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मोदी सरकार के 1 साल

पिछले आम चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी का एक प्रमुख नारा था- ‘सबका साथ-सबका विकास’. अपने इस वादे पर अमल करते हुए सरकार ने पिछले एक साल में आम आदमी की समृद्धि और उन्हें आर्थिक सुरक्षा मुहैया कराने के उद्देश्य से कई नयी योजनाएं शुरू कीं. कुछ पिछली योजनाओं में भी तब्दीली करते हुए उन्हें […]

पिछले आम चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी का एक प्रमुख नारा था- ‘सबका साथ-सबका विकास’. अपने इस वादे पर अमल करते हुए सरकार ने पिछले एक साल में आम आदमी की समृद्धि और उन्हें आर्थिक सुरक्षा मुहैया कराने के उद्देश्य से कई नयी योजनाएं शुरू कीं. कुछ पिछली योजनाओं में भी तब्दीली करते हुए उन्हें नये नाम और प्रारूप में शुरू किया गया.
जन-धन, बीमा और पेंशन आदि से जुड़ी योजनाओं में आम लोगों की बड़े पैमाने पर हुई भागीदारी से पता चलता है कि लोगों को इस तरह की योजनाओं का इंतजार था. हालांकि कुछ योजनाओं के मद में की गयी कटौतियां आलोचना का कारण भी बनीं. विशेष में आज पढ़ें सामाजिक क्षेत्र के लिए उठाये गये कदमों का एक आकलन.
निदेशक, पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया (प्रिया)
।।मनोज राय।।
नरेंद्र मोदी के एक साल के कार्यकाल की विशेषता यह भी है कि उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में पहले से चली आ रही योजनाओं को भी जारी रखा है. साथ ही उनकी नियमित निगरानी और मूल्यांकन कर उसमें सुधार की दिशा में पर्याप्त कदम बढ़ाया है. पूर्व सरकारों की योजनाओं के मूल्यांकन से यह प्रतीत होता है कि योजनाएं तो बहुत हैं, पर उनके निष्पादन की प्रक्रिया कमजोर रही है, लेकिन मौजूदा सरकार ने निष्पादन पर भी ध्यान दिया है.
सामाजिक क्षेत्र की योजनाएं गरीबों को लाभ पहुंचायेंगीप्रभावी हैं कल्याणकारी योजनाएं
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने अपने एक वर्ष के कार्यकाल में सामाजिक क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है. उन्होंने कई बड़ी योजनाएं शुरू की हैं. खास तौर से वित्तीय समावेशन की जो योजनाएं हैं, वे काफी प्रभाव छोड़ेंगी.
सरकार ने जन-धन योजना के तहत जीरो बैलेंस अकांउट खोलने की दिशा में निर्णय लिया. बैंकिग प्रक्रिया से अब तक वंचित रहे करोड़ों लोगों को सरकार के इस निर्णय से बैंक यानी वित्तीय संस्थाओं तक अपनी पहुंच बनाने में कामयाबी मिली है. देश के बहुत बड़ी आबादी, जिसमें एक तरह की असुरक्षा है, उनके लिए प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना और प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना शुरू कर वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाया है.
आम तौर पर हमारे देश में विशाल युवा आबादी पर ध्यान देने की बात होती है, पर हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भविष्य में जब यह युवा आबादी बुजुर्गो की श्रेणी में आयेगी, तो उन्हें वित्तीय सुरक्षा कैसे मुहैया कराया जा सकता है.
सरकार ने इसी मकसद से अटल पेंशन योजना शुरू की. इस तरह से आप देखेंगे कि वित्तीय समावेशन व सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के जरिये सरकार लोगों को आर्थिक सुरक्षा देने की दिशा में बढ़ रही है, विशेष रूप से आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों में केंद्र सरकार की इन योजनाओं का काफी लाभ होगा.
मोदी सरकार की ओर से शुरू किये गये तमाम सामाजिक कार्यक्रम अपनेआप में अनूठे कहे जा सकते हैं. सरकार न सिर्फ गरीबों को मुख्यधारा में लाना चाहती है, बल्कि लोगों को सब्सिडी के माध्यम से जीवनयापन करने की बजाय उन्हें सशक्त करना चाहती है. इसे हम सरकार द्वारा मछली बांटने की बजाय लोगों को मछली पकड़ने का हुनर सिखाने वाली मंशा के तौर पर भी समझ सकते हैं.
