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समय की शिला पर गेरू से लिखे नवगीत

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार काव्यमंच पर वे किसी प्रकार की अनुशासनहीनता या गंदगी बरदाश्त नहीं कर पाते थे. काश यदि ऐसी दृढ़ता उस समय के अन्य अग्रणी गीतकारों ने दिखायी होती, तो कवि सम्मेलनों की आज ये दुर्दशा नहीं होती. हिंदी नवगीत के शीर्ष प्रवर्तक और उसे अपनी पूरी ऊर्जा से काव्यविधा के रूप […]

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
काव्यमंच पर वे किसी प्रकार की अनुशासनहीनता या गंदगी बरदाश्त नहीं कर पाते थे. काश यदि ऐसी दृढ़ता उस समय के अन्य अग्रणी गीतकारों ने दिखायी होती, तो कवि सम्मेलनों की आज ये दुर्दशा नहीं होती.
हिंदी नवगीत के शीर्ष प्रवर्तक और उसे अपनी पूरी ऊर्जा से काव्यविधा के रूप में स्थापित करनेवाले प्रगतिशील कवि डॉ शम्भुनाथ सिंह एक ऐसे जुझारू रचनाकार थे, जिन्होंने जीवनभर विपरीत परिस्थितियों से लोहा लिया और अपने दम पर हारी हुई बाजी को हमेशा जीत में बदल कर दिखाया.
वे परवर्ती पीढ़ियों के संरक्षक भी थे और सहभागी भी. वे एक साथ सृजन की कई दिशाओं पर राज करते थे. वे कवि थे, कहानीकार थे, समीक्षक थे, नाटककार थे, प्राध्यापक थे, पुरातत्वविद थे और आगे बढ़ कर हर किसी की मदद करनेवाले नेक इंसान थे. उनका स्मरण होते ही मन में एक ऐसे पारस की छवि उभरती है, जो लोहा को खोज-खोज कर अपने साहचर्य से सोना बनाता हो. उनका एक गीत काव्यमंचों पर बेहद लोकप्रिय था- समय की शिला पर मधुर चित्र कितने/ किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये. विकल सिंधु से साध के मेघ कितने/धरा ने उठाये, गगन ने गिराये.
एक और गीत था, जो लोकगीतों की प्रश्नोत्तर शैली में लिखा गया था और जिसे वे उन मंचों पर जरूर सुनाते थे, जो ग्रामीण शिक्षालयों में होते थे-‘टेर रही प्रिया, तुम कहां? किसकी यह छांह और किसके ये गीत रे/ बरगद की छांह और चैता के गीत रे.
सिहर रहा जिया, तुम कहां?’ उनके जिस गीत ने नया वैज्ञानिक गवाक्ष खोला, वह था ‘दिग्विजय’- बादल को बांहों में भर लो/ एक और अनहोनी कर लो. अंगों में बिजलियां लपेटो/ चरणों में दूरियां समेटो/ नभ को पदचापों से भर दो/ ओ दिग्विजयी मनु के बेटों! इंद्रधनुष कंधों पर धर लो/ एक और अनहोनी कर लो. उनका एक और गीत ‘अंतर्यात्रा ’ शीर्षक से है- टूट गये बंधन सब टूट गये घेरे/ और कहां तक ले जाओगे मन मेरे! छूट गयीं नीचे धरती की दीवारें/ आंगन के फूल बने, चांद और तारे/ घुल-मिल कर एक हुए रोशनी- अंधेरे/ और कहां तक ले जाओगे मन मेरे!
शम्भुनाथ जी का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद के रावतपार गांव में सन 1916 की ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी के दिन हुआ था. काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए और पीएचडी करने के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक पत्रकारिता भी की थी, मगर जल्द ही वे अपने रचना-कर्म के लिए अनुकूल अध्यापन-कार्य से जुड़ गये और काशी विद्यापीठ में व्याख्याता (1948-59), वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष (1959-70), फिर काशी विद्यापीठ में हिंदी विभागाध्यक्ष (1970-76) रहने के बाद पांच वर्षो तक (1975-80) विद्यापीठ के तुलसी संस्थान के निदेशक रहे.
सन 1936 से वे विधिवत लिखने लगे थे. 1941 में उनका पहला गीत संग्रह ‘रूप रश्मि’ प्रकाशित हुआ था और दूसरा संग्रह ‘छायालोक’ 1945 में. ये दोनों उनके पारंपरिक गीतों के संग्रह थे. इसके बाद वे नयी कविता के आकर्षण में आये, जिसकी उपज है- उदयाचल (1946), मन्वंतर (1948), माध्यम मैं और खंडित सेतु.
