राष्ट्रीय स्तर पर बोस विपक्षी पार्टियों के गंठबंधन की धुरी बन सकते थे, और यह गंठबंधन 1957 में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता था और 1962 के आम चुनाव में पराजित कर सकता था. तब क्या चीन भारत पर आक्रमण करता? यह हम निश्चितता से नहीं कह सकते हैं. लेकिन यह बात निर्विवाद तौर पर कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास की कहानी बिल्कुल अलग होती.
बुद्धिमान और रहस्यात्मक होने के कारण इंटेलिजेंस एजेंसियां अपने रहस्यों को ठीक से छुपा कर रखती हैं. आम तौर पर सरकारें तीन या पांच दशकों तक इंटेलिजेंस फाइलों को गोपनीय रखती हैं, क्योंकि वे उनसे जुड़े प्रमुख लोगों और मसलों को मरने का इंतजार करती हैं. कभी-कभार ही ऐसा होता है कि ऐसे दस्तावेजों का उल्टा असर हो जाता है. वे मृतकों को जगा देते हैं. मैकबेथ के उत्सव में प्रेत की तरह उपस्थित होकर सुभाषचंद्र बोस यह याद दिला रहे हैं कि दाम चुका कर कभी सत्ता का सौदा किया गया था.
उस क्षण से, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के धुंधलके के बीच से यह खबर आयी थी कि इंडियन नेशनल आर्मी के करिश्माई नेता बोस को ले जा रहा जहाज 18 अगस्त, 1945 को ताइपेई में दुर्घटनाग्रस्त हो गया है, आज तक उनका भाग्य दो वैकल्पिक कथानकों में लिपटा हुआ है, जिन्हें दो शब्दों- ‘मृत’ और ‘लापता’- में सबसे सही तरीके से व्यक्त किया जा सकता है. पहला कथानक सत्ता का पसंदीदा निष्कर्ष था, जबकि दूसरा भारत के लोगों की सोच का परिचायक था. इस घटना के वर्णन में नाटकीय विरोधाभास को समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि 1945 की सत्ता क्या थी.
जापान के आत्मसमर्पण के तीन दिन बाद यह दुर्घटना घटी थी, जब संयुक्त राष्ट्र (जो अमेरिका, सोवियत संघ और ब्रिटेन के नेतृत्ववाले मित्र राष्ट्रों का एक औपचारिक नाम भर था) द्वारा जर्मनी, जापान और इटली के नेतृत्व वाले धुरी राष्ट्रों पर विजय की घोषणा की जा सकती थी. ब्रिटिश राज के अंतर्गत आनेवाला भारत भी एक सहयोगी था, हालांकि गांधी जी ने युद्ध से कांग्रेस का समर्थन इस आधार पर वापस ले लिया था कि इसमें भारतीयों की राय नहीं ली गयी थी.
लेकिन ब्रिटिश राज, जो भारत का वैधानिक शासन था, ने भारतीय सेना और रजवाड़ों के रक्षा बलों को युद्ध में शामिल कर लिया था. भारतीय सेना जर्मनों के विरुद्ध अफ्रीका में और दक्षिण-पूर्व एशिया में जापान के विरुद्ध लड़ी थी. औपचारिक विरोध के बावजूद कांग्रेस ने सैन्य बलों में विद्रोह भड़का कर ब्रिटेन के प्रयासों को अवरुद्ध करने की कोई कोशिश नहीं की. जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, वे सुभाषचंद्र बोस ही थे, जिन्होंने 1939 में गांधी और कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया था.
कोलकाता से अपनी असाधारण फरारी और फिर अफगानिस्तान और मध्य एशिया होते हुए बंगाल से बर्लिन की रोमांटिक और खतरनाक यात्रा, धुरी नेताओं से यादगार मुलाकातों, पनडुब्बी से जापान की गोपनीय यात्रा और फिर जापान की कैद में युद्ध-बंदी भारतीय सेना के अधिकारियों व सैनिकों को लामबंद कर युद्ध की घोषणा करने के अद्भुत कारनामों से सुभाषचंद्र बोस ने भारतीयों, विशेषकर युवाओं का दिल जीत लिया था. 1857 की क्रांति की यादों से भयभीत अंगरेजों को इस ‘विद्रोह’ ने सबसे अधिक क्रोधित किया था. यह विद्रोह भावनात्मकता से कहीं अधिक था. ब्रिटिश राज को यह पता था कि भारतीय सेना की स्