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-हरिवंश- इन दिनों कहीं आपने ऐसी बातें सुनी हैं, जिनमें भारतीयता की चर्चा हो? भारत को सुदृढ़, समृद्ध और ताकतवर बनाने का सपना हो? संसद से विधानसभाओं तक, राष्ट्रीय दल के नेताओं से लेकर उभरे छत्रपों की बातों में? जाति-उपजाति, धर्म, क्षेत्र और अपनी-अपनी पहचान-अस्मिता की राजनीति हो रही है? श्रीलंका के खिलाफ भारत का […]

-हरिवंश-

इन दिनों कहीं आपने ऐसी बातें सुनी हैं, जिनमें भारतीयता की चर्चा हो? भारत को सुदृढ़, समृद्ध और ताकतवर बनाने का सपना हो? संसद से विधानसभाओं तक, राष्ट्रीय दल के नेताओं से लेकर उभरे छत्रपों की बातों में? जाति-उपजाति, धर्म, क्षेत्र और अपनी-अपनी पहचान-अस्मिता की राजनीति हो रही है?
श्रीलंका के खिलाफ भारत का प्रस्ताव दुनिया ने देखा. बेअंत सिंह के हत्यारे की फांसी का मसला जैसे उठा व रुका, उससे क्या संदेश निकला? बलवंत सिंह राजोआना (जिन पर पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या का आरोप है) ने कभी दया याचिका (मर्सीपिटीशन) नहीं दी. जेल ने दो-दो बार पंजाब हाइकोर्ट के फैसले को लौटाया. क्या कानूनन जेल ऐसा कर सकता है? अंत में लोक दबाव पर केंद्र झुका. फिर उच्चतम न्यायालय ने नाराजगी व्यक्त की.
यह स्थिति क्यों उत्पन्न होने दी गयी? कल कश्मीर में अफजल गुरु के प्रसंग पर ऐसा ही दबाव खड़ा होगा, तब भारत सरकार का क्या रुख होगा? हमारा यह नहीं मानना है कि किसको फांसी हो, न हो. बल्कि मूल सवाल है कि यह देश किसी कानून से चलेगा या समूहों के दबाव और जुबान कानून होंगे?
आज ममता बनर्जी कहतीं हैं कि केंद्र सरकार विभिन्न टैक्सों वगैरह के स्रोत से बंगाल से 22-23 हजार करोड़ से अधिक पैसे ले जाती है. पर हमें क्या लौटाती है? यही सवाल महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में भी उठते रहे हैं. बहुत पहले से. फिर उठ रहे हैं. क्या केंद्र कोई विदेशी शासन है या अपना है?
यह सही है कि केंद्र की नीतियों में विसंगति है. एक दिल्ली या एक मुंबई के म्युनिशिपल कारपोरेशन का बजट, कई राज्यों के बराबर है. कुछेक वर्ष पहले तो बिहार, झारखंड और बंगाल जैसे राज्यों से इन म्युनिशिपल कारपोरेशनों के बजट कई गुना अधिक होते थे. केंद्र को आर्थिक विषमता के ऐसे सवालों को जरूर हल करना चाहिए. खुद पहल कर. पर विभिन्न राज्य और उनके राजनेता जिस तरह से आचरण कर रहे हैं, उससे तो एक नया खतरा पैदा हो गया है. एनसीटीसी (नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर) को लेकर राजनीति हो रही है. आतंकवाद आज छद्म भेष में किसी देश पर बाहरी हमले का उपनाम है.
यह बाहरी हमले से ज्यादा देशतोड़क और खतरनाक है. जब आतंकवादी हमले होते हैं, तो सारे छत्रप केंद्र को भला-बुरा कहते हैं. एक स्वर में. पर केंद्र इसे रोकने की पहल करता है, तो दर्जनों सरकारें इसके खिलाफ खड़ी होती हैं. क्या देश ऐसे चलता है? यह रिसपांसिबुल राजनीति है? फिर रेलवे सुरक्षा बल अधिनियम (आरपीएफ एक्ट) पर बवाल उठा. इसका भी विरोध हुआ. नरेंद्र मोदी को लगता है कि उनसे पूछ कर देश में हर कानून बने. भारतीय इस्पात मंत्रालय ने 2011 में चार स्टील प्लांट लगाने का प्रस्ताव दिया था.
