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शौरी की बातें कड़वी, पर गौरतलब

भाजपा का सारा कामकाज जो त्रिमूर्ति – मोदी, शाह, जेटली- चला रही है, उससे अरुण शौरी ही नहीं, बहुत अन्यान्य भी असहज हैं. ये बातें कड़वी जरूर हैं, पर सार्थक बहस शुरू कर सकती हैं, इसलिए स्वागतयोग्य हैं. वरिष्ठ पत्रकार, अर्थशास्त्री एवं पूर्व मंत्री अरुण शौरी ने पिछले दिनों एक निजी टीवी चैनल को दिये […]

भाजपा का सारा कामकाज जो त्रिमूर्ति – मोदी, शाह, जेटली- चला रही है, उससे अरुण शौरी ही नहीं, बहुत अन्यान्य भी असहज हैं. ये बातें कड़वी जरूर हैं, पर सार्थक बहस शुरू कर सकती हैं, इसलिए स्वागतयोग्य हैं.
वरिष्ठ पत्रकार, अर्थशास्त्री एवं पूर्व मंत्री अरुण शौरी ने पिछले दिनों एक निजी टीवी चैनल को दिये साक्षात्कार में मोदी सरकार की सफलताओं, उपलब्धियों और विफलताओं-सीमाओं के बारे में बेहद विचारोत्तेजक टिप्पणियां की हैं. एनडीए-भाजपा समर्थकों के लिए इस आलोचना को यह कह कर खारिज करना आसान नहीं होगा कि अरुण तो दिलजले बैठे हैं कि उन्हें न वित्त मंत्री बनाया गया और न ही नीति आयोग का अध्यक्ष! हमेशा की तरह शौरी ने इस बार भी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को सार्वजनिक हित पर हावी नहीं होने दिया. उन्होंने संयत भाषा में अकाट्य तर्को की झड़ी लगा कर दर्शकों-श्रोताओं को गंभीरता से बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया.
आरंभ में ही यह साफ करने की जरूरत है कि जहां प्रशंसनीय कार्य किया गया है वहां शौरी ने तारीफ करने में कंजूसी नहीं बरती. विदेश नीति के क्षेत्र में उन्होंने यह स्वीकार किया कि मोदी के राजनय ने न सिर्फ गतिरोध तोड़ा है, वरन् इस बात को रेखांकित किया है कि भारत की असली प्रतिस्पर्धा चीन से है. दक्षिण एशिया, जापान, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि के साथ घनिष्ठता बढ़ाने का अभियान सुचारु रूप से संपन्न हो सका है तो मोदी की पहल और दूरदर्शिता के कारण ही! इस मामले में पाकिस्तान को एकमात्र अपवाद समझना चाहिए, जहां सख्ती या नरमी जैसे किसी भी विकल्प को अपनाने से कोई लाभ हाथ नहीं लगा है. इसकी जिम्मेवारी मात्र भारत सरकार की नहीं हो सकती है. हां, इस गलतफहमी से छुटकारा पाने की दरकार है कि पाकिस्तान के साथ रिश्तों में नाटकीय या तत्काल सुधार की आशा व्यर्थ है.
जिस बात से शौरी सर्वाधिक आशंकित नजर आये, वह आर्थिक नीति में दिशाहीन नेतृत्व की किंकर्तव्यविमूढ़ता है. शौरी ने कहा कि जेटली का आचरण वकील जैसा है, अर्थव्यवस्था के जानकार सरीखा नहीं. प्रधानमंत्री का सोच अब भी राज्य के मुख्यमंत्री वाला है, जिनकी तमाम चिंता बड़े प्रोजेक्ट्स को ले कर रहती है- राष्ट्र स्तर पर वृहत्तर परिदृश्य से वह अनभिज्ञ ही प्रतीत होते हैं. उनका ज्यादा जोर सुर्खियों को अनुकूल बनाने पर ही रहता है. इसी कारण पारिख जैसे उद्यमी की आलोचना को भी नजरअंदाज किया जा रहा है.
आंकड़ों की जादूगरी से कुछ हासिल होनेवाला नहीं. अंतत: जमीनी हकीकत कृषि के संकट को दूर कर तथा औद्योगिक उत्पादन बढ़ा कर ही बदली और बेहतर बनायी जा सकती है. इस बात को भी भुला नहीं सकते कि विकास की दर तेज करने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश की आवश्यकता है, जिसके आसार नजर नहीं आ रहे. कर तथा श्रम कानूनों में अपेक्षित सुधार के अभाव में फिर से गतिरोध पैदा हो रहा है.
