था. संस्कारों के रूप में. विचारों के रूप में. गांधीजी ने राजनीति में इसी को आगे बढ़ाया. इसलिए आरएसएस से लेकर घोर नक्सली भी आचार-विचार में, जीवन दर्शन में, सोच में, ईमानदार और नैतिक रहे. कह सकते हैं, हर दल या समूह में गांधीवादी विचारों-चिंतन का बोलबाला था. अब ईमानदारी-नैतिकता बोझ है.
इस दौर में प्रतिस्पर्धा ही मूल है. दूसरे की कीमत पर आगे बढ़ना. छल, छद्म, षड्यंत्र और तिकड़म से. साधन और साध्य का कोई अर्थ ही नहीं रहा. भारत की राजनीति-व्यवस्था अब मैकियावेलि की राजनीति से संचालित है. साधन-साध्य फिजूल हैं. येनकेन प्रकारेण गद्दी, पैसा और प्रतिष्ठा. परिवार की सत्ता चाहिए या जाति की. यह इस धारा का दर्शन है. आज इसकी प्रतिष्ठा है. सामाजिक पूछ है. आदर है. भारतीय मूल्यों या गांधी के संस्कारों से अब यहां की राजनीति नहीं चल रही.
आरएसएस में भी कार्यकर्ताओं का टोटा है. युवा नहीं आ रहे. वामपंथ से भी युवा शक्ति भड़क रही है. हाल ही में एक अंगरेजी अखबार में खबर आयी, नक्सली गिरोहों से युवा भाग रहे हैं. उन्मुक्त सेक्स संबंधों को लेकर भी उनमें असंतोष है. मध्यमार्गी दलों में कार्यकर्ता रहे नहीं. ठेकेदारों की फौज है.
इन दलों का सदस्यता अभियान, झूठ और फर्जी का पुलिंदा है. राजनीति में विचार और मूल्य हैं, कहां? आज कोई दल का सदस्य बनता है, कल उसे टिकट चाहिए. पद और पैसे की आग में दल जल रहे हैं. भारतीय मानस पूछता था कि इतनी संपत्ति क्यों और किसलिए? कबीर को हम गांवों में अनपढ़ लोगों से सुनते थे कि साईं इतना दीजिए, जिसमें कुटुंब (परिवार) समा सके. साधु या अतिथि भी भूखा न जाये, हम भी भूखे न रहें. गांवों में सुबह पराती (भजन) सुना, मन लागे यार फकीरी में. अब उन्हीं गावों में देखता हूं, मन लागे यार अमीरी, शराब, भोग और संपदा में. जीवन के शुरूआती 14 वर्ष ही गांव में रहा.
वहीं मूल्य मिले. जितना सही ढंग से कमाओ, उसी में जीयो. स्वाभिमान से. 40 से अधिक वर्ष शहरों (बनारस, दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, पटना, कोलकाला व रांची) में गुजरे. जीवन के इस मोड़ पर अब आर्थिक सुरक्षा का सवाल उभर रहा है. डरा रहा है. यह शहरों की देन है. गांव ने सिखाया, अपने स्वत्व से जीयो. संकट में होगे, तो पीछे संयुक्त परिवार की ताकत है. खेत है. समाज है. साथ खड़े मिलेंगे. पर अब ये एक -एक भारतीय संस्थाएं (परिवार, समाज) टूट गयी हैं. पीछे कोई नहीं. एक मामूली बीमारी लाखों का खर्च बढ़ाती है.
जब कोई आगे-पीछे न हो, तो भविष्य का क्या होगा? यह सवाल इन शहरों ने जीवन के इस पड़ाव पर हमें दिये हैं. यह चिंता देनेवाली यह सभ्यता-संस्कृति ही राक्षसी है. यह लोभी बनने को विवश कर रही है. इसलिए भारत को बचाना है, तो आग उठनी चाहिए, जिसमें यह लोभ, भोग की मौजूदा संस्कृति भस्म हो सके. इसके दो ही रास्ते हैं, घर और स्कूल.
