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इस नाटक में अनर्गल कुछ नहीं

कंपनियां पूर्वाग्रह नहीं पैदा करतीं, बस औरों की मूर्खता से धन कमाती हैं. बड़ी कंपनियां फतांसी से धन बनाना जानती हैं. आपको कंपनियों के खिलाफ कानून बनाने की जरूरत नहीं है, आप ग्राहक की चिंता करें. समकालीन नगरीय भारत की बेहतर तसवीर इनमें से कौन प्रस्तुत करता है : स्टेडियम में बैठ कर इंडियन प्रीमियर […]

कंपनियां पूर्वाग्रह नहीं पैदा करतीं, बस औरों की मूर्खता से धन कमाती हैं. बड़ी कंपनियां फतांसी से धन बनाना जानती हैं. आपको कंपनियों के खिलाफ कानून बनाने की जरूरत नहीं है, आप ग्राहक की चिंता करें.

समकालीन नगरीय भारत की बेहतर तसवीर इनमें से कौन प्रस्तुत करता है : स्टेडियम में बैठ कर इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) का मैच देखते लोग, या हर ओवर के बाद या बीच-बीच में स्ट्रैटजिक टाइम आउट के दिखावटी नाम से होनेवाले ब्रेक के दौरान टेलीविजन प्रसारण में दिखाये जानेवाले विज्ञापन? यहां महत्वपूर्ण शब्द है ‘बेहतर’; क्योंकि दोनों ही स्पष्टता के साथ वास्तविक जीवन की झलक प्रदिर्शत करते हैं, जो रंगमंच के कृत्रिम सज्जा से लबरेज वातावरण में ही संभव हो सकता है.

आइपीएल की वंशावली बहुत उत्कृष्ट है. यह जाना-माना विश्लेषण है कि रोम के शासक इस बात को भली-भांति जानते थे कि उनका अस्तित्व नागरिकों को रोटी और तमाशे उपलब्ध करा कर ही बचा रह सकता है. आखिरकार, आदमी सिर्फरोटी से जीवित नहीं रह सकता है, और यह बहुत ही अच्छी खबर है कि आजकल यह बात औरतों के बारे में भी कही जा सकती है. इनदिनों दिखाया जानेवाला तमाशा हमारे सामने जाहिर है, और यह काफी उपयोगी है. क्रि केट स्टेडियम भी बिल्कुल रोम के कोलोसियम की तर्ज पर बनाये जाते हैं. सिवाए बाद में जोड़े गये आधे छत के इनमें कोई खास अंतर नहीं है.

हिंसा की आधुनिक भूख पहले की अपेक्षा अधिक जटिल है, इसलिए बख्तरबंद पहने ग्लैडिएटरों की जगह हमारे सामने हेलमेट लगाये बल्लेबाज होते हैं. हत्या अब स्वीकार्य नहीं रही, इसलिए आक्रामक उल्लास बल्लेबाज के बाहर जाने के मौके की जगह अब पारी की समाप्ति के लिए आरक्षित है. अंगूठा नीचे करने के पुराने सलीके से थोड़ा अलग अब अंपायर एक अंगुली ऊपर कर देता है. शासक वर्ग विशेष बक्सों में बैठता है, जबकि सजे-संवरे नागरिक सीढ़ीनुमा दीर्घाओं में भरे होते हैं. तो, कैमरा हमें नागरिकों के बारे में क्या बताता है?

21वीं सदी के युवा भारतीय निश्चित रूप से अपने माता-पिता से बेहतर दिखते हैं. यह सिर्फ जीवन का एक पडाव भर नहीं है. युवा हमेशा ही सुंदर होते हैं क्योंकि वे भविष्य से संबद्ध होते हैं जबकि बढ़ती उम्र के लोग आईनों में जकड़े होते हैं. स्वास्थ्य और चमक बेहतर दिनों के सूचक हैं. पहनावे में आजादी है और अनौपचारिक पोशाक आकर्षक दिखते हैं.