मसलन सरकार ने जिस तरह से कौशल विकास के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाते हुए स्किल इंडिया की तरफ कदम बढ़ाने का निर्णय लिया है, उससे बहुत बड़ी आबादी को लाभ होगा. इससे बड़ी संख्या में शहरी मलिन बस्तियों में रहनेवाले गरीबों, जो कि श्रम बाजार में अहम योगदान देते हैं, को फायदा होगा.
कौशल के अभाव में छोटे-छोटे काम के लिए व्यापक पैमाने पर पलायन तो होता है, लेकिन कामगारों के जीवन स्तर में कोई व्यापक सुधार नहीं दिखता. अभी तक सरकार और कामगारों या आम आदमी में दाता और याचक का रिश्ता देखा गया है. सरकार दाता होती है और जनता याचक की भूमिका में होती है. यह सरकार सामाजिक क्षेत्र में योजनाओं को वित्तीय प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास करती हुई दिख रही है. इसलिए अब सामाजिक क्षेत्र में एक तरह से निवेश का रास्ता खुला है.
नरेंद्र मोदी के एक साल के कार्यकाल की विशेषता यह भी है कि उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में पहले से चली आ रही योजनाओं को भी जारी रखा है. साथ ही उनकी नियमित निगरानी और मूल्यांकन कर उसमें सुधार की दिशा में पर्याप्त कदम बढ़ाया है.
देश में स्वच्छता की बात पहले भी होती थी, लेकिन सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान चलाया. अगर हम स्वच्छ भारत अभियान को सामाजिक क्षेत्र की योजना के तर्ज पर देखें, तो इससे सबसे ज्यादा फायदा गरीब तबके को होगा. स्वच्छ भारत मिशन का मतलब सिर्फ इतना भर नहीं है कि हम अपने घर, गांव, शहर और देश को साफ सुथरा रखें. यदि स्वच्छ भारत अभियान सही तरीके से जमीन पर उतरता है, तो इसके कई लाभ हैं.
गरीबों को अक्सर बीमारी के कारण अनेक मुसबतें ङोलनी पड़ती हैं. स्वास्थ्य की अनेक योजनाएं होने के बावजूद यदि कोई गरीब बीमार हो जाता है, तो उसकी पूरी अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाती है. इनमें से ज्यादातर बीमारियां स्वच्छता के अभाव में होती हैं, इसलिए इस अभियान के जरिये उनके काफी खर्चे कम हो जायेंगे और कुल मिलाकर इस योजना का ज्यादा फायदा उन्हें ही मिलेगा. ऐसी कई योजनाएं हैं जो कि भले ही घोषित तौर पर सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के दायरे में न आती हों, लेकिन उनका कार्यान्वयन का सीधा फायदा समाज को होगा.
इसी तरह की एक महत्वपूर्ण योजना आदर्श ग्राम की है. यह एक तरह से सामाजिक क्षेत्र के योजनाओं की चरम परिकल्पना है. आदर्श ग्राम योजना क्या है? गांव में लोगों को बेहतर सुविधा हासिल हो. गरीबों को घर मिले, पीने का पानी मिले, शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो. पंचायती राज व्यवस्था मजबूत हो. सत्ता का विकेंद्रीकरण हो.
पूर्व सरकारों की योजनाओं के मूल्यांकन से यह प्रतीत होता है कि योजनाएं तो बहुत हैं, पर उनके निष्पादन की प्रक्रिया कमजोर रही है, लेकिन मौजूदा सरकार ने निष्पादन पर भी ध्यान दिया है. सरकार व्यवस्था को पूरी तरह से सुधारने की दिशा में प्रयास कर रही है और आने वाले वर्षो में इसका अच्छा प्रभाव दिखेगा.
उदाहरण के लिए मनरेगा को देखें. यह यूपीए सरकार के दौरान शुरू की गयी योजना है. कई तरह की आशंकाएं जतायी जा रही थीं कि मोदी सरकार इसे बंद कर देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, बल्कि सरकार ने इसके दायरे का विस्तार कर दिया है.