फिर राजनीति में विचारों की ताकत का उदय, ड्राइविंग सीट पर हो, तब यह तूफान खड़ा कर सकता है. लोभ, भोग और भ्रष्टाचार की इस बाढ़, भूख और आग को सबको मिल कर एक साथ रोकना होगा, नहीं तो एक-एक कर सभी जलेंगे. कोई अकेले इसे आज रोकने की स्थिति में नहीं है. लोहिया मरे,तो दो जोड़ी कुर्ता, धोती और एक टूटा सूटकेस था.
यही जर्मनी से पढ़ कर लौटे मौलिक चिंतक की कुल संपत्ति थी. जेपी, जो कुछ था, वह भी बांट चुके थे. मित्रों के भरोसे जीवन चलता था. जवाहरलालजी भी प्रधानमंत्री रहे. पर उनके पत्रों को पढ़िए, वह राजीव गांधी की मदद नहीं कर सके. राजीव, लंदन में पढ़ते थे. जवाहरलालजी ने लिखा, खुद खटो, कमाओ और पढ़ो. मेरे पास पैसे नहीं. राजीव गांधी ने क्लीनर का काम किया. गुजारा के लिए. रफी अहमद किदवई लंबे समय तक केंद में मंत्री रहे. मरे, तो बेगम गांव लौट गयीं. अपनी टूटी झोपड़ी में. पासबुक में 24 रुपये थे. दीनदयाल उपाध्याय की भी यही स्थिति थी. हत्या हुई, तो एक अदद धोती और टूटहा बैग साथ था. कम्युनिस्ट भी अत्यंत सादगी से रहते थे. आरएसएस के बड़े नेता भी जीवन में सादगी और शुचिता के साथ जीते थे.
क्या कारण था कि धुर वाम से धुर दक्षिण तक की जीवन पद्धति में सादगी और ईमानदारी थी, तप और त्याग था? यह गांधी का युग था.
यह मानस भारतीय संस्कारों को मानता था. इस मानस में धन कमाना वर्जित नहीं है. चार पुरूषार्थों में एक धन कमाना भी है. आज की आत्मकेंद्रित होती दुनिया में धन होना और भी आवश्यक हो गया है. पर वह धन आये कैसे? ऋग्वेद मानता है- स्वार्थपूर्ण धन संग्रह विपत्ति का कारण है.
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता : सत्यं ब्रवीमि वध इत् सतस्य/ नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलाद
अर्थात मैं सत्य कहता हूं कि स्वार्थ के लिए अन्न-संग्रह (धनसंग्रह) मनुष्य के लिए कठिनाई (विपत्ति) का कारण होता है
वृहदारण्य उपनिषद ने तो स्पष्ट कहा कि धन से अमृतत्व (अमरता) प्राप्त होने की आशा ही नहीं है. ‘अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन’. बेन जानसन ने भी कहा था, धन ने किसी को सचमुच धनी नहीं बनाया, बल्कि उसके मानसिक विकास ने ही सच्चा धनी बनाया है (मनी नेवर मेड एनी मैन रिच बट हिज माइंड-बेन जानसन).
शोषणपूर्ण एवं स्वार्थपूर्ण धनसंग्रह से जीवन के लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती है. इसी आशय से महात्मा ईसा ने कहा था, सुई की नोक में से ऊं ट का गुजरना संभव हो सकता है, किंतु धनिक स्वर्ग में नहीं घुस सकता है. यह परिग्रह पर कुठाराघात है.
महाभारत में विदुर कहते हैं-
अदत्वा परसंतापं, अगत्वा खलमंदिरम्
अनुल्लंध्य सतां वर्त्म, यदल्पमपि तद् बहु
अर्थात किसी अन्य को न सता कर, किसी दुष्ट के घर न जाकर, सज्जनों के मार्ग का उल्लंघन न करके, अर्थात नेकी से कमाये हुए, थोड़े से धन को भी बहुत (पर्याप्त) समझना चाहिए.
(जीवन और सुख : शिवानंद से साभार)
आज धन जमा करने की यह भूख बेलगाम है. न कानून का भय. न सामाजिक बंधन है. न पुराने भारतीय संस्कार रहे. समाज भूल रहा है कि सब मरणधर्मा है. कोई संपत्ति साथ नहीं जानेवाली.
कठोपनिषद् का प्रसंग है-
बालक नचिकेता यम से वर मांगता है. यम कहते हैं तीसरा वर मांगो. नचिकेता कहता है-
हे यम तृतीय वर मांगूं मैं, जिज्ञासा है, मरणोत्तर क्या?
