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व्यवस्था की उपज
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भ्रष्टाचार से संबंधित सवाल पर इसे एक सार्वभौम मामला कहा था. बाद में राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र सरकार का एक रुपया जनता तक पहुंचते-पहुंचते 15 पैसे रह जाता है. ये स्वीकारोक्तियां सिस्टम में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार के सामने पूर्व प्रधानमंत्रियों की लाचारी भी प्रदर्शित कर रही […]
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भ्रष्टाचार से संबंधित सवाल पर इसे एक सार्वभौम मामला कहा था. बाद में राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र सरकार का एक रुपया जनता तक पहुंचते-पहुंचते 15 पैसे रह जाता है. ये स्वीकारोक्तियां सिस्टम में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार के सामने पूर्व प्रधानमंत्रियों की लाचारी भी प्रदर्शित कर रही थीं. इंदिरा और राजीव युग के बाद कई सरकारें आयी-गयीं, दशक बदले, सदी भी बदल गयी, लेकिन राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य में भ्रष्टाचार की घुसपैठ आज भी मजबूती से दिख रही है.
इस समय देश में एक तरफ केंद्रीय विदेश मंत्री और राजस्थान के मुख्यमंत्री द्वारा विदेश भागे भ्रष्टाचार के आरोपित की गुपचुप तरीके से मदद करने और अवैध लेन-देन का मामला सुर्खियों में है, तो दूसरी ओर महाराष्ट्र के वरिष्ठ राजनेता तथा गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री छगन भुजबल की बड़े पैमाने पर की गयी अवैध कमाई भी चर्चा और जांच के दायरे में है. अपनी तरह के न तो ये पहले मामले हैं और न ही ऐसी कोई उम्मीद है कि आगे ऐसे प्रकरण नहीं होंगे. दुर्भाग्य की बात है कि लोकसेवक कहे जानेवाले उच्च पदस्थ राजनेताओं और नौकरशाहों की कॉरपोरेट घरानों तथा अपराधियों से सांठगांठ न सिर्फ लगातार बेपरदा हो रही है, बल्कि इसे राजनीति, प्रशासनिक कैरियर व व्यापार में सफलता की शर्त भी माना जाने लगा है.
राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाती हैं, लेकिन आज कोई दल ऐसा नहीं है, जो अपनी छवि के पूरी तरह बेदाग होने का दावा कर सके. यह स्थिति तब है, जबकि कुछ सालों से देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ चले विभिन्न आंदोलनों ने इस विषय को विमर्श के केंद्र में ला दिया है. इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार हर चुनाव में मुद्दा बनता है और कई बार इसी आधार पर हार-जीत का फैसला भी हुआ है.
केंद्र की मौजूदा सरकार पिछली सरकार की भ्रष्ट छवि को भुना कर ही सत्ता में आयी है, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई ऐसा माहौल अभी नहीं बन पाया है, जो यह भरोसा दे कि भ्रष्टाचार भारत से विदा होने के पथ पर है. राजनीतिक रुतबे और पद के दुरुपयोग से कमाई करनेवालों में बड़े नेताओं के नाम पहले भी शामिल होते रहे हैं, पर कुछ समय के हो-हल्ले के बाद मामला शांत हो जाता है और संस्थाओं की लापरवाही एवं सांठगांठ से वे अकसर बच निकलते हैं. अब जरूरी हो गया है कि सरकारें, पार्टियां और जागरूक नागरिक देश के राजनीतिक तंत्र में आमूल-चूल बदलाव की पहल करें, वरना नये-नये ‘भुजबल’ पैदा होते रहेंगे.
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