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‘न खाने दूंगा’ के वादे का क्या हुआ!

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार भ्रष्टाचार के एक कृत्य से जो कुछ भ्रष्ट होता है, वह पद है. यही इस शब्द का सच्चा अर्थ है. एक केंद्रीय मंत्री और एक मुख्यमंत्री पर अपने पदों को भ्रष्ट करने के आरोप लगे हैं. यदि प्रधानमंत्री उन्हें वहां बने रहने देते हैं, तो वस्तुत: वे अपना वादा तोड़ चुके […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
भ्रष्टाचार के एक कृत्य से जो कुछ भ्रष्ट होता है, वह पद है. यही इस शब्द का सच्चा अर्थ है. एक केंद्रीय मंत्री और एक मुख्यमंत्री पर अपने पदों को भ्रष्ट करने के आरोप लगे हैं. यदि प्रधानमंत्री उन्हें वहां बने रहने देते हैं, तो वस्तुत: वे अपना वादा तोड़ चुके होंगे.
पिछले साल संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के अभियान के दौरान ‘भ्रष्टाचार’ बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा था. उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी जीत और कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय में देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल की बड़ी भूमिका रही थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तब अपने चुनावी अभियान में सवा करोड़ देशवासियों से वादा किया था कि ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’, यानी न तो वे व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट होंगे और न ही अपने आसपास के लोगों को भ्रष्ट होने देंगे. भ्रष्टाचार के संदर्भ में उनकी व्यक्तिगत निष्ठा में मुङो रंचमात्र भी संदेह नहीं है. मैं उन्हें एक लंबे अरसे से व्यक्तिगत रूप से जानता रहा हूं और मैं नहीं समझता कि वे एक वैसे व्यक्ति हैं, जो किसी भी नियम को शिथिल करने या उसे तोड़ देने अथवा किसी किस्म का पक्षपात करने के बदले स्वयं के लिए धन स्वीकार करेंगे.
लेकिन, यही बात मैं अतीत के कुछ दूसरे प्रधानमंत्रियों के लिए भी कह सकता हूं. मसलन, मैं नहीं समझता कि मनमोहन सिंह भ्रष्ट थे और उनके विरुद्ध एक न्यायिक मामला होने के बावजूद, उनके विरोधी भी यह यकीन नहीं करते कि वे ईमानदार होने के अलावा और कुछ हैं. और जहां तक मैं जानता हूं, अटल बिहारी वाजपेयी या इंद्र कुमार गुजराल, या फिर अगर और पीछे जायें, तो पंडित जवाहर लाल नेहरू अथवा गुलजारी लाल नंदा पर भी व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं लगे. उस अर्थ में ये सभी व्यक्ति संदेह से परे थे.
इसलिए नरेंद्र मोदी का ‘न खाऊंगा’ का दावा सच दिखने के बाद भी उतना अर्थपूर्ण नहीं है, क्योंकि इसकी और भी मिसालें मौजूद हैं. अलबत्ता, उनका ‘न खाने दूंगा’ का वादा जरूर ज्यादा दिलचस्प है. इसके द्वारा वे हमसे यह कहते प्रतीत होते हैं कि वे दूसरों के व्यवहार नियंत्रित कर सकते हैं.
इस बात के दो पहलू हैं. पहला तो साफ तौर पर रोजाना के भ्रष्टाचार से संबद्ध है, यानी वह पैसा, जिसे किसी नागरिक से (ड्राइविंग लाइसेंस या जमीन के अभिलेख जैसी चीजों के लिए) वसूला जाता है अथवा जिसे कोई नागरिक और ज्यादा खर्चे या असुविधाओं से बचने के लिए सरकारी कर्मियों को स्वेच्छा से देता है. यह एक सांस्कृतिक स्थिति है और केवल कानून अथवा प्रशासनिक कदमों द्वारा इससे छुटकारा पाना असंभव नहीं, तो कठिन जरूर है. किसी प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा करना कि वह रोजाना के ऐसे भ्रष्टाचार से, जबकि वह न केवल भारत, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की संस्कृति में समा गया है, छुट्टी दिला सकेगा, वास्तविक नहीं होगा. ठीक इसी तरह, यह भी सच है कि किसी एक नेता द्वारा यह दावा करना उचित नहीं होगा कि वह अकेले इस तरह की चीजें खत्म कर सकेगा.