इस मनुज रूप का क्या होता, दो समाधान बचता है क्या?…
यम बरजते हैं. कहते हैं, यह सूक्ष्म विषय है, कुछ और मांगो. पर नचिकेता अडिग है. अटल है. उसका यही सवाल है,
मरणोत्तर क्या हे मृत्यु बता, मेरी इतनी ही अभिलाषा.
पर यम कहते हैं,
गज अश्व स्वर्ग पशु भू ले ले, वे पुत्र-पौत्र ले जो शतायु
संपदा मांग हे नाचिकेत, जब तक जीना हो मांग आयु .
हे नाचिकेत भू-खंड राज्य, धन-धान्य दीर्घ जीवन ले लो
इस वर के बदले जो चाहो, कामना पूर्ति का वर ले लो.
रथ वाद्य सहित ये कामिनियां, दुष्प्राप्य कामना अभिलाषा
देता हूं तुझे भोग करने, बस छोड़ मृत्यु की जिज्ञासा .
(उपनिष्दगीत गीतासुगीता-लेखक भवेशनाथ पाठक. श्री पाठक ऋषि परंपरा के लेखक हैं. उनकी किताबें अदभुत हैं. हर इंसान को पढ़नी चाहिए)
पर नचिकेता अडिग है. यम उसे सब दे रहे हैं. वैसी अलभ्य, दुर्लभ्य सुंदरियां, जो मनुष्य के लिए दुष्प्राप्य हैं. अपार धन, सुख, लंबी उम्र, दीर्घायु पुत्र-पौत्र आदि. कामिनियों की लंबी फौज. पर नचिकेता कहता है, ये सभी सुख क्षणभंगुर हैं. हे यम, ये सब अपने पास रखिए. ऐसे ही सवाल बुद्ध के भी मन में गूंजे होंगे. वृद्ध को देख कर. बीमार को देख कर. मरे को देख कर. राजपुत्र बुद्ध ने परिव्रज्या (गृहत्याग) की. महाभिनिषिक्रमण. उनकी कृति, संदेश दिग-दिगंत फैला.
यही संस्कार, यही मानस यही मूल्य भारत का रहा. इसी मूल्य पर भारत की राजनीति खड़ी-बढ़ी. विनोबा इसी कड़ी के ऋषि थे. इन सबका नैतिक असर समाज और राजनीति पर था. स्कूल के अध्यापक नैतिक पुंज होते थे. आस्था के केंद्र.
संयुक्त परिवार का गार्जियन (अभिभावक), सबके लिए जीने का संदेश देता था. बड़े-छोटे का रिश्ता था. बूढ़े, अनादर के पात्र नहीं थे. न अयाचित. वे श्रद्धा-शिक्षा के केंद्र थे. तब समाज और राजनीति में नैतिक प्रहरी मौजूद थे. प्रेरणा और उत्कृष्ट जीवन के जीवंत मॉडल थे. आज कहां भटक रहा है, यह समाज?
कुछ वर्षों पहले सुना. योगदा मठ के स्वामी विश्वानंद से. अवसर था, महर्षि योगदानंद की बहुचर्चित पुस्तक ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ का लोकार्पण. योगदा आश्रम में. झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल मुख्य अतिथि थे. देश-दुनिया के आये लोग मौजूद थे.
विश्वानंद जी मूलत: अमेरिकी हैं. अमेरिका से ही आये थे. वहीं रहते हैं. वह बोले अंग्रेजी में ही. उनकी बातों में अदभुत मर्म था. उन्होंने कहा, आज दुनिया इतनी बेचैन क्यों है? तनाव क्यों है? आतंकवाद क्यों है? वगैरह-वगैरह. इन सबकी जड़ में पश्चिम का भौतिक विकास मॉडल है. पश्चिम इस संकट से उबरने के लिए पूरब की ओर देखता है. पूरब से उनका आशय भारत से था. बहुत पहले गांधी के जमाने में महान इतिहासकार, प्रो अर्नाल्ड टायनबी ने भी लिखा, भारत की आजादी से पश्चिम को नयी रोशनी मिलेगी.
