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बड़ी हार के एक साल बाद कांग्रेस

सुदूर दक्षिण के कामराज से लेकर उत्तर के लालबहादुर शास्त्री तक कांग्रेस में कर्तव्यनिष्ठा और सामाजिक-परिवर्तन के कई प्रतीक मौजूद रहे हैं. क्या कांग्रेस इन प्रतीकों के सहारे फिर से अपने को नहीं गढ़ सकती? साल भर पूरे हुए बीजेपी को सुनामी सरीखी जीत मिले और साल भर ही पूरे हुए हैं कांग्रेस को सत्ता […]

सुदूर दक्षिण के कामराज से लेकर उत्तर के लालबहादुर शास्त्री तक कांग्रेस में कर्तव्यनिष्ठा और सामाजिक-परिवर्तन के कई प्रतीक मौजूद रहे हैं. क्या कांग्रेस इन प्रतीकों के सहारे फिर से अपने को नहीं गढ़ सकती?

साल भर पूरे हुए बीजेपी को सुनामी सरीखी जीत मिले और साल भर ही पूरे हुए हैं कांग्रेस को सत्ता के शिखर से दूर हुए. लेकिन क्या कांग्रेस एक साल में इस सच का सामना करने के लिए खुद को भीतर से तैयार कर पायी है? मई की प्रचंड दुपहरी की ही तरह थी पिछले साल बीजेपी की जीत.

इस जीत की आंच ने स्वतंत्रता संग्राम की अगुवाई करने और नये राष्ट्र के निर्माण का साहसी स्वप्न गढ़नेवाली सौ साल से भी ज्यादा पुरानी कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया था. बीजेपी की जीत ने कांग्रेस के नेतृत्व, कार्यशैली, रणनीति और 21वीं सदी में भारत के भीतर उसके एक दशक के राजकाज पर एकबारगी प्रश्नचिह्न् लगा दिया था.

बीते साल कांग्रेस को 2009 के आम चुनावों के मुकाबले 25-50 सीटों का नहीं, बल्कि 162 सीटों का घाटा हुआ. वोट प्रतिशत में भी करीब दहाई अंकों की कमी आयी. घटा हुआ मत-प्रतिशत असल में मतदाताओं के बीच कांग्रेस की मटियामेट होती साख की सूचना थी. 179 सीटों पर उसके प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी.

कोई भी राज्य ऐसा नहीं था, जहां उसकी सीटें दहाई अंकों में पहुंची हो. इतनी बड़ी हार के बाद अस्तित्व के सौ साल पूरे करनेवाली इस पार्टी को अपना इतिहास याद आना चाहिए था, क्योंकि इतिहास पिछली गलतियों से सबक लेने का ही एक पाठ है.

लेकिन बीते एक साल में एक बार भी नहीं लगा कि पार्टी ने गलतियों से सबक सीखने के लिए अपने इतिहास को खंगाला हो. पार्टी पूरे साल ज्यादातर मामलों में यही कहती नजर आयी कि केंद्र की नयी सरकार नया कुछ नहीं कर रही, यूपीए की नीतियों को ही आगे बढ़ा कर उसका श्रेय ले रही है. लेकिन, उसका यह कहना आज उसे ही संसद में अविश्वसनीय बना रहा है.

नया मामला जीएसटी बिल का है. सत्ता में रहते कांग्रेस ने ही इस बिल के लिए बुनियाद बनायी थी, पर आज वही बिल के विरोध में है. कांग्रेस का यह रवैया एक संकेत है कि कारगर विपक्ष का विचार गढ़ पाने में वह सालभर में असफल रही है.

अखिल भारतीय विस्तार वाली पार्टी आज जब कायदे से प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा पाने के लिए भी तरस रही है, तो उम्मीद थी कि वह अपने शीर्ष नेतृत्व की कार्यशैली, रणनीति और वैचारिकी को नये सिरे से खंगालेगी, अपने को नये सिरे से गढ़ने के लिए संगठन से लेकर देश विषयक अपने स्वप्न तक में आमूल-चूल बदलाव करेगी.

पर, लगता है कि कांग्रेस के जो काम उसे अस्तित्व के संकट की स्थिति में पहुंचाने के जिम्मेवार रहे, उन कारणों को कांग्रेस न तो खोजना-खंगालना चाहती है, न ही उन्हें स्वीकारने का नैतिक साहस दिखाना चाहती है! 21वीं सदी की कांग्रेस कैसे पीछा छुड़ायेगी घोटालों के अपने अतीत से.

कोयला खदानों के आवंटन की कालिख, टूजी स्पेक्ट्रम की नीलामी के दाग और कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़े घोटाले की गंदगी से इस पार्टी का पीछा तो तब छूटता, जब पार्टी के भीतर प्रायश्चित का कुछ भाव होता. प्रायश्चित का भाव सिर्फ यह कह देने भर से नहीं प्रकट होता कि ‘हम मानते हैं, हमसे कुछ गलती हुई है.’ प्रायश्चित का भाव प्रकट होता है खुद को अपनी गलतियों का जिम्मेवार मान कर सुधार के संकल्प लेने से, सुधरने की दिशा में कड़े कदम उठाने से.

लेकिन लगता है कि अपने अतीत से पीछा छुड़ाने के क्रम में कांग्रेस जो भी कोशिश करती है, उनमें उसका अतीत ही आड़े आ जाता है. नयी मिसाल राजीव गांधी की पुण्यतिथि की है.

बेशक राजीव गांधी की शहादत देश की राजनीतिक पुण्य-स्मृतियों में से एक है, लेकिन पार्टी ने अपनी प्रदेश इकाइयों को जिस तरह उनकी पुण्यतिथि के आयोजन के लिए हांका है और कुछ शहरों के सड़क-चौराहों को पोस्टर और होर्डिग्स से पाट दिया है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस फिर से किसी एक चेहरे (राजीव गांधी) और एक घटना (शहादत) के लेंस से देश को देखना-दिखाना चाहती है. काश! कांग्रेस को याद रहता कि आक्रामक प्रचार की यह शैली तो आज के बीजेपी की है.

अगर कांग्रेस पर आरोप है कि वह एक खास परिवार को पार्टी समझती आयी है, तो अच्छा होता कि कांग्रेस इसकी काट में अपने उन नेताओं की भी पुण्य-स्मृतियों को सहेजने के उपक्रम करती, जिनकी सादगी और त्याग के किस्से आज भी इस देश की बुजुर्ग पीढ़ी के मुंह से अकसर सुनने को मिल जाते हैं. क्या कांग्रेस परिवार के पास गांधी परिवार की शहादत के अतिरिक्त सादगी और त्याग के प्रतीक रह चुके नेताओं की कमी है?

सुदूर दक्षिण के कामराज से लेकर उत्तर के लालबहादुर शास्त्री तक कांग्रेस में कर्तव्यनिष्ठा और सामाजिक-परिवर्तन के कई प्रतीक मौजूद रहे हैं. क्या कांग्रेस इन प्रतीकों के सहारे फिर से अपने को ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ वाली पार्टी के रूप में नहीं गढ़ सकती?

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