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अरुणा : कई अनुत्तरित प्रश्न

अनुराग चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार कानूनी पहल इच्छा मृत्यु से जुड़ी रही, पर अंतिम परिणति तक करुणा-सेवा ने ही अरुणा को गरिमा प्रदान की. केइएम अस्पताल के पूरे प्रशासन और नर्सो के लिए वह एक ‘मिशन’ में तब्दील हो गयी थी. अरुणा की त्रसदी ने जिन सार्वजनिक और गोपनीय सवालों को खड़ा किया है, उसके जवाब […]

अनुराग चतुर्वेदी

वरिष्ठ पत्रकार

कानूनी पहल इच्छा मृत्यु से जुड़ी रही, पर अंतिम परिणति तक करुणा-सेवा ने ही अरुणा को गरिमा प्रदान की. केइएम अस्पताल के पूरे प्रशासन और नर्सो के लिए वह एक ‘मिशन’ में तब्दील हो गयी थी.

अरुणा की त्रसदी ने जिन सार्वजनिक और गोपनीय सवालों को खड़ा किया है, उसके जवाब पिछले 42 वर्षो में नहीं मिले हैं, पर इस त्रसदी ने कई बहस, जिनका मिजाज कानूनी और सामाजिक है, खड़ी की है. मालूम नहीं उनका जवाब कभी मिलेगा भी या नहीं.

गालिब का एक शेर है- ‘मरते हैं आरजू में मरने की। मौत आती है पर नहीं आती।।’ न्यायमूर्ति मरकडेय काटजू ने 7 मार्च, 2011 को अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य के मुकदमे का फैसला देते हुए मौत को गालिब के शेर के रूप में याद किया था. 22 नवंबर 1973 के दिन जहरीली मिठाई खाने के बाद कई बच्चे मुंबई महानगरपालिका के केइएम अस्पताल में लाये गये थे. उन बच्चों की दिनभर देखभाल और सेवा करने के बाद अरुणा, जो उस समय 25 वर्ष की थी, अस्पताल के तलघर में पहुंची, जहां एक कुत्ते पर परीक्षण चल रहा था. अरुणा को शक था कि कुत्ते के लिए लाये जानेवाले मांस को कोई चुरा रहा है.

उसे वार्ड बॉय सोहनलाल पर शक था. सोहनलाल अरुणा के व्यवहार से गुस्सा था, क्योंकि वह उससे दूर ही रहती थी. सोहनलाल ने कुत्ते की चेन अरुणा के गले में बांध इस तरह दबा दी कि उसके मस्तिष्क में ऑक्सीजन नहीं पहुंच पायी. सोहनलाल ने माहवारी से गुजर रही अरुणा से गुदा मैथुन किया और अगले दिन सबेरे मेट्रेन नर्स बेलिमाल को एक सफाई कर्मचारी का संदेश मिला कि एक नर्स फटे कपड़ों में बेसमेंट में है और उसके गले में कुत्ते को बांधनेवाली चेन बंधी है.

सोहनलाल ने अरुणा के गले की सोने की चेन और सगाई की अंगूठी भी चुरा ली. अरुणा इस पाशविक हमले से इतनी आहत हो गयी कि ‘कोमा’ में चली गयी और यहीं से शुरू होती है अरुणा की कहानी. इसमें क ई पात्र हैं, क ई संस्थाएं हैं. अदालतें हैं, कानून है, अस्पताल है. सेवा के रूप हैं.

करुणा है. हिंसा है. संयुक्त परिवार है. गरीबी है. अपनी जड़ों से कट कर नौकरी के लिए पलायन है. इच्छा मृत्यु का कानूनी सवाल है. अरुणा को तो वैकल्पिक इच्छा मृत्यु का प्रावधान भी दिया गया. इस अंधेरे, पीड़ा और बलात्कार की घटना ने 42 वर्षो तक भारतीय समाज को झकझोर कर रख दिया. दुनिया के मेडिकल इतिहास में 42 वर्ष तक ‘कोमा’ में रहने का रिकॉर्ड तक बन गया.

अरुणा शानबाग का बलात्कार 42 वर्ष पूर्व हुआ था, जब भारतीय कानून और नागरिक समाज इतना परिपक्व नहीं हुआ था.

इस बीच हमारे समाज ने मथुरा केस (जिसके बाद सूर्यास्त के पश्चात महिलाओं को पुलिस स्टेशन बुलाने पर कानूनी रोक लगा दी गयी), विशाखा केस (जिसमें कामकाजी महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन शोषण के खिलाफ अपनी शिकायत दर्ज कराने की व्यवस्था की गयी) और निर्भया कांड (जहां बलात्कार से जुड़े सभी कानूनों पर पुनर्विचार किया गया और कई टेलीफोन लाइन द्वारा महिला सुरक्षा की राज्य ने गारंटी दी) भी देखे.

लेकिन 42 वर्ष पूर्व क्या हुआ? अरुणा के मामले में कई संस्थाओं ने गलतियां की. केइएम अस्पताल के अधीक्षक ने गुदा मैथुन से हुए बलात्कार की बात जांच अधिकारियों से छिपायी.