भौतिक ग्रस्त सभ्यता को पूरब से ही नये विचार और जीवनमूल्य मिलेंगे. पर कहां खो गये भारत के वे मूल्य, जिनमें पश्चिम को नयी रोशनी दिखाई देती थी. जिसकी चर्चा टायनबी ने की या योगी विश्वानंदजी ने. डॉ लोहिया ने बहुत पहले कहा था, राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति. जयप्रकाश नारायण ने जब मार्क्‍सवाद छोड़ा, तो उनके मन में कई नैतिक सवाल उठे थे. यह राजनीति किधर जा रही थी. अच्छाई क्या है? अच्छा बनने की प्रेरणा कहां से मिलती है? इसको भारत के ही एक मनीषी राजनेता ने बहुत पहले देख लिया था.
राजाजी या राजगोपालाचारी ने. 1922 में उन्होंने जेल डायरी में लिखा, जैसे ही हमें आजादी मिलेगी, चुनाव और भ्रष्टाचार, सत्ता और धन का अहं और प्रशासन की इनइफीसियेंसी (अकुशलता) जीवन को नरक बना देंगे. लोग पश्चाताप करते हुए अतीत को याद करेंगे. पुराने दिनों की तुलनात्मक न्यायपूर्ण व्यवस्था, इफिसियेंट सिस्टम (प्रभावकारी व्यवस्था) शांति और कमोबेश ईमानदार प्रशासन को याद करेंगे. (आशय अंगरेजी राज को बेहतर कहने से है). एक ही उपलब्धि (तात्पर्य आजादी मिलने से) होगी. एक कौम अपमान-अनादर से बचेगी. अधीन होने से बचेगी.
कितने दूरदर्शी और महान थे ये नेता, जिन्होंने भारत का भविष्य 1922 में पढ़ लिया था. खुद तौल लीजिए आज के राजनेताओं की दृष्टि और विजन से. उनमें देवत्व था, तो आज के अधिसंख्य राजनेताओं में क्या है? खुद जज करें. मैं, मेरा परिवार और मेरे नाते-रिश्तेदार. बहुत बढ़ेंगे, तो बात जाति की करेंगे. सिर्फ ठगने के लिए. अपनी ही जाति के गरीबों से कोई धर-छुआव नहीं. चुनाव भर ऐसे नेता जाति की दुहाई देंगे, सत्ता में आते ही अपने भोग की दुनिया में सिमट जायेंगे.
राजनीति भोग की आग में दहक रही है. सारे दल इसी में डूब-उतर रहे हैं. विद्यार्थी था, तो राजनेताओं से सुना. ‘मैन इज पॉलिटिकल एनीमल’ (मनुष्य राजनीतिक पशु है). आज इस फ्रेज से लगता है, राजनीति हट गयी है? बचपन में बतलाया गया था. इंसान और पशु में क्या फर्क है?
विवेक, अच्छा-बुरा समझना, दया, धर्म, ममता वगैरह यही न? पर पैसे की भूख ने सब सोख लिया है. पहले गांव के स्कूलों में सुना. उपदेश. नैतिक पाठ. गीता, उपनिषद, रामायण, महाभारत, बाइबल, कुरान वगैरह के अंश. समझ नहीं थी. पर अच्छी बातें सुहाती थी. आज स्कूलों में एसएमएस की शिक्षा मिलती है. अश्लील तसवीरों-संदेशों का आदान-प्रदान बचपन से.
कच्ची उम्र में. अधिक पैसे कमाने का पाठ. बुनियाद से ही. ब्रांडेड चीजों का जमाना है. बाजार के विचार-संस्कृति का दौर. चंद्रशेखरजी अक्सर कहा करते थे कि बाजार और करूणा में रिश्ता नहीं होता. यह करूणाविहीन समाज उभर रहा है. पैसों से, भोग से ऐहिक-दैहिक सुख-आनंद पाने के लिए बेचैन. भोग, हवस, तृष्णा, लालसा की आग में झुलसता. यहां न चोरी करने पर शर्म है, न बड़ा से बड़ा अपराध करने पर पश्चाताप. न देशद्रोही होने का अपराध बोध. यह ग्लोबल विलेज का दौर है. समाज अब तपस्वियों-त्यागियों के पीछे नहीं भागता. अब अनीतिकार व पापी भी पूज्य हैं, बर्शते धनवान हों.
