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निराकार बनना सच्ची सेवा
हर व्यक्ति को मानवमात्र की भलाई के लिए सेवारत होना चाहिए. लेकिन प्रश्न उठता है कि सेवा किसकी? ये प्रश्न जितना सरल लग रहा है उतना ही जटिल है. लौकिक दृष्टि से हम दूसरों की सेवा भले कर लें, किंतु पारमार्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ी सेवा अपनी ही हो सकती है. आध्यात्मिक दृष्टि से किसी […]
हर व्यक्ति को मानवमात्र की भलाई के लिए सेवारत होना चाहिए. लेकिन प्रश्न उठता है कि सेवा किसकी? ये प्रश्न जितना सरल लग रहा है उतना ही जटिल है. लौकिक दृष्टि से हम दूसरों की सेवा भले कर लें, किंतु पारमार्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ी सेवा अपनी ही हो सकती है.
आध्यात्मिक दृष्टि से किसी अन्य की सेवा हो ही नहीं सकती. हम जब किसी की सेवा करते हैं तो उसकी सेवा नहीं, अपितु स्वयं हम अपनी सेवा करते हैं. दूसरों का सहारा लेनेवाले पर भगवान भी अनुग्रह नहीं करते. सेवा करनेवाला वास्तव में अपने मन की वेदना मिटाता है.
यानी अपनी ही सेवा करता है. दूसरों की सेवा में अपनी ही सुख-शांति की भावना छिपी रहती है. कहा जाता है कि दीन-दुखियों की सेवा करके हम भगवान की सेवा करते हैं. लेकिन यह अंतिम सत्य नहीं है. भगवान की सेवा आप क्या कर सकेंगे? वे तो निर्मल और निराकार बन चुके हैं. उनके समान निर्मल और निराकार बनना ही उनकी सच्ची सेवा है. हम शरीर की तड़पन तो देखते हैं, किंतु आत्मा की पीड़ा नहीं पहचान पाते.
यदि हमारे शरीर में कोई रात को सुई चुभो दे, तो तत्काल हमारा पूरा ध्यान उसी स्थान पर केंद्रित हो जाता है. हमें बड़ी वेदना महसूस होती है, किंतु आत्म-वेदना को आज तक अनुभव नहीं किया. शरीर की सरांध का हम इलाज करते हैं, किंतु अपने अंतर्मन की सरांध को, उत्कट दरुगध को कभी असह्य माना ही नहीं.
आचार्य विद्यासागर
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