पुलिस ने दो मामले दर्ज किये. हत्या की कोशिश और लूट. दोनों में सोहनलाल को सात-सात वर्ष की सजा हुई, पर न्यायाधीश ने दोनों सजाओं को एक साथ जारी रखा और मात्र सात वर्ष में वर्ली की बीडीडी चाल में रहनेवाले मूलत: यूपी के गांव दादूपुर जिला सिकंदराबाद के सोहनलाल को रिहा कर दिया गया. निर्जीव बन गयी अरुणा अपनी आवाज खोने के कारण सोहनलाल के खिलाफ गुदा मैथुन की गवाही भी नहीं दे पायी. कानून भावनाओं से नहीं चलता है और दोषी को एक अपराध के लिए दो बार सजा नहीं मिल सकती. यही कारण रहा कि सोहनलाल हल्के में निपट गया.

अरुणा के साथ हुई घटना को कानूनी परिणति तक अब नहीं पहुंचाया जा सकता है, पर भविष्य में इस तरह का मामला आये तो क्या हमारा राज्य कानूनी रूप से तैयार है? इस मामले में कानूनविद् यह भी मानते हैं कि अस्पताल के अधिकारियों, पुलिस और न्यायालय ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया.

पुलिस ने सोहनलाल को जरूर कोशिश करके पुणो से गिरफ्तार किया, पर वे धाराएं नहीं लगा पायी जिनके तहत उसे आजीवन सजा हो सकती थी. भारतीय समाज का पाखंडी रूप भी सामने आया, जब अरुणा के मंगेतर ने ही बलात्कार की रपट न करने को कहा.

उत्तर कर्नाटक के हल्दीपुर गांव की अरुणा शानबाग को दो महत्वपूर्ण वजहों से याद रखा जायेगा. भारतीय न्याय प्रणाली ने पहली बार ‘ऐच्छिक’ इच्छा मृत्यु को माना (यह अलग बात है कि अरुणा के मामले में उसके मित्रों ने इसे अस्वीकार कर दिया और 42 वर्षो तक सहयोगी की सेवा की).

यह सेवा इतनी जबरदस्त थी कि इन वर्षो में अरुणा की पीठ पर एक भी फफोला नहीं पड़ा. केइएम अस्पताल में वार्ड नंबर चार की मरीज अरुणा को सभी नर्सो ने अपनी परंपरा के अनुसार सेवा कर न केवल अपने नर्स होने को सार्थक किया, बल्कि उन अस्पतालों के लिए एक प्रश्न पैदा किया है जो सेवा की जगह सिर्फ संस्था चला रहे हैं.

क्या उदारीकरण के इस युग में यदि किसी प्राइवेट अस्पताल में किसी नर्स के साथ यह घटना घटी होती तो वहां का प्रबंधन पर 42 वर्षो तक उसके लिए वार्ड में कोई जगह रखता? केइएम अस्पताल की नर्सो ने न केवल अपनी सहयोगी की स्मरणीय सेवा की, बल्कि उसे जब परिवार, मंगेतर और समाज ने भुला दिया, तब भी अपना कर्तव्य निभाया. इतना ही नहीं, नर्सो ने ही अरुणा शानबाग का भोइवाड़ा श्मशान गृह में दाह-संस्कार भी किया.

उन्होंने आखिरी समय अरुणा के परिवार के सदस्यों के आने का विरोध भी किया, उन्होंने मशहूर अंगरेजी लेखिका पिंकी विरानी द्वारा अरुणा की कहानी पर भी टिप्पणी की और कहा कि वे सिर्फ पुस्तक लिखने के लिए ही अरुणा से मिली. पिंकी विरानी का यह कहना वाजिब है कि अरुणा तो पहले ही मर गयी थी. उसे पीड़ा और भय में क्यों जीवित रखा जा रहा है.

यदि किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो उसका परिवार क्या करता है? अरुणा के परिवार ने उसकी कोई सुध नहीं ली. गरीबी और लोक लज्जा के कारण संभव है यह हुआ हो. 42 साल पूर्व भारत में मुंबई का विशेष स्थान था, नौकरी पाने के लिए अकालग्रस्त क्षेत्रों से महिलाएं शहरों में पलायन करती थीं. यह पलायन की त्रसदी भी है.

भारत में जीने के अधिकार को सरकार ने संवैधानिक दर्जा दिया है, लेकिन इच्छा मृत्यु को सरकार ने मान्य नहीं किया है. यह बहस जारी है, क्योंकि कई समाज इस मृत्यु को कानूनी दर्जा दे चुके हैं. अरुणा शानबाग की मृत्यु के बाद यह बहस फिर मुख्य धारा में आ चुकी है.

अरुणा शानबाग को मानवीय सम्मान देने की कोशिश उसके शरीर को इस लोक से मुक्ति देने और करुणा के मूल में जाकर सेवा द्वारा भी हुई, ये दोनों ही प्रयत्न एक साथ चले. कानूनी पहल इच्छा मृत्यु से जुड़ी रही, लेकिन अंतिम परिणति तक करुणा-सेवा ने ही अरुणा को गरिमा प्रदान की. केइएम अस्पताल के पूरे प्रशासन और नर्सो के लिए वह एक ‘मिशन’ में तब्दील हो गयी थी. 62 वर्षीय अरुणा शानबाग जब गुजर गयी, तो उस मृत्यु ने उन नर्सो के जीवन में खालीपन पैदा कर दिया.

अरुणा की त्रसदी ने जिस तरह के सार्वजनिक और गोपनीय सवालों को खड़ा किया है, उसके जवाब पिछले 42 वर्षो में नहीं मिले हैं, पर इस त्रसदी ने कई बहस, जिनका मिजाज कानूनी और सामाजिक है, खड़ी की है. मालूम नहीं उनका जवाब कभी मिलेगा भी या नहीं.

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