यहीं से हम ‘न खाने दूंगा’ के दूसरे पहलू पर आते हैं. हम यह मान लें कि नरेंद्र मोदी का यह मतलब था कि वे अपने मंत्रियों को भ्रष्ट नहीं होने देंगे. यह कहना उचित होगा कि उनके पूर्व के कई प्रधानमंत्री इस मामले में विफल हुए हैं. निश्चित रूप से अपने मंत्रिमंडल के कई सारे लोगों के कार्यकलाप पर मनमोहन सिंह का कोई नियंत्रण नहीं था और यहां तक कि वाजपेयी को भी इस मामले में संघर्ष करना पड़ा था. इन दोनों मामलों में परिस्थितियां नरेंद्र मोदी से भिन्न थीं, क्योंकि उन दोनों की अल्पमत सरकारें थीं और वे अपने घटकों को अनुशासित नहीं रख सकते थे. हालांकि, मैं यह भी मानता हूं कि यह कोई बहाना नहीं हो सकता. एक प्रधानमंत्री को अपनी टीम के गलत कारनामों पर काबू रखना ही चाहिए और जो भी प्रधानमंत्री ऐसा करने में विफल हो, उसके प्रति सम्मान रख पाना कठिन होता है.
तो किसी मंत्री के भ्रष्टाचार अथवा उसके आरोप के सामने आने पर नरेंद्र मोदी क्या करेंगे? इस माह उन्हें यह दिखा पाने का मौका मिला था और अब तक उन्होंने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया है. उन्होंने अपनी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के व्यवहार का न तो व्यक्तिगत रूप से बचाव किया है, न ही उन्होंने राष्ट्र के सामने यह स्पष्ट किया है कि उनके ‘न करने दूंगा’ के वादे का क्या हुआ.
मेरी राय में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तथा राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के कृत्यों (दोनों पर आइपीएल संस्थापक और भगोड़े ललित मोदी की सहायता के आरोप हैं) को मामूली कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है. किसी भी सभ्य लोकतंत्र में एक विदेश मंत्री और एक मुख्यमंत्री ऐसे कलंक के बाद बचा नहीं रह सका है. इन पर प्रत्यक्ष संलिप्तता, गुप्त पक्षपात, ललित मोदी के साथ (उन्हें देश से बाहर फरार कराने में) राज्य द्वारा किये गये दोरंगे व्यवहार के अलावा उनके साथ मंत्री द्वारा किये गये व्यवहार के गंभीर तथा अब तक अकाट्य रहे आरोप लगे हैं.
पक्षपात तथा पैसे का संजाल इतना गहरा तथा विस्तृत है कि उसे एक झूठ और मामूली बता कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सुषमा स्वराज का एक बचाव यह है कि चूंकि उन पर किये गये एहसान (ललित मोदी ने एक शानदार कॉलेज में उनके एक संबंधी को दाखिला दिलाने में मदद पहुंचायी तथा सुषमा स्वराज के पति ललित मोदी के व्यक्तिगत वकील हैं) के बदले कोई पैसे नहीं चुकाये गये, वे अपने पद पर बनी रहेंगी. इसलिए, यह दिखावा करते हुए कि भारत ललित मोदी को वापस लाने की संभावना तलाश रहा है, उन्हें गुप्त रूप से यात्रा की अनुमति देने का उनका कृत्य कोई गंभीर गलती न थी.
मेरा मत है कि इस पर उचित नजरिया यह होगा कि एक बार फिर प्रधानमंत्री के वादे पर वापस आया जाये. उन्होंने यह वचन दिया था कि उनके चतुर्दिक कोई भ्रष्टाचार नहीं होगा. किंतु, भ्रष्टाचार आखिर है क्या? हम प्राय: इसे रिश्वत के लिए लेते हैं और एक तरह से यह ऐसा है भी. मगर भ्रष्टाचार के एक कृत्य से जो कुछ भ्रष्ट होता है, वह पद है. यही इस शब्द का सच्चा अर्थ है. एक केंद्रीय मंत्री और एक मुख्यमंत्री पर अपने पदों को भ्रष्ट करने के आरोप लगे हैं.
यदि प्रधानमंत्री उन्हें वहां बने रहने देते हैं, तो वस्तुत: वे अपना वादा तोड़ चुके होंगे. यह देखते हुए कि व्यक्तिगत तौर पर एक निष्ठावान व्यक्ति तथा जो करना है, उसे ही कहनेवाले व्यक्ति के रूप में उनका कद अब भी काफी ऊंचा है, उनका ऐसा करना मुङो अचंभित करता है.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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