खंडित सेतु मात्र एक टूटा हुआ पुल नहीं था, बल्कि नयी कविता के पक्षधर समीक्षकों की गोलैसी के कारण मुक्तछंद कविता में अपनी पहचान न बना पाने के कारण शम्भुनाथ जी का खंडित विश्वास भी था, जिसने उन्हें फिर से गीतों की ओर मुड़ने को बाध्य किया. उसके बाद उनके दो नवगीत संग्रह ‘समय की शिला पर’ (1968) और ‘जहां दर्द नीला है’ (1977) प्रकाशित हुए, जिनमें उनके नये तेवर के गीत संकलित हैं.
परवर्ती काल में उनके दो और संग्रह आये-‘वक्त की मीनार पर’ (1986) और ‘माता भूमि: पुत्रोùहं पृथिव्या:’ (1991), जो हिंदी नवगीत के प्रतिमान बने. प्रारंभिक दौर में उनके दो कहानी संग्रह ‘रातरानी’ (1946) और ‘विद्रोह’ (1948) भी छपे थे, लेकिन कवि के अतिरिक्त जिस सर्जनात्मक विधा ने उन्हें विशेष प्रतिष्ठा दिलायी, वह थी नाट्य-विधा. उनके नव नाटक ‘धरती और आकाश’ (1950) और ‘अकेला शहर’ (1975) को हिंदी के प्रतिनिधि नाटकों में रखा जा सकता है. काशी की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘श्रीनाट्यम’ ने जब ‘अकेला शहर’ को मंचित किया, तो उसमें एक छोटी-सी भूमिका मेरी भी थी.
मूलत: हिंदी का छात्र न होने के कारण काशी के अन्य रचनाकारों की तरह शम्भुनाथ जी से भी मेरा कोई परिचय नहीं था. सन 1969 में अंगरेजी से एमए करने के बाद मैंने कविगोष्ठियों में जाना शुरू किया था और दो-एक कविगोष्ठी से ही मुझे वह प्रतिष्ठा मिल गयी थी, जो अन्य कवियों को वर्षो बाद भी नसीब नहीं होती. ऐसी ही एक मराठियों के गणोशोत्सव वाली गोष्ठी में शम्भुनाथ जी ने मेरा गीत ‘नाच गुजरिया नाच! कि आयी कजरारी बरसात री’ सुनी, तो मुझे बहुत प्यार से रिक्शे पर बैठा कर अपने घर ले गये और रास्ते भर मुझे पारंपरिक गीत और नवगीत में अंतर बताते हुए नवगीत लिखने के लिए प्रेरित करते रहे. इसके बाद मैं अक्सर उनके घर जाने लगा और उस परिवार के साथ घुलमिल गया. उनके बेटे और बेटियों से मेरी जो प्रगाढ़ आत्मीयता बन गयी थी, वह आज भी तरोताजा है.
उस परिवार से, मुझसे पूर्व श्रीकृष्ण तिवारी, उमाशंकर तिवारी और मेरे बाद सुरेश (व्यथित) भी जुड़े थे. उमाशंकर काशी विद्यापीठ के छात्र थे. एक बार उन्होंने उस मंच से एक गीत पढ़ा, जो फिल्मी धुन पर था. डॉक्टर साहब ने उसे रोक दिया. छात्रों ने हंगामा कर दिया, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए. काव्यमंच पर वे किसी प्रकार की अनुशासनहीनता या गंदगी बरदाश्त नहीं कर पाते थे. काश! यही दृढ़ता यदि उस समय के अन्य अग्रणी गीतकारों ने दिखायी होती, तो कवि सम्मेलनों की आज इतनी दुर्दशा नहीं होती.
धारा के विरुद्ध चलकर, नवगीत विधा को प्रतिष्ठित करने में उन्होंने जीवन के अंतिम चरण में जो अहर्निश संघर्ष किया, वह स्वतंत्रता सेनानी बाबू कुंवर सिंह के बलिदान की याद दिलाता है. 1980 के दशक में उन्होंने अ™ोय-संपादित ‘सप्तकों’ के जवाब में न केवल तीन खंडों में ‘नवगीत दशक’ निकाले, बल्कि हर खंड में लंबी भूमिका लिखकर नवगीत की परती जमीन को नयी फसल के लिए तैयार किया.
इतना ही नहीं, इन ‘दशकों’ के प्रचार-प्रसार के लिए नगर-नगर में उन्होंने अपने संबंधों का उपयोग करते हुए, ऐतिहासिक आयोजन भी किये, जिनमें दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के आवास पर हुई काव्यगोष्ठी चिरस्मरणीय है. सितंबर, 1991 में उनके निधन से नवगीत की वह विजय-यात्रा एक प्रकार से थम-सी गयी, क्योंकि उनके बाद रथ पर चढ़ने वाले तो सभी थे, मगर रथ में जुतने वाला कोई नहीं.
आज उनकी ही गीत-पंक्तियों से उन्हें नमन करता हूं- मैं वह पतझर, जिसके ऊपर से/धूल भरी आंधियां गुजर गयी/दिन का खंडहर जिसके माथे पर/अंधियारी सांझ-सी ठहर गयी/जीवन का साथ छूट रहा/पुरवैया धीरे बहो. मन का आकाश उड़ा जा रहा/पुरवैया धीरे बहो.

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