पर ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक की सरकारों ने जवाब तक नहीं दिया. और ये सरकारें कहेंगी कि विकास के लिए केंद्र कोई पहल नहीं करता. इस बार संसद सत्र शुरू होने के पहले सरकार की सहयोगी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने संघीय ढांचा को बड़ा मुद्दा बनाया. कई मुद्दों को उठा कर. लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार द्वारा बुलायी गयी बैठक में, अन्नाद्रमुक, समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने संघीय ढांचे पर केंद्र के प्रहार की बात उठायी.
मशहूर चिंतक और समाजवादी राजनेता मधु लिमये ने लिखा था, 1984-85 के आसपास. ‘लगभग 2500 वर्षों के ज्ञात इतिहास में भारत में स्थिर केंद्रीय शासन के चार संक्षिप्त युग रहे हैं – मौर्य काल, मुगल काल, ब्रिटिश काल और आजादी के बाद के चालीस से कम वर्ष. इसमें पहला और अंतिम शासन ही देश की धरती से निकले थे. तीसरा पूरी तरह विदेशी था और दूसरा शुरू में विदेशी था लेकिन तीन पीढ़ियों के बाद देशी बनने लगा था.
इन 600 सालों को छोड़ कर शेष 1900 सालों में भारत आपस में लड़ते राजाओं और क्षेत्रीय शक्तियों का देश रहा. हाल की घटनाएं चिंतित करनेवाली हैं. क्या एकीकृत शासन का चौथा दौर सबसे छोटा सिद्ध होगा?’
क्या इस तरह नौटंकी से देश चलता है? आज भारतीय संघ को मजबूत किये बिना भारत की कल्पना सही है? क्या भारतीयता का सपना कहीं किसी दल के राष्ट्रीय एजेंडा में है?
इंदिरा गांधी की याद
देश की मौजूदा स्थिति को देख कर श्रीमती इंदिरा गांधी की स्मृति उभरी. हमारी पीढ़ी, श्रीमती गांधी के विरोध की राजनीति के मानस के साथ पली, पनपी और बढ़ी. याद है, मधु लिमये से चर्चा और इंदिरा जी पर लिखे उनके संस्मरण. इंदिरा जी के सबसे कटु आलोचक रहे मधु लिमये ने श्रीमती गांधी की सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि लिखी. उनके न रहने पर. मधु लिमये का मानना था कि केंद्र को मजबूत और ताकतवर रखे बगैर भारत बिखर जायेगा.
उनकी दृष्टि में श्रीमती गांधी ने संघ को मजबूत करने का काम बगैर समझौता किया. श्रीमती गांधी के जमाने की ही घटना है. 6 फरवरी 1984 को जम्मू-कश्मीर मुक्ति संगठन के लोगों ने भारतीय राजनयिक रवींद्र महात्रे को बंधक बना लिया. ब्रिटेन में. उनकी मांग थी, मकबूल भट्ट को छोड़ा जाये. मकबूल भट्ट को 1968 में फांसी हो गयी थी.
पर जेल में सुरंग बना कर वह पाकिस्तान भाग निकला. 1971 में मकबूल भट्ट ने एक भारतीय यात्री जहाज को अगवा कर पाकिस्तान ले जाने का षड्यंत्र बनाया. भारतीय यात्री जहाज का अपहरण भी हुआ, तब पाकिस्तानी अधिकारियों ने भट्ट को पकड़ा. बाद में रिहा कर दिया. भट्ट भूमिगत होकर फिर कश्मीर आ गये. पकड़े गये. जेकेएलएफ (जम्मू-कश्मीर मुक्ति बल) ने भारतीय राजनयिक रवींद्र महात्रे को ब्रिटेन में पकड़ा और भट्ट की रिहाई की मांग की.
