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बच्चे को नन्हा दोस्त समझ कर पालेंगे, तो बना रहेगा संवाद

वीना श्रीवास्तव लेखिका व कवयित्री ‘आप सब अपना बचपन याद करिए. आपको भी डांट पड़ती थी! जब-जब डांट पड़ी, अधिकांश समय क्या आपको गुस्सा नहीं आया? जब भी कोई मनपसंद काम करने के लिए रोका-टोका गया, क्या आक्रोश नहीं आया? जब-जब आपकी बात माता-पिता नहीं समङो, तब-तब आपको क्या यह नहीं लगा कि यह जेनरेशन […]

वीना श्रीवास्तव
लेखिका व कवयित्री
‘आप सब अपना बचपन याद करिए. आपको भी डांट पड़ती थी! जब-जब डांट पड़ी, अधिकांश समय क्या आपको गुस्सा नहीं आया? जब भी कोई मनपसंद काम करने के लिए रोका-टोका गया, क्या आक्रोश नहीं आया? जब-जब आपकी बात माता-पिता नहीं समङो, तब-तब आपको क्या यह नहीं लगा कि यह जेनरेशन गैप है?
उस समय लड़के-लड़कियों ने सोचा भी होगा कि मैं एक बेहतर पिता या बेहतर मां बनूंगी और अपने बच्चे को वह आजादी दूंगी, जो मुङो नहीं मिल रही है.’
मेरे छोटे-बड़े सभी मित्रों को नमस्कार. आप सबके बहुत से इ-मेल मिलते रहते हैं, जिसमें प्रशंसा तो होती ही है, साथ ही आपकी परेशानियों का भी जिक्र होता है और फिर उन परेशानियों को मैं कहानी के माध्यम से आपके सामने रखती हूं.
मगर जब से किशोरावस्था के समय सामने आनेवाली समस्याओं की चर्चा हो रही है, इस विषय पर बहुत मेल मिले हैं, जिसमें बच्चों की तादाद ज्यादा है. इसीलिए सोचा कि आपसे सीधे संवाद करना चाहिए.
यह जरूरत इसलिए भी आन पड़ी, क्योंकि बच्चे जो बात माता-पिता से शेयर नहीं कर रहे थे, वे मुङो बता कर उसका समाधान चाह रहे थे. यही बात माता-पिता के साथ थी और ये समस्याएं किसी एक घर की नहीं हैं. जिस घर में भी बच्चे हैं और खासकर किशोर या बड़े बच्चे हैं, उस घर की हैं. वे परेशानियां मैं आपसे शेयर करना चाहती हूं. शायद आपकी भी उनमें से कोई हो! छोटे बच्चों को बहलाना आसान है, मगर किशोरों को बहलाया नहीं जा सकता.
वे हर बात के पीछे तर्कचाहते हैं और तर्कना भी हो तो वे अपनी बात को ही जायज़ ठहराते हैं. किसी भी मामले में उनका एक ही जवाब होता है- इससे क्या फर्कपड़ता है? अब हम बच्चे नहीं हैं, बड़े हो गये हैं. अपना अच्छा-बुरा समझते हैं. यह जेनरेशन गैप है. आप लोग क्या समङोंगे, वगैरह-वगैरह.
पहले मैं माता-पिता से बात करना चाहती हूं. आप सब क्यों नहीं बच्चों में एक नन्हा दोस्त देखते हैं, जो समय के साथ बड़ा होता है और आपका दायित्व बढा़ देता है. अगर आप बचपन से ही अपने बच्चे को अपना सबसे छोटा, सबसे प्यारा और नन्हा-सा दोस्त समझ कर पालेंगे, तो वो भी निश्चित रूप से आपको अपना सबसे अच्छा और सच्चा दोस्त मानेगा.
छोटे में आप उससे अगर संवाद की स्थिति बना कर रखेंगे, तो बड़े होकर भी यह संवाद टूटेगा नहीं, बीच में गैप नहीं आयेगा और अगर दोस्ती बना कर नहीं रखते, तो बड़ा होने पर जब आप उससे इन मुद्दों पर बात करना चाहेंगे तो आपकी बेटी या बेटा आपसे बात करने में हिचकिचाएगा. अपनी बातें और समस्या खुल कर नहीं बतायेगा. जब आप जानने का प्रयास करेंगे, तो उसको लगेगा कि आप उसकी जासूसी कर रहे हैं और इस उम्र में जासूसी जैसी किसी भी बात को वह बरदाश्त नहीं कर पायेगा. आप सब अपना बचपन याद करिए.