14वें वित्त आयोग में किये गये प्रावधानों के तहत पंचायत को चार लाख करोड़ रुपया पहुंचेगा और उन्हें इसे खर्च करने की स्वतंत्रता होगी. इसका मतलब यह हुआ कि देश की ढाई लाख पंचायत में से प्रत्येक को 14वें वित्त आयोग द्वारा निर्धारित अवधि में कम-से-कम दो करोड़ रुपये मिलेंगे. यह रकम पंचायत अपने हिसाब से खर्च करते हुए गांवों में बुनियादी सुविधा के विकास के जरिये आर्थिक विकास में लगा सकती है. इससे विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिलेगा और स्थानीय स्तर पर विकास भी होगा.
सरकार ने बनारस में बुनकरों के लिए फैसिलिटेशन सेंटर खोल कर अपना इरादा जाहिर कर दिया है. सरकार न सिर्फ गरीबों को रोजगार देना चाहती है, बल्कि उसे स्वरोजगार के लिए भी प्रोत्साहित कर रही है. हुनर तो लोगों के पास पहले से ही था, लेकिन हुनर को बाजार से जोड़ने के इस प्रयास का बुनकरों को काफी फायदा होगा.
सरकार का काम सिर्फ योजना बनाना नहीं, बल्कि फैसिलिटेटर का काम भी करना है और वर्तमान सरकार इसे आकार देने में लगी है. इसी तरह मदरसे के आधुनिकीकरण की दिशा में किया गया प्रयास है. मदरसे को आधुनिक बना कर एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तकनीकी दक्षता के जरिये रोजगार हासिल करने से अल्पसंख्यक समुदाय को काफी फायदा होगा.
वैसे किसी भी सरकार के कामकाज का पूरी तरह से आकलन करने के लिए एक वर्ष का समय काफी नहीं होता, क्योंकि उसे जनता का पांच वर्ष का मैंडेट प्राप्त होता है. लेकिन इस एक वर्ष के दौरान मोदी सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र में किये गये काम काफी उल्लेखनीय हैं.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
सामाजिक क्षेत्र के हिस्से में कटौतियां ही ज्यादा
।।अनिंदो बनर्जीष।।
निदेशक, कार्यक्रम प्रभाग (प्रैक्सिस)
चिंता की बात यह है कि सामाजिक क्षेत्र में मोदी सरकार का प्रदर्शन उम्मीदें जगानेवाला कम और आशंकाएं बढ़ाने वाला ज्यादा दिखता है. इस रुझान के इक्के-दुक्के नहीं, बल्कि कई उदाहरण दिखते हैं. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी महत्वपूर्ण योजना की दुर्दशा ऐसे उदाहरणों में प्रमुख हैं.
जिस सरकार को ‘अच्छे दिनों’ का वादा निभाने के लिए जनता ने जनादेश दिया, उसके एक साल पूरे हो चुके हैं.बहुमत पर आधारित किसी सरकार का शुरुआती दौर ही शायद उसकी प्राथमिकताओं और रुझानों का सबसे अच्छा आईना होता है, क्योंकि इस समय किसी चुनाव का दबाव नहीं होता, सरकार अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से जनहित में लोकप्रिय या अलोकप्रिय निर्णय ले सकती है. पहले साल में जनता के रुख में भी अमूमन बदलाव का मूड हावी नहीं होता.
एक आम नागरिक अपनी सरकार से, खासकर केंद्र की सरकार से क्या चाहता है? ऐसी नीतियां, जिनसे उसके रोजमर्रा के जीवन में आनेवाला संघर्ष आसान हो, रोजगार के अवसर बढ़ें, बुनियादी सेवाओं की उपलब्धता बेहतर हो, गैर-बराबरी कम हो और संकट की स्थितियों पर अंकुश लग सके. मोदी सरकार के कार्यकाल के पहले वर्ष के प्रदर्शन का आकलन इन कसौटियों पर अवश्य किया जाना चाहिए, यानी सामाजिक क्षेत्र में उठाये गये कदमों के आधार पर.
मनरेगा अब कोमा में : चिंता की बात यह है कि सामाजिक क्षेत्र में मोदी सरकार का प्रदर्शन उम्मीदें जगानेवाला कम और आशंकाएं बढ़ाने वाला ज्यादा दिखता है. इस रुझान के इक्के-दुक्के नहीं, बल्कि कई उदाहरण दिखते हैं. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं की दुर्दशा ऐसे उदाहरणों में प्रमुख हैं.