भट्ट के पुराने गुनाहों के लिए फांसी की सजा 1968 में ही सुनायी जा चुकी थी. उनकी दया याचिका राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के यहां लंबित थी. भारतीय राजनयिक मार डाले गये, पर भट्ट को फरवरी 11, 1984 में फांसी की सजा दे दी गयी. कोई भी मुल्क भावना से ऊपर नियम, कानून और अनुशासन से ही चलता है. संभव हो, यह नियम, कानून और अनुशासन, निजी अलग-अलग समूहों को या व्यक्तियों को न सुहाये. पर राजधर्म तो अलग होता है. उस पर चले बिना राज (देश) नहीं टिकता.
सेनाध्यक्ष विवाद
पिछले एक साल में वे संस्थाएं, जो देश का भविष्य गढ़ती रही हैं, जो देश की एकता, शान, ताकत और भारतीय संघ के प्रताप का प्रतिबिंब हैं, वैसी संस्थाएं एक-एक कर अब राजनीतिक विवादों में शामिल हो गयी हैं. क्या यह देश को कमजोर करने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है? सेना और इसरो जैसी संस्थाएं, किसी भी मुल्क में राजनीति से दूर रखी जाती हैं.
पर मौजूदा केंद्र सरकार इतनी लाचार, असहाय और दिगभ्रमित है कि उसने ऐसी पवित्र संस्थाओं को भी पतन और विवाद का केंद्र बन जाने दिया. मीडिया की गैर जिम्मेदारी की भी पराकाष्ठा है. कुछ चीजें तो आरटीआइ या कुछ भी छाप देनेवाली संस्कृति से अलग होनी चाहिए. सेनाध्यक्ष, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री के बीच के पत्र लीक होते हैं.
फिर बचा क्या? मीडिया में पत्र छापने से पहले कोई यह सोचता है कि इन पत्रों का देश के मनोबल पर क्या असर पड़ेगा? अंतरराष्ट्रीय मोर्चों पर भारत की स्थिति पर क्या असर होगा? सेनाध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे एक पत्र में भारतीय सेना और हथियारों की बदहाली का वर्णन है. यह पत्र सार्वजनिक होने के पहले किसी ने गौर किया कि छाप कर वह भारत को बचा रहा है या भारत को तोड़ रहा है? अगर सेनाध्यक्ष दोषी हैं, तो उन पर जरूर कार्रवाई हो.
पर सेनाध्यक्ष के पत्रों में जो भारतीय सेना की बदहाली के ब्योरे हैं, अगर वे सही हैं, तो यह स्थिति पैदा करनेवाली व्यवस्था या सरकार, भारत की असली दुश्मन नजर आती है. किसने ऐसे हालात बनने दिये कि भारतीय सेना इस खस्ता हाल में पहुंच जाये? अफसर से लेकर मंत्री और प्रधानमंत्री तक ने इसपर क्या कदम उठाये हैं, अब यह देश की जनता को जानना ही चाहिए?
रक्षा सौदों में दलाली का मामला लगातार गंभीर और अनियंत्रित हो गया है. ऐसा लग रहा है कि सेना में पहले से काम कर रहे और भविष्य में कमान संभालनेवाले सब शक के घेरे में हो. यह धारणा गलत है. सेना में गलत करनेवाले अपवाद हैं.
यह माहौल बनना देश के लिए सबसे घातक है. सेना के बड़े अधिकारियों के नाम उछले हैं. भूतपूर्व सेनाधिकारियों के नाम उछले हैं. हथियारों की दलाली करनेवालों के नाम उछले हैं. और तो और पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के पुत्र ने भी यह घोषणा कर दी है कि उनके पिता प्रधानमंत्री थे, तो उन्हें भी रक्षा सौदों में दलाली की पेशकश की गयी थी. एक तरफ यह सरकार कहती है कि हम घोटालों पर, भ्रष्टाचार पर, दलाली पर अंकुश लगा रहे हैं. दूसरी ओर यह अनियंत्रित भूचाल बन रहा है.
