पटना: बिहार के सत्ता संघर्ष में इंदिरा गांधी के बाद अब भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बतौर ‘चेहरा’ पेश किया है. भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने जा रही है. दिलचस्प है कि चुनाव मैदान में एक ओर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि होगी, तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम. अब तक के विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री अपनी पार्टी की सभाओं में बोलने के लिए आते रहे हैं. बिहार की संसदीय राजनीति में ऐसा नहीं हुआ था.
1967 में गैर कांग्रेस दलों का नेतृत्व राज्य में महामाया प्रसाद ने किया था, तो 1977 के चुनाव में कपरूरी ठाकुर बिहार में प्रतिपक्ष का चेहरा थे. 1989 में राष्ट्रीय मोरचा-वाम मोरचा की केंद्र में सरकार बनी. 1990 में विधानसभा के चुनाव हुए थे और कांग्रेस विरोध उस चुनाव का प्रधान मुद्दा था. 1995 से लेकर 2010 के विधानसभा चुनाव तक क्षेत्रीय राजनीतिज्ञ पक्ष-विपक्ष का चेहरा होते रहे. दो दशक के राजनैतिक संघर्ष की पटकथा के दो प्रमुख कोण रहे. एक तरफ थे लालू प्रसाद तो दूसरी ओर नीतीश कुमार. सक्रिय राजनीति से अलग होनेवाले शिवानंद तिवारी कहते हैं-राज्य के चुनाव में किसी प्रधानमंत्री को सामने रखा गया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ था. हालांकि इंदिरा गांधी के जमाने में कांग्रेस उन्हीं के नाम पर चुनाव लड़ती थी.
केंद्र और राज्यों में यही परिपाटी थी. उस वक्त राजनीति केंद्रीकृत थी. चुनाव के बाद मुख्यमंत्री तय होते थे. उसी कांग्रेस ने राजनीति में आलाकमान संस्कृति को स्थापित किया. उसे दूसरी पार्टियों ने गले लगाया. तब राज्यों के नेता और पार्टियां कांग्रेस या इंदिरा गांधी की छवि से टकराते थे. अब राजनीति बदल गयी है. राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व बढ़ा है. प्रधानमंत्री को राज्यों के नेताओं के खिलाफ उतारा जा रहा है. राजनैतिक परिदृश्य में आया यह बदलाव है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर विधानसभा का चुनाव लड़ने के पीछे भाजपा तर्क दे रही है कि झारखंड, हरियाणा या महाराष्ट्र में किसी क्षेत्रीय नेता को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया गया था. हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस एक दशक से सत्ता में थी और इस लिहाज से उसकी लड़ाई कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व से थी.
भाजपा सीएम का नाम जाहिर करने से क्यों बच निकली?
यह सवाल जितना सीधा है, उसकी हकीकत उतनी ही पेचीदा है. सार्वजनिक तौर पर भाजपा में मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार हैं. सुशील मोदी, नंद किशोर यादव, प्रेम कुमार, डॉ सीपी ठाकुर, रविशंकर प्रसाद वगैरह को अलग-अलग मौकों पर मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे योग्य बताया जाता रहा है. इनमें से कुछ की दावेदारी जाति के नाम पर चलने वाले संगठनों की ओर से उछाली भी गयी. भाजपा नेतृत्व ने नरेंद्र मोदी का नाम सामने लाकर स्थानीय स्तर पर खींचतान का पटाक्षेप करने की कोशिश की है.
लोकसभा चुनाव की तरह खेला जायेगा ओबीसी का कार्ड?
लोकसभा चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी की जाति का भाजपा ने खूब प्रचार किया. उन्हें ओबीसी का बताया गया. ऐसा करने के पीछे पार्टी की मंशा ओबीसी वोटों को आकर्षित करने की थी. पार्टी जाति के आकर्षण को और तेज करने की रणनीति पर काम कर रही है. राज्य में ओबीसी आबादी 32}से ज्यादा है. अब तक इस जातीय समूह पर समाजवादी-मध्यमार्गी पार्टियों का प्रभाव रहा है. इसे कम करने के लिए पार्टी शिद्दत से काम कर रही है. पिछले दिनों जननायक कपरूरी ठाकुर की जयंती पर कार्यक्रम में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का शिरकत करना व वंशी चाचा (बैरगनिया में पुल के लिए आत्मदाह करनेवाले) की पटना में प्रतिमा लगाने का ऐलान उसी ओबीसी वोट को आकर्षित करने की दिशा में पहल थी.
घटक दलों को चुप रखने की रणनीति
भाजपा की साझीदार लोजपा ने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार पर फैसला भाजपा के जिम्मे छोड़ दिया था. पर रालोसपा की ओर से पार्टी प्रमुख और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा को एनडीए का उम्मीदवार बनाने की सुगबुगाहट शुरू हुई थी. अब नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद उसके पास नाम लेने का विकल्प भी नहीं बचा.