देश के रूप में हम भले ही लैंगिक समानता के मामले में कुछ पीछे हैं, लेकिन कुछ ऐसा है, जिसे मैं लैंगिक संतुलन कहता हूं. युवा आपस में अधिक सहज हैं. इसे आप 1950 और 1960 के दशकों की फिल्मों से तुलना करना करें, जब विश्वविद्यालयों के सभागारों में लड़के-लड़कियां अलग-अलग बैठते थे. जो राजनेता इसे नहीं समङोंगे, उन्हें कभी युवाओं का समर्थन नहीं मिलेगा. वे बस पुराने पड़ चुके नैतिकतावादियों का साथ ही हासिल हो सकेगा. यह एक अच्छी खबर है.

लेकिन हमारे प्रसिद्ध दंभ का दम पूरी तरह टूटा नहीं है. हर टीम ने महिला चीयरलीडरों को किराये पर लिया है, जो भुगतान के बदले निपुणता के साथ चुंबन उछालती हैं और आंखें मारती हैं. हालांकि, वे सभी विदेशी हैं. भली भारतीय लड़कियों को ऐसे कम कपड़ों में नहीं दिखना चाहिए, लोग क्या कहेंगे? जब भारतीय लड़कियों को इस समूह में शामिल किया जाता है, तो वे साड़ियां पहनती हैं और कुछ क्लासिकल सी हरकतें करती हैं. आधुनिक पहनावा और मोहक आंखों को इंटरव्यू वाले क्षेत्र तक अनुमति है, लेकिन उन्हें चीयर वाली जगह से दूर रखा जाता है. बहरहाल, आप निराश न हों. यह सब बस समय की बात है.

सबूत? विज्ञापन. भारतीय महिलाएं शॉर्ट स्कर्ट में दिखती हैं और पुरु ष अपनी खुली छातियां दिखाते हैं. पुरु षों के बहुत सस्ते परफ्यूम के एक विज्ञापन में हर तरह की हरकतें खूब प्रदर्शित की गयी हैं. एक आदमी अकड़ के साथ कैमरा की तरफ आता है, उसको प्रशंसात्मक निगाह से देखती एक एअर होस्टेस बगल से गुजरती है. इस विज्ञापन का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है. अगर आप किसी स्त्री को मोहित करना चाहते हैं, तो आप इस परफ्यूम में नहा कर निकलें. यह विज्ञापन असरदार है, ऐसा नहीं होता, तो इसका प्रसारण बंद हो जाता.

गोरापन बेचने का सफल पैंतरा है. यूरोपीय कंपनी फिलिप्स के इलेक्ट्रिक शेवर के विज्ञापन में एक गहरा सांवला आदमी चेहरे पर जंगल उगाये दिखता है. परंपरागत तरीके से दाढ़ी के बाल निकालने के चक्कर में उसका गाल छिल जाता है. तभी फिलिप्स शेवर आता है. उससे न सिर्फ दाढ़ी से छुटकारा मिलता है, बल्कि आदमी भी गोरा होने लगता है. यह शेविंग नहीं, पुनर्जन्म है. यह भी प्रसारित होता जा रहा है.

रंग को लेकर भारतीयों के पूर्वाग्रह के बारे में और सबूत की जरूरत नहीं है. कंपनियां भी रंग नहीं देखतीं, उन्हें सिर्फ मुनाफा दिखता है. वे पूर्वाग्रह नहीं पैदा करतीं, बस औरों की मूर्खता से धन कमाती हैं. बड़ी कंपनियां फंतासी से धन बनाना जानती हैं. आपको कंपनियों के खिलाफ कानून बनाने की जरूरत नहीं है, आप बस ग्राहक की चिंता करें.

एमजे अकबर

प्रवक्ता, भाजपा

delhi@prabhatkhabar.in

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