फिर अन्ना जैसे लोग या बाबा रामदेव जैसे लोग गलत कहां हैं और कैसे हैं? सेनाध्यक्ष जब विवाद के केंद्र बन रहे थे, तो सरकार ने क्या किया? वाजपेयी जी के दौर में नौसेनाध्यक्ष विष्णु भागवत को लेकर विवाद उठा. तुरंत उन्हें बरखास्त किया गया. अगर श्री सिंह दोषी हैं, तो सरकार क्यों चुप रही? दरअसल मिल रही सूचनाओं के अनुसार श्री सिंह अत्यंत ईमानदार और श्रेष्ठ अफसरों में से हैं. उन्होंने सेना की बदहाली के जो सवाल उठाये हैं, वह सरकारी अकर्मण्यता की देन हैं. इसलिए सरकार खामोश है.
कुछ मुट्ठी में संपत्ति
एक बिजनेस अखबार में छपी खबर के अनुसार भारत में महज 8200 लोगों के पास देश की 70 फीसदी संपत्ति है. भले ही दुनिया की अर्थव्यवस्था में संकट हो, पर भारत में अमीरों की संख्या बढ़ रही है. अंतरराष्ट्रीय वेल्थ इनटेलीजेंस कंपनी वेल्थएक्स ने वर्ल्ड अल्ट्रावेल्थ रिपोर्ट जारी की है. इसके अनुसार भारत में इन दिनों अल्ट्राहाइ नेटवर्थवालों या बड़े अमीरों की संख्या 8200 है.
इनकी कुल संपत्ति 945 अरब डालर (लगभग 37300 अरब रुपये) हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में अमीरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. क्योंकि यहां रोज ही करोड़पति बन रहे हैं. बहुत कम समय में अमीर बननेवाले लोग भारत में ही हैं. इस अध्ययन के अनुसार 6150 भारतीयों के पास तीन करोड़ से दस करोड़ डालर तक की संपत्ति है. दस करोड़ से बीस करोड़ डालर की संपत्तिवाले तकरीबन 900 हैं.
लगभग 380 भारतीय ऐसे हैं, जिनकी संपत्ति बीस करोड़ से पचास करोड़ डालर के बीच है. इनके अतिरिक्त 160 ऐसे लोग हैं, जिनके पास 50 करोड़ से 99.99 करोड़ डॉलर की संपत्ति है. याद करिए, मशहूर पत्रिका फोर्ब्स ने पिछले दिनों अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि भ्रष्टाचार के मामलों के उजागर होने और महंगाई की वजह से इस साल भारत में अरबपतियों की संख्या एक दर्जन घटी है.यानी अब 57 रह गयी है.
इससे साफ है कि भारत में अरबपतियों-खरबपतियों और भारतीय भ्रष्टाचार के बीच कैसा रिश्ता है? भ्रष्टाचार बढ़ता है, तो अरबपतियों-खरबपतियों के बढ़ने की संख्या तेज होती है. जब भ्रष्टाचार के बड़े मामले पकड़े जाते हैं, तब अरबपति-खरबपति होनेवालों की संख्या घटने लगती है.
ऐसी स्थिति के बावजूद भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना देश की पहली प्राथमिकता नहीं है? इन तथ्यों से साफ है कि मामला चाहे संघीय एकता का हो या हथियारों की दलाली का हो या अमीरों की बढ़ती संख्या का हो. सब जगह के मूल में भ्रष्टाचार एक बड़ा सवाल है.
अगर भारत को मजबूत और ताकतवर बनना है, राजनीति को सुधारना है, तो यह वक्त है, जब सारे दलों को मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान करना चाहिए. भारतीयता को बचाने के लिए और भारत की एकता मजबूत करने के लिए. अन्ना जी या रामदेव बाबा के हाथों में यह मुद्दा थमा कर भारतीय राजनीति अपना बड़ा नुकसान कर रही है.
दिनांक : 01.04.2012

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