एक लंबे अरसे तक इस योजना के विस्तारक्षेत्र को कम किये जाने के इशारों के बाद आखिरकार सरकार ने इसे जारी रखने का स्वागतयोग्य फैसला जरूर किया, लेकिन पिछले एक साल के दौरान यह कानून देश के ज्यादातर हिस्सों में लगभग पूरी तरह कोमा में चला गया है.
ग्रामीण विकास विभाग के प्रतिवेदन के अनुसार, मार्च 2015 को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष के दौरान इस योजना के तहत लगभग 263 करोड़ रुपये की मजदूरी का भुगतान बकाया रहा, जो अभूतपूर्व है. सबसे चिंताजनक बात यह रही कि वर्ष के दौरान लगभग 475 करोड़ विलंब दिवसों के एवज में देय भुगतान को खारिज कर दिया गया, जिनमें राशि की अपर्याप्तता को बड़ा कारण बताया गया है.
शायद सरकार चाहती है कि मजदूरी के भुगतान में विलंब और अन्य व्यवस्थागत खामियों की वजह से यदि मजदूरों में योजना के प्रति दिलचस्पी स्वत: खत्म हो जाये और वह योजना में काम की तलाश बंद कर दें, तो सरकार पर आक्षेप लगे बगैर ही योजना अपने आप बंद होने के कगार पर पहुंच जायेगी.
किसानों की उपेक्षा : व्यापक जनविरोध के बावजूद सामाजिक प्रभाव का आकलन किये बगैर औद्योगिक व अन्य तथाकथित सार्वजनिक उद्देश्यों के नाम पर जमीन के अधिग्रहण के लिए सरकार द्वारा एक के बाद एक लाये जा रहे अध्यादेशों का औचित्य समझ के परे है.
निजी कंपनियों के हितों के पैरोकार लंबे समय से इस प्रकार का कानून लागू करवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाते रहे हैं. भला सामाजिक प्रभाव का आकलन क्यों न हो? जिस देश में दो-तिहाई से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती पर निर्भर हों, जहां निर्वाचित सरकारों ने आजादी के छह दशकों के बाद भी भूमिहीनों के हित में न्यूनतम आवासीय भूमि सुनिश्चित करने के लिए भी कोई कानून नहीं बनाया हो, वहांजमीन अधिग्रहण के लिए इस प्रकार की हठधर्मिता वाजिब नहीं दिखती.
पिछले दिनों में सरकार ने जितना जोर जमीन अधिग्रहण से संबंधित अध्यादेशों को पारित करवाने में लगाया, उसका अल्पांश भी अगर किसानों को खेती में हुए नुकसान के एवज में दिये जाने वाले मुआवजे की नीति को युक्तिसंगत बनाने के लिए लगाया होता, तो यह एक सार्थक पहल कही जाती.
सामाजिक क्षेत्र के लिए आवंटन में व्यापक कटौतियां : वर्ष 2015-16 के बजट में एक तरफ जहां कॉरपोरेट जगत को महत्वपूर्ण रियायतें दी गयी हैं, वहीं सामाजिक क्षेत्र के ज्यादातर मंत्रालयों के आवंटनों में पिछले वर्ष की तुलना में भारी कटौतियांदिखती हैं. पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय तथा महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के कुल आयोजना परिव्यय में पिछले वर्ष के प्रारंभिक परिव्यय की तुलना में क्रमश: 59.2 प्रतिशत और 52 प्रतिशत की कमी की गयी है. कृषि व सहकारिता मंत्रालय के संदर्भ में यह कटौती 22.6 प्रतिशत, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के संदर्भ में 19.8 प्रतिशत, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संदर्भ में 20.3 प्रतिशत, श्रम और रोजगार मंत्रालय के संदर्भ में 13.8 प्रतिशत, ग्रामीण विकास मंत्रालय के संदर्भ में 12.6 प्रतिशत तथा शहरी विकास मंत्रालय के संदर्भ में 6.1 प्रतिशत की कटौती की गयी है.
अनुसूचित जाति उपयोजना तथा आदिवासी उपयोजना के तहत किये गये आवंटन पिछले साल के आवंटन के लगभग दो-तिहाई हिस्से के बराबर ही हैं. सर्व शिक्षा अभियान, मध्याह्न् भोजन योजना तथा समेकित बाल विकास सेवा जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं के परिव्ययों में भी भारी कटौती की गयी है.