सबसे अधिक संकट जिस वजह से पैदा हुआ है, वह विपक्ष के साथ मुठभेड़ का माहौल पैदा कर आ बैल मुङो मार वाली स्थिति को बरकरार रखनेवाली मानसिकता से जुड़ा है. जब अमित शाह पश्चिम बंगाल जा कर यह ललकार गुंजाते हैं कि मैं यहां तृणमूल को जड़ से उखाड़ने के लिए आया हूं, तब कैसे वह यह आशा कर सके हैं कि ममता उनकी पार्टी को संसद में किसी भी विधेयक को पारित कराने के लिए समर्थन देंगी? भूमि अधिग्रहण कानून से जुड़ा विवाद भी ऐसी ही अदूरदर्शिता से जन्मा है. कद्दावर नेताओं के अहंकार के कारण ही अपने सहयोगी दलों से मनोनालिन्य जटिल हुआ है. इससे तमाम दूसरे विपक्षी दलों को एनडीए के खिलाफ मोर्चाबंदी का मौका मिला है.
जो बात मोदी के प्रशंसक-समर्थक भूल जाते हैं, वह यह है कि भले ही लोकसभा में उनके पास 323 सीटें हैं, पर मतदान का 31 प्रतिशत ही उन्हें प्राप्त हुआ है. अर्थात् मतदाता का दो तिहाई हिस्सा उनके साथ नहीं है. इसीलिए सबको साथ लेकर चलना मजबूरी है इस सरकार की! भारत की संघीय प्रणाली में राज्यों से बैर का भाव स्थायी नहीं रह सकता. जो विषय उनके कार्याधिकार में हैं, उनमें हस्तक्षेप का लोभ संवरण केंद्र को करना ही होगा. इस समझदारी के अभाव से बड़ा नुकसान हो सकता है. न्यायपालिका के साथ मुठभेड़ की मुद्रा अपनाने से भी कुछ लाभ नहीं होगा. न्यायपालिका में सुधार के सवाल पर सर्वसम्मति असंभव नहीं, परंतु यहां भी उतावलापन से काम बिगड़ता दिख रहा है. यह संदेह नाजायज नहीं कि यह सरकार अदालतों के पर कतरने पर आमादा है.
जनतांत्रिक राजनीति में बहुमत की महत्ता है, लेकिन इसका अर्थ अल्पमत की उपेक्षा-अवहेलना नहीं होता. आज अगर अल्पसंख्यक समुदायों के कुछ सदस्य अपने को संकटग्रस्त महसूस कर रहे हैं, तो उनको आश्वस्त करना सरकार का कर्तव्य है. शौरी द्वारा मोदी सरकार के विश्लेषण का यही भाग उनके दल वालों को सबसे अधिक नागवार गुजरा है. आखिर क्यों शौरी रिबैरो की शिकायत से बौखलाये हैं? सोचने की बात यह है कि जब रिबैरो जैसा बुजुर्ग खिन्न हो सकता है, तो गरम खूनवाले नौजवानों की प्रतिक्रिया कितनी विस्फोटक हो सकती है और हमारे बैरी उसका कितना दुरुपयोग कर सकते हैं?
शौरी ने दो टूक उन नौजवान नौकरशाहों की तारीफ की- अमिताभ कांत जैसे- जो नयी सरकार की नीतियों को सफल बनाने के लिए लगातार परिश्रम कर रहे हैं. पर साथ ही वह यह जोड़ना नहीं भूले कि मोदी अपने मंत्रियों से कहीं ज्यादा तवज्जो नौकरशाहों को देते हैं. यह आभास संसदीय जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं. नौकरशाही का अपना चरित्र और संस्कार होता है और एक संस्थागत स्मृति भी. जनादेश को निर्थक बनाकर यथास्थिति को बरकरार रखने में उसे असाधारण महारत प्राप्त है. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और खास कर अपने मंत्रियों को हाशिये पर पहुंचाना अक्लमंदी नहीं समझी जा सकती.
मजेदार बात यह है कि शौरी यह कड़वी दवाई मीठी चाशनी में घोल कर पिला रहे थे. बारंबार यह कहते हुए कि मेरी राय में आज भी मोदी सबसे बेहतर व्यक्ति हैं देश की समस्याओं के समाधान के लिए. वह यह भी दोहराते रहे कि मैं प्रामाणिक तौर पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं, चीजों को देखते हुए मुङो ऐसा लगता है. लेकिन कुल मिलाकर असर यही छूटा कि यह घड़ी उपलब्धियों का जश्न मनाने की नहीं, गंभीरता से आत्मनिरीक्षण की है- समय रहते भूल सुधार तथा समुचित दिशा-निर्देश की.‘मन की बात’ से प्रधानमंत्री अवाम से तो जुड़े, पर इसी कारण यह अपेक्षा भी जगा रहे हैं कि हर महत्वपूर्ण घटना पर सीधे देश को संबोधित करेंगे. जब ‘लव जिहाद’ या ‘घर वापसी’ पर वह ट्वीट नहीं करते, तो गलतफहमी ही पैदा हो सकती है. भाजपा का सारा कामकाज जो त्रिमूर्ति – मोदी, शाह, जेटली- चला रही है, उससे शौरी ही नहीं, बहुत अन्यान्य भी असहज हैं. ये बातें कड़वी जरूर हैं, पर सार्थक बहस शुरू कर सकती हैं, इसलिए स्वागतयोग्य हैं.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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