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संघर्ष में ही वामपंथ की संभावनाएं

अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ स्तंभकार भारतीय वामपंथ ने हमेशा कृषि क्रांति के मुद्दों को अपनी राजनीति के केंद्र में रखा है. पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में उसी के नेतृत्व में भूमि सुधार और पंचायती राज की स्थापना के संघर्ष को जो अभूतपूर्व सफलता मिली, वह किसी से छिपी नहीं है. कृषि क्षेत्र के कार्यकर्ता ही […]

अरुण माहेश्वरी

वरिष्ठ स्तंभकार

भारतीय वामपंथ ने हमेशा कृषि क्रांति के मुद्दों को अपनी राजनीति के केंद्र में रखा है. पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में उसी के नेतृत्व में भूमि सुधार और पंचायती राज की स्थापना के संघर्ष को जो अभूतपूर्व सफलता मिली, वह किसी से छिपी नहीं है. कृषि क्षेत्र के कार्यकर्ता ही वामपंथ की शक्ति के मूल स्नेत रहे हैं. ऐसे में सभी वामपंथी ताकतों की संयुक्त शक्ति भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व दे सकती है.

व्यक्ति नहीं, नीतियां प्रमुख होती हैं- राजनीति के क्षेत्र में इस तरह की आदर्श, आप्त बातों के खोखलेपन के इतिहास-बोध के आधार पर ही हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि सीपीआइ (एम) के महासचिव पद पर सीताराम येचुरी के आने से निश्चित तौर पर भारत की वामपंथी राजनीति के एक नये चरण का सूत्रपात होगा.

इसकी परिणतियों के तमाम सीमांत क्या-क्या होंगे, अभी उसके बारे में निश्चय के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है. लेकिन यह तय है कि कुछ जड़ताएं टूटेंगी. भारत के संसदीय जनतंत्र में पहले की अपेक्षा वामपंथ की गतिशीलता बढ़ेगी; वह अपने नेतृत्व की चली आ रही पथरीली संवादहीनता की व्याधि से मुक्त होगा.

अगर सब सही हुआ, तो वामपंथ के अंदर दूर-दूर तक पसरे संवेदनशून्य नौकरशाही के ढांचे में दरारें पड़ेंगी, मानवीय खुलापन आयेगा और वामपंथी राजनीति मेहनतकश जनता के जीवन-संघर्षो की शक्ति से ऊर्जस्वित होकर देश के नये भावी नेतृत्व को भी जन्म देगी.

यह सब हमारा कोई ख्याली पुलाव नहीं है. सीपीआइ (एम) के नेतृत्व में यह परिवर्तन एक ऐसे महत्वपूर्ण समय में हुआ है, जब भारत की राजनीति साफ तौर पर संक्रमण के एक नये बिंदु की ओर बढ़ती हुई नजर आ रही है.

मोदी सरकार कोई चमक दिखाने के पहले ही बड़े लोगों की दासता की हीनता का प्रदर्शन करके लोगों की नजर में म्लान हो गयी है. मजदूर वर्ग को तो इसने अपना जन्मजात शत्रु मान कर ही अपने शासन की यात्रा शुरू की थी. जिस दिन इसने अपनी दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते स्कीम की घोषणा की थी, उस दिन को देश की सभी ट्रेड यूनियनों ने भारत के मजदूरों के जीवन में एक काला दिवस बताया था.

वह बहु-राष्ट्रीय निगमों को श्रम कानूनों में तमाम रियायतें देने के आश्वासनों पर पूरी नंगई के साथ अमल करने की उसकी शुरुआत है. पूंजी और श्रम के विरोध के बीच सरकार की जो एक अंपायर की भूमिका होती है, ताकि कोई श्रमिकों के साथ अन्याय न करने पाये, उस स्कीम के जरिये सरकार ने अपनी उस भूमिका के अंत की घोषणा कर दी.

अब भूमि अधिग्रहण विधेयक के जरिये उसने मेहनतकश जनता के सबसे बड़े हिस्से किसानों को अपने हमलों का निशाना बनाया है. उद्देश्य एक ही है- कॉरपोरेट की अंतहीन लिप्सा के रास्ते की सारी बाधाओं को दूर करना.

यूपीए-2 सरकार के काल में कितनी लंबी बहसों, गहरी छान-बीन और देश के कोने-कोने में उभर रहे आंदोलनों की पृष्ठभूमि में जो भूमि अधिग्रहण कानून पारित हुआ था, उसे एक झटके में, स्वेच्छाचारी ढंग से इसने उलट दिया है. यूपीए-2 के काल में बने कानून में किसानों की जमीन की हिफाजत की गारंटी की गयी थी और उनकी स्वीकृति से किये गये अधिग्रहण में भी उन्हें भरपूर मुआवजा देने के प्राविधान थे.