आपको भी डांट पड़ती थी! जब-जब डांट पड़ी, अधिकांश समय क्या आपको गुस्सा नहीं आया? जब भी कोई मनपसंद काम करने के लिए रोका-टोका गया, क्या आक्रोश नहीं आया? जब-जब आपकी बात माता-पिता ने नहीं समझी, तब-तब आपको क्या यह नहीं लगा कि यह जेनरेशन गैप है? उस समय सभी लड़के-लड़कियों ने सोचा भी होगा कि मैं एक बेहतर पिता या बेहतर मां बनूंगी और अपने बच्चे को वह आजादी दूंगी जो मुङो नहीं मिल रही है.
इसे ऐसे समझिए, कुछ महिलाएं अपनी सास-ननद के बरताव से दुखी रहती हैं. ससुराल में तमाम दुख ङोलने और रहन-सहन पर टोका-टोकी के बाद अपने मन में सोचती हैं या अपनी सखियों से शेयर भी करती हैं कि देखना मैं एक बेहतर सास बनूंगी और अपनी बहू पर कोई पाबंदी नहीं लगाऊंगी.
उसे साड़ी की जगह सलवार-सूट पहनने की छूट दूंगी, हमारी सास ने तो हमें ये सब पहनने नहीं दिया. यह उस लड़की की प्रतिक्रि या होती है, जो मायके में तो सब कुछ पहनती है, मगर ससुराल जाकर साड़ी के पहनावे तक सीमित हो जाती है, पर जब उसकी बहू आयी तो उनमें भी टकराव हुआ. क्या आप वजह जानते हैं?
वजह यह है कि तब तक समय बदल गया और उसकी बहू ने केवल सलवार सूट नहीं, बल्किजींस पहनने के लिए कहा, मगर आप तो सलवार-चूड़ीदार सोच कर बैठी थीं और जींस के बारे में आपने सोचा भी नहीं था. फिर उसकी बहू को लगा कि सास पुराने ख्यालों की है.
बहू ने सोचा कि मैं अपनी बहू को जींस जरूर पहनाऊंगी. मगर फिर जब उस बहू की बहू आयी, तो समय में और बदलाव आया और बहू ने स्कर्ट और शॉर्ट्स पहनना चाहा, जो उसकी सास की सोच से परे था.
मैं यह सब इसलिए बता रही हूं जिस तरह हम अपनी सास को लेकर धारणाएं बनाते हैं और ससुराल में कष्ट व तकलीफ पाकर अपनी बहुओं को वो दुख ना देने का फैसला करते हैं, लेकिन बहू के आने तक ज़माना आगे बढ़ चुका होता है, जरूरतें बदल चुकी होती हैं और एक बार फिर वही असंतोष की स्थिति बनती है, जो पहले थी.
पुरुष भी सोचते हैं कि मैं पापा से बेहतर अपनी मां और पत्नी के बीच संतुलन बना कर रखूंगा. जैसे पापा हमेशा मम्मी का पक्ष लेते हैं या दादी का पक्ष लेते हैं, मैं दोनों की बातें समझूंगा और दोनों के बीच का झगड़ा कम करूंगा, लेकिन यहां भी स्थिति उलट ही होती है. जब वह स्थिति सामने होती है, तो उसे लगता है क्या करें? मां की बात मानें तो पत्नी नाराज और पत्नी की सुनें तो मां गुस्सा हो जायेंगी.
फिर वही होता है कि मां तुम तो फालतू की बातें करती हो. वह कितना काम करती है, कितनी सेवा करती है फिर भी आपको उससे शिकायत है. ज़माना बदल गया, मगर आप नहीं बदलीं और अगर आपने खुद को नहीं बदला, तो हमेशा यूं ही दुखी रहेंगी. कुछ लड़के मां की बातें सुनते हैं और पत्नी से कहते हैं क्या तुम भी तिल का ताड़ बनाती हो. तुमलोगों ने मेरी जिंदगी नरक बना दी. मां तमगा देती है कि जोरू का गुलाम और बीवी कहती है कि ये तो मां के पल्लू से बंधे रहते हैं, मम्माज ब्वॉय हैं.

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