क्या कारण था कि गांधी की प्रार्थना सभाओं में जाकर इंसान पवित्र होता था. बुद्धि, विचार और संस्कारों में निर्मल होता था. उसमें नहाता था. सांसारिक मैल धोता था. कैसे बादशाह खां जैसे महान लोग तब थे? कैसे तब ऐसे लोग थे, आज नहीं?
प्रो. सीएन वकील, देश के बड़े अर्थशास्त्री हुए. लंदन स्कूल आफ इकानॉमिक्स में पढ़े. उन्होंने कहा, अर्थशास्त्र ऐसा विषय है, जो सबको छूता है. स्पर्श करता है. सबको उसकी समझ जरूरी है.
पर धर्म से नैतिक और मूल्यगत पाठ न सीखना या अपनी सभ्यता और संस्कृति को न जानना, गंभीर संकट खड़ा करता है.
आज समाज, देश, राजनीति, परिवार और इंसान, अर्थशास्त्र तो समझ रहे हैं. पहले से अच्छी तरह. पर अन्य चीजें भूल गये हैं. अब नैतिक होना, मूल्यों की बात करना, पुरातनपंथी है. बुजुर्आपना है. आधुनिकता विरोधी है. धर्म और धर्मग्रंथ, अब सिर्फ सांप्रदायिक अथा में चर्चित होते हैं.
आइंसटीन ने कहा था कि अगर मनुष्य और मानवता को बचना है, तो हमें मौलिक ढंग से सोचना होगा. क्या आज रहनुमाई करनेवाला कोई दल, नये विचार, सोच-समझ में सक्षम है? मारकस अरेलियस ने बहुत पहले कहा, अतीत को देखो, न जाने कितनी सभ्यताएं और संस्कृतियां इसमें दफन हो गयीं. बड़े-बड़े साम्राज्य हुए, जिनकी गूंज दुनिया के कोने-कोने में हुई, पर वे राख की तरह मिट गये और गायब हो गये. इसी तरह हम अपना भविष्य भी आंक सकते हैं. अगर हम नयी राह नहीं चले.
नहीं जानता, यह कहना, लिखना, बोलना लोगों को सुहाता है या नहीं, क्योंकि ये बातें अप्रिय हैं. कटु हैं. धारा के विपरीत हैं. एक ऐंग्लिकन बिशप की कही बात बार-बार याद आती है. 11वीं शताब्दी में कही बात. उन्होंने कहा, जब मैं युवा और आजाद था, मैंने दुनिया बदलने का सपना पाला. वयस्क हुआ तो पाया कि संसार नहीं बदल सकता. तय किया अपना ही देश बदलूंगा. कुछ प्रयासों के बाद समझा, यह भी असंभव है. यह प्रयास छोड़ दिया. जीवन का अंतिम पड़ाव था.
तब लगा कि अपना परिवार ही बदल दूंगा. लेकिन पाया कि मेरे प्रयासों के बाद भी वे वैसे ही हैं, जैसे तब थे. अब मृत्युशय्या पर हूं. अब मेरा मानना है कि मेरा मिशन ही गलत था. मेरा मिशन होना चाहिए था, खुद को बदलना. अगर मैं खुद को बदल पाता, तो शायद अपने परिवार को भी बदल पाने में कामयाब होता. तब अगर थोड़ा भाग्य साथ देता, तो देश को भी बदलने में सफलता मिलती. पर कौन जानता है, तब शायद दुनिया भी इस बदलाव से सीखती-समझती.
उपनिषदों में मान्यता है, आत्मदीपो भव:. हम खुद ही अपने लिए प्रकाश बनें. समाज, राजनीति की बातों को करते हुए ऐसे संशय मन में उभरते हैं. कौन सुनता है, धारा के खिलाफ की बातों को? यह तो सत्ता सुख, इंद्रिय सुख, धन सुख, अहं सुख की स्पर्धा में पड़ी दुनिया है. कोई किसी की सुनता नहीं. फिर भी अपना धर्म है कहना, सो कहा. बुरा लगे, बातें अटपटी लगे, तो आपसे भी क्षमा.
(इस लंबे लेख का एक बड़ा अंश, खुद मेरे द्वारा लिखे गये एक दूसरे लंबे लेख ‘कितना धन चाहिए’ से उद्धृत है)
दिनांक 07.10.2012

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