मनमाने ढंग से किसानों के जीवन पर पड़नेवाले प्रभावों की बगैर कोई परवाह किये ही उनकी जमीन को छीन लिये जाने पर रोक लगायी गयी थी. एक ऐसे ऐतिहासिक कानून की हत्या के लिए अध्यादेश पर अध्यादेश के जरिये आक्रमण करके मोदी सरकार ने देश के किसानों के खिलाफ एक चरम निष्ठुर तानाशाही का रुख अपना लिया है.

और तो और, जब कृषि का संकट देश के हर कोने में सबसे विकट रूप में सामने आ रहा है, कोई राज्य ऐसा नहीं है, जहां किसानों की आत्महत्या की घटनाएं न घट रही हों, ऐसे निर्मम समय में इस सरकार के बजट में ग्रामीण जनता की कल्याण योजनाओं की कई मदों में कटौती की गयी है.

प्रधानमंत्री सब्सिडी के मसले पर हिकारत के इतने गहरे भाव से बात करते हैं, जैसे उनकी नजर में आम लोगों द्वारा सरकार से किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति की मांग उससे कोई भीख मांगने जैसा है. देश की व्यापक जनता में भिखारी होने का हीन भाव भरने का प्रधानमंत्री का यह निर्दयी अभियान एक कल्याणकारी राज्य के मुखिया के लिए किसी अक्षम्य अपराध से कम नहीं है.

संसद के पटल पर मनरेगा को देश का कलंक बताना, विदेशों में कल्याणकारी योजनाओं की हंसी उड़ाना, साधारण जन को नीची नजर से देखने की उनकी भावना को बताने के लिए काफी है. मजे की बात यह है कि यही सरकार अपने बजट में बड़े आराम से कॉरपोरेट घरानों को अरबों-खरबों की रियायते देने में जरा भी संकोच नहीं करती. गरीबों की सेवा का दावा करनेवाली इस सरकार की गरीब-किसान विरोधी इन सभी पहलों को आखिर किस राजनीतिक विडंबना के दायरे में देखा जाये!

उभरते हुए नये राजनीतिक परिदृश्य की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी तथा उनकी सरकार का गरीब जनता के प्रति हिकारत से भरा नजरिया आज जनसाधारण के सामान्य बोध में प्रवेश कर चुका है.

इसके साथ ही डिजिटल इंडिया की बात करनेवाली नेट न्यूट्रेलिटी के मसले पर इस सरकार के कॉरपोरेट-परस्त रुख ने भी पढ़े-लिखे नौजवानों को गहरी शंकाओं से भर दिया है. इस प्रकार, इस सरकार के खिलाफ देश की जनता के व्यापकतम संयुक्त प्रतिरोध संघर्ष की सारी संभावनाएं अब राजनीति के क्षितिज पर उभरती हुई साफ नजर आने लगी हैं.

ऐसे समय में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का एक प्रभावशाली विपक्ष के नेता के रूप में उभरना, मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पर प्रकाश करात की जगह सीताराम येचुरी का आना, जो इधर के कुछ वर्षो में वामपंथ के साथ जुड़ गये अंध कांग्रेस-विरोध की बीमारी से मुक्ति का आधार बन सकता है और इनके साथ ही नयी एकीकृत समाजवादी पार्टी का भी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ समझौताहीन रवैया आनेवाले समय में राजनीति की अनंत संभावनाओं की ओर संकेत कर रहा है.

भारतीय वामपंथ ने हमेशा कृषि क्रांति के मुद्दों को अपनी राजनीति के केंद्र में रखा है. पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में उसी के नेतृत्व में भूमि सुधार और पंचायती राज की स्थापना के संघर्ष को जो अभूतपूर्व सफलता मिली, वह किसी से छिपी नहीं है. कृषि क्षेत्र के कार्यकर्ता ही वामपंथ की शक्ति के मूल स्नेत रहे हैं.

ऐसे में सभी वामपंथी ताकतों की संयुक्त शक्ति भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व दे सकती है और गहरी राजनीतिक सूझ-बूझ और उदारता के साथ इस लड़ाई को जनता के व्यापकतम संयुक्त प्रतिरोध की लड़ाई में बदल सकती है.

किसान, मजदूर और नौजवानों की संयुक्त शक्ति से ऐसे किसी भी संघर्ष के विकास में हमें भारतीय वामपंथ के विस्तार की भी अनंत संभावनाओं की उभरती हुई तसवीर साफ नजर आती है.

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