पिछले कुछ दशकों से कांग्रेस की सरकारों के दौरान कई बड़े घोटाले सामने आये हैं. इससे खराब हुई छवि का खामियाजा कांग्रेज को राजनीतिक रूप से भी उठाना पड़ा है. ऐसे में कांग्रेस को जयललिता के मामले में ऐसा कोई रवैया नहीं अपनाना चाहिए, जो भ्रष्टाचार से सांठगांठ की उसकी छवि को पुख्ता बनाये.
सामान्यत: न्यायालयों में निर्णय का आधार वे साक्ष्य और तथ्य होते हैं, जो न्यायाधीश के सामने प्रस्तुत किये जाते हैं. जब अभियोजन या बचाव पक्ष किसी फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालतों में अपील करता है, तो उसकी दलील यह होती है (उस विशेष स्थिति को छोड़ कर जब कोई नया तथ्य इसी बीच सामने आ जाये) कि निचली अदालत ने उन साक्ष्यों और तथ्यों को समझने या विश्लेषण करने में चूक की है.
लेकिन, आय से अधिक संपत्ति मामले में निचली अदालत से सजायाफ्ता तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री व अन्ना द्रमुक की प्रमुख डॉ जे जयललिता को कर्नाटक उच्च न्यायालय की एकल खंडपीठ द्वारा बरी किये जाने के मामले में न्याय-प्रक्रिया का यह सिद्धांत कसौटी पर है. इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने के मसले पर राजनीतिक सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है.
स्वाभाविक रूप से एक राजनेता से जुड़ा मामला होने के कारण पूरे प्रकरण में राजनीति भी एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में शामिल है.
बहरहाल, राजनीतिक पहलू पर चर्चा से पहले इस मसले पर एक सरसरी निगाह डालना जरूरी है. कर्नाटक हाइकोर्ट की एक खंडपीठ ने विगत 11 मई को दिये निर्णय में लिखा है कि जयललिता की आय में 18.17 करोड़ रुपये बतौर ¬ण लिये गये हैं.
इस हिसाब से यह मामला आय से महज 8.12 फीसदी अधिक संपत्ति का है और अभियुक्त के बरी होने का आधार बनता है. लेकिन कर्नाटक सरकार द्वारा नियुक्त विशेष लोक अभियोजक बीवी आचार्य का कहना है कि न्यायाधीश ने सही तरीके से ¬णों और अन्य स्नेतों से हुई आय को नहीं जोड़ा है. उनके अनुसार आय से अधिक संपत्ति का वास्तविक प्रतिशत 76.75 फीसदी है. यही तथ्य जयललिता के राजनीतिक विरोधियों ने भी रेखांकित किया है.
उधर, पूर्व मुख्यमंत्री के समर्थकों का कहना है कि ये आरोप फैसले के दस्तावेज की पृष्ठ संख्या 852 पर प्रकाशित आंकड़ों के आधार पर लगाये जा रहे हैं, जबकि अन्य पृष्ठों, खास कर संख्या 851, के आंकड़ों के साथ देखें, तो निर्णय का आधार बिल्कुल सही है.
यहां यह जानना भी दिलचस्प होगा कि दंड प्रक्रिया संहिता का अनुच्छेद 362 फैसले के दस्तावेज को तैयार करने में हुई किसी तरह की भाषिक या आंकिक चूक के सुधार की अनुमति देता है. परंतु, इस मसले में अगर चूक हुई है, तो सुधार के बाद पूरा फैसला ही पलट जायेगा. सच जो भी हो, इतना तो माना जाना चाहिए कि अगर फैसले में कोई कमी दिख रही है, तो अभियोजन पक्ष को सर्वोच्च न्यायालय में अपील करनी चाहिए.
कुछ वर्षों से यह मसला राजनीतिक विमर्श के केंद्र में भी है. ऐसे में अगर उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती नहीं दी गयी, तो स्वाभाविक रूप से जनता में इसके पीछे राजनीतिक संरक्षण का संदेह पैदा होगा. ध्यान रहे, पिछले साल 27 सितंबर को आये विशेष अदालत के फैसले में जयललिता और अन्य तीन अभियुक्तों को चार वर्ष के कारावास की सजा के साथ भारी जुर्माना भी लगाया था. यहां सवाल किसी अदालत के फैसले के सही या गलत होने का नहीं है, बल्कि न्याय प्रक्रिया के सही अनुसरण का है. रिपोटरें के मुताबिक विशेष लोक अभियोजक ने सरकार को सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह दी है.
सरकार के विधि सलाहकार बृजेश कलप्पा की भी यही राय है. मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी कहा है कि सरकार राजनीति से परे कानूनी कदम उठायेगी. परंतु, कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री एमवी राजशेखरन का कहना है कि तमिलों को बेमतलब नाराज करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए और जयललिता जैसी बड़ी नेता के खिलाफ पार्टी को अपनी तरफ से मामला नहीं उठाना चाहिए. ऐसे में माना जा रहा है कि कर्नाटक सरकार कांग्रेस आलाकमान की हरी झंडी के बिना इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय नहीं ले जायेगी. पिछले कुछ दशकों से कांग्रेस की सरकारों के दौरान बोफोर्स से लेकर टूजी स्पेक्ट्रम और कोलगेट तक कई बड़े घोटाले सामने आये हैं, जिसमें उसके नेताओं पर भी आरोप लगे हैं.
इससे खराब हुई छवि का खामियाजा कांग्रेज को राजनीतिक रूप से भी उठाना पड़ा है. ऐसे में कांग्रेस को जयललिता के मामले में ऐसा कोई रवैया नहीं अपनाना चाहिए, जो भ्रष्टाचार से सांठगांठ की उसकी छवि को पुख्ता बनाये.
हालांकि कर्नाटक सरकार को अपील के लिए 90 दिन की मोहलत मिली है और किसी निर्णय से पहले सोच-विचार जरूरी है, लेकिन कर्नाटक सरकार और कांग्रेस को चाहिए कि ऐसे मामलों में भ्रष्टाचार और राजनीति का घालमेल न करे.