सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी नये सत्र का पाठ अभी समझ ही रहे थे कि उनकी पढ़ाई ठप हो गयी है. नौ अप्रैल से नियोजित शिक्षक हड़ताल पर हैं. फिर उनके समर्थन में एक मई से हाई स्कूल और प्लस टू स्कूल के शिक्षकों ने हड़ताल शुरू की. जिन बचे-खुचे स्कूलों में पढ़ाई चल रही थी, उनमें तैनात स्थायी शिक्षक भी चार मई से हड़ताल पर जाने वाले हैं. नियोजित शिक्षक जिस स्थायी वेतनमान की मांग को लेकर हड़ताल पर हैं, उनका सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों या उनके पाठय़क्रम से कोई लेना-देना नहीं है.
इस मांग का सीधा संबंध तो राज्य सरकार और सरकार के बजट से है, लेकिन विडंबना देखिए कि सरकार से शिक्षकों की लड़ाई की कीमत बच्चे अपनी पढ़ाई के रूप में चुका रहे हैं. हड़ताल से आखिर किसका नुकसान हो रहा है? उन बच्चों का, जिनके माता-पिता महंगे निजी स्कूलों का खर्च उठाने की कुव्वत नहीं रखते या जिनका सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर भरोसा अब भी है.
हड़ताल के पक्ष में अधिकार का तर्क देना, शिक्षक पेशे से जुड़े सामाजिक दायित्वों और नैतिक जिम्मेवारियों से मुंह मोड़ने जैसा है. नियोजित शिक्षकों को नौ हजार से 12 हजार रुपये तक मानदेय मिलता है. सरकार का आकलन है कि नियोजित शिक्षकों को वेतनमान देने पर करीब 20 हजार करोड़ रुपये का सालाना भार आयेगा. सरकार ने इस पर विचार के लिए एक कमेटी का गठन किया है, जिसकी रिपोर्ट एक माह में आने वाली है. नियोजित शिक्षक इस कमेटी के समक्ष वेतनमान के समर्थन में मजबूत और तथ्यात्मक तर्क पेश कर सकते थे.
वे स्कूलों में पढ़ाई ठप कराने के बजाय अपनी मांग के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए इस मुद्दे को पूरे समाज के सामने ले जा सकते थे. तब शायद उनकी मांग के साथ एक बड़ा जनसमूह खड़ा होता. फिलहाल तो उन्होंने हड़ताल का जो रास्ता चुना है, उससे समाज के गरीब, कमजोर और वंचित समुदाय को नुकसान हो रहा है. हड़ताल लंबी खिंची तो इस नुकसान की बड़ी कीमत बिहार को भी उठानी होगी. मैट्रिक परीक्षा की कॉपियों का मूल्यांकन बाधित होने से रिजल्ट भी देर से निकलेगा और इससे हजारों बच्चे दूसरे राज्यों के संस्थानों में नामांकन से वंचित हो जायेंगे. फिर इसकी जवाबदेही कौन लेगा?