दूसरी ओर, निजी कंपनियों के हित में बड़े फैसले किये गये हैं. कॉरपोरेट आयकर, उत्पाद शुल्क तथा सीमा शुल्क में लगभग साढ़े पांच लाख करोड़ की विशाल राशि प्रोत्साहन के रूप में उपलब्ध कराये जाने का लक्ष्य रखा गया है, जो सरकार के वर्ग-रुझान को दर्शाता है.
कमजोर हुए श्रमिक अधिकार : मौजूदा सरकार की कथनी और करनी में फासले का सबसे बड़ा उदाहरण मजदूरों के अधिकारों से संबंधित है. भारत में अधिकतर मजदूरों को उनके श्रमिक अधिकारों का लाभ नहीं मिल पाता, जिसकी एक बड़ी वजह श्रमिक अधिकारों के निरीक्षण की व्यवस्थाओं का कमजोर होना है. इस संदर्भ में सरकार द्वारा नियोक्ताओं को राहत देने के नाम पर जिन श्रम सुधारों की पेशकश की गयी है, उनमें निरीक्षण की व्यवस्थाओं का कमजोर बनाया जाना प्रमुख है, जो वस्तुत: मजदूरों के शोषण का खुला लाइसेंस है.
हाल के दिनों में मोदी सरकार ने एक ओर जहां कई विवादास्पद विधेयकों को अध्यादेश के रास्ते से पारित करने का अंधाधुंध प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर इसने सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण कई अध्यादेशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया. इसका एक ज्वलंत उदाहरण अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारक अधिनियम के प्रावधानों को मजबूत बनाने के उद्देश्य से मार्च, 2014 में प्रस्तावित अध्यादेश है, जो लंबे समय से संसद में लौटने का इंतजार कर रहा है.
वास्तविक हित किसका? : अपने पहले साल के दौरान वर्तमान सरकार ने सामाजिक क्षेत्र में ऐसी कई नीतियों को बढ़ावा दिया, जिनका सामाजिक महत्व तो अवश्य है, लेकिन जिनके लिए जनता केंद्र सरकार की पहल के भरोसे नहीं बैठी है.
चाहे बात ‘स्वच्छता अभियान’ के तहत साफ-सफाई बरतने की हो या ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान’ के तहत बेटियों को समान अवसर देने की हो, या फिर मामला प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत बैंक में खाता खोलने की हो या नयी बीमा योजनाओं से लाभ लेने की, ये सभी बातें जनता के व्यवहार परिवर्तन या मर्जी से ज्यादा जुड़े हुए हैं, जहां सरकार की पहल भले सहायक हो लेकिन अपरिहार्य नहीं.
सरकार ने इस तरह की पहल से भले ही मध्यवर्गीय जनता से वाहवाही लूटी हो, लेकिन ऐसा लगता है कि यह सरकार मजदूरों, किसानों, दलितों या आम नागरिकों के वास्तविक हितों के लिए कम और पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए ज्यादा फिक्रमंद है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
सामाजिक क्षेत्र में कुछ उल्लेखनीय पहलसांसद आदर्श ग्राम योजना
इस योजना के तहत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के दायरे को व्यापक बनाया गया है. चुनिंदा गांवों में विकास के तमाम सूचकों को फोकस करते हुए गांव के समग्र विकास से जुड़ी है यह योजना. इसमें सामाजिक विकास से लेकर सांस्कृतिक विकास तक शामिल है. साथ ही इसमें गांव के पूरे समुदाय को जोड़ा गया है.
ग्रामीण विकास मंत्रालय की देखरेख में चलायी जा रही इस योजना की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जयप्रकाश नारायण के जन्म दिन के मौके पर 11 अक्तूबर, 2014 से की थी.
इस योजना के तहत मार्च, 2019 तक तीन गांवों को आदर्श गांव के तौर पर विकसित किया जायेगा, जिसमें से एक गांव को 2016 तक ही आदर्श गांव में परिवर्तित किया जायेगा. इसके बाद वर्ष 2024 तक पांच ऐसे आदर्श गांवों को (प्रत्येक वर्ष एक गांव को) चुने जाने की योजना है, जिन्हें आदर्श ग्राम के तौर पर विकसित किया जायेगा.
इस योजना के तहत संसद सदस्य को किसी एक ग्राम पंचायत का चयन करना होगा और योजना के निर्धारित मानदंडों के अनुरूप उसका विकास करना होगा. इस योजना के प्रमुख उद्देश्यों में ग्राम पंचायतों के समग्र विकास के लिए नेतृत्व की प्रक्रियाओं को गति प्रदान करने समेत इन सभी को शामिल किया गया है :
– जनसंख्या के सभी वर्गो के जीवन की गुणवत्ता के स्तर में सुधार करना
– बुनियादी सुविधाओं में सुधार
– उच्च उत्पादकता
– मानव विकास में वृद्धि करना
– आजीविका के बेहतर अवसर
– असमानताओं को कम करना
– अधिकारों और हक की प्राप्ति
– व्यापक सामाजिक गतिशीलता
– समृद्ध सामाजिक पूंजी
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तहत शुरू किये गये इस अभियान का मकसद देश में बेटियों को बचाने और उन्हें शिक्षित करने से संबंधित है. इस स्कीम के तहत आरंभिक बजटीय आबंटन एक सौ करोड़ रुपये किया गया है. 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के पानीपत में प्रधानमंत्री ने इस स्कीम की शुरुआत की थी. सरकार की ओर से इस योजना को शुरू करने का प्रमुख कारण यह बताया गया है कि वर्ष 2011 की जनगणना में बेटों के मुकाबले बेटियों की संख्या में कमी आयी है.
2001 की जनगणना में 1,000 बालकों की तुलना में 927 बालिकाओं की संख्या थी, लेकिन वर्ष 2011 की जनगणना में यह अनुपात घट गया और बालिकाओं की संख्या 919 पर पहुंच गयी थी. इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि पिछले दशक में बालिकाओं की जन्मदर में कमी आयी है. इसलिए इसे बढ़ावा देने के मकसद से इस योजना को शुरू किया गया है. इससे देश के पूरे सामाजिक ढांचे को विकसित करने में मदद मिल सकती है.
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री द्वारा हरियाणा से इस योजना को शुरू करने का एक बड़ा कारण यह रहा कि इस राज्य में बाल लिंगानुपात देशभर में सबसे कम है. इस राज्य में प्रत्येक 1,000 बालकों की तुलना में बालिकाओं की संख्या महज 837 है.
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के मुख्य बिंदु :
– सभी ग्राम पंचायतों में गुड्डा-गुड्डी बोर्ड लगाये जायेंगे. हर महीने इस बोर्ड में संबंधित गांव के बालक-बालिका अनुपात को दर्शाया जायेगा.
– लड़की का जन्म होने पर ग्राम पंचायत उसके परिवार को तोहफा भेजेगी.
– ग्राम पंचायत साल में कम-से-कम एक दर्जन लड़कियों का जन्मदिन मनायेगी.
– सभी ग्राम पंचायतों में लोगों को ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की शपथ दिलायी जायेगी.
– किसी गांव में अगर बालक-बालिका अनुपात बढ़ता है, तो वहां की ग्राम पंचायत को सम्मानित किया जायेगा.
– बाल विवाह के लिए ग्राम प्रधान को जिम्मेदार माना जायेगा और उसके खिलाफ कार्रवाई होगी.
– कन्या भ्रूण हत्या रोकने के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए स्थानीय स्कूलों और कॉलेजों को अभियान में शामिल किया जा रहा है.
सुकन्या समृद्धि योजना
इस योजना के तहत कोई भी व्यक्ति अपनी बेटी (जिसकी उम्र 10 वर्ष से कम हो) के नाम से बैंक या पोस्ट ऑफिस में खाता खुलवा सकता है. इस योजना के तहत खातेमें एक वर्ष में कम-से-कम एक हजार रुपया और ज्यादा से ज्यादा डेढ़ लाख रुपया तक जमा किया जा सकता है.
22 जनवरी, 2015 को प्रधानमंत्री द्वारा शुरू की गयी इस योजना के तहत मौजूदा वित्तीय वर्ष के लिए 9.2 फीसदी की दर से ब्याज देना तय किया गया है. यह एक दीर्घावधि स्कीम है, जिसमें कोई भी व्यक्ति बेटी के जन्म से लेकर उसके 10 साल की उम्र के होने तक कभी भी यह खाता खुलवा सकता है.
यह अकाउंट बालिका के 21 साल की होने तक जारी रहेगा. खाता खोलने से 14 साल तक इस स्कीम में पैसा जमा कराना होगा. 14 साल पूरे होने से पहले ही बच्ची 21 साल की हो जाती है, तो भी खाता बच्ची के 21 साल की होने पर ही बंद हो जायेगा. हालांकि, मौजूदा वित्तीय वर्ष के तहत इस योजना पर 9.2 फीसदी की दर से ब्याज दिया जायेगा, पर ब्याज की दर हर साल के लिए अलग से घोषित की जायेगी.
अटल पेंशन योजना
असंगठित क्षेत्र के सभी लोगों को भविष्य में उनकी उम्र 60 वर्ष होने पर सरकार उन्हें पेंशन मुहैया कराने के इरादे से अटल पेंशन योजना लेकर आयी है. इस वर्ष बजट के दौरान इस योजना की घोषणा की गयी, जिसे एक जून से शुरू किया जायेगा. योजना के तहत अंशधारकों को 60 साल पूरा होने पर 1,000 रुपये से लेकर 5,000 रुपये तक पेंशन मिलेगी जो उनके योगदान पर निर्भर करेगा. योगदान इस बात पर निर्भर करेगा कि संबंधित व्यक्ति किस उम्र में योजना से जुड़ता है. स्वावलंबन योजना के मौजूदा अंशधारक यदि इससे बाहर निकलने का विकल्प नहीं चुनते हैं, तो उन्हें अपने आप इस पेंशन योजना में शामिल कर लिया जायेगा.
वित्त मंत्रालय के मुताबिक, इस योजना के तहत असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले उन सभी नागरिकों पर जोर होगा, जो पेंशन कोष नियामक और विकास प्राधिकरण द्वारा संचालित राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) में शामिल हैं और वे जो किसी सांविधिक सामाजिक सुरक्षा योजना से नहीं जुड़े हैं. इस योजना से जुड़ने के लिए न्यूनतम उम्र 18 वर्ष जबकि अधिकतम उम्र 40 वर्ष है. यानी किसी भी अंशधारक का इसमें कम से कम 20 वर्षो तक योगदान होना जरूरी किया गया है.
सरकार की ओर से निश्चित पेंशन लाभ की गारंटी दी गयी है. सरकार इस पेंशन योजना में भागीदारी करने वाले अंशधारकों की तरफ से वार्षिक प्रीमियम का 50 प्रतिशत या फिर 1,000 रुपये (दोनों में जो भी कम होगा) आगामी पांच वर्षो तक योगदान करेगी.
प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना
प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना देश के 18 से 50 साल के लोगों के लिए शुरू की गयी है. इस योजना से जुड़ने के लिए लोगों के पास महज एक बैंक खाता होना चाहिए. योजना में 2 लाख रुपये तक का जोखिम कवर होगा और सालाना प्रीमियम 330 रुपये निर्धारित किया गया है.
इसके लिए ऐसी व्यवस्था की जा रही है, ताकि प्रीमियम की रकम सीधे खाताधारक के खाते से निर्धारित तिथि को काट ली जाये. ऐसे में इस योजना से जुड़े लोगों को प्रीमियम जमा करने की मुसीबतों से छुटकारा मिल सकता है. हां, खाताधारकों को इतना जरूर ध्यान रखना होगा कि उनके खाते में पर्याप्त रकम होनी चाहिए.
पं दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते योजना
देशभर में विभिन्न संगठनों में कार्यरत श्रमिकों को औद्योगिक विकास के लिए समुचित माहौल मुहैया कराने और उन्हें सभी निर्धारित सुविधाएं दिये जाने के संबंध में श्रम मंत्रालय के तहत इस योजना को शुरू किया गया है. इस योजना की शुरुआत 16 अक्तूबर, 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गयी थी.
अंत्योदय योजना
देशभर में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करनेवाले लोगों के लिए केंद्र सरकार ने 25 सितंबर, 2014 को इस योजना की शुरुआत की थी. शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय और ग्रामीण मंत्रालय की देखरेख में यह योजना शुरू की गयी है, जिसके तहत योजना के दायरे में आनेवालों लोगों को स्किल ट्रेनिंग मुहैया करायी जायेगी. भारत सरकार ने इस योजना के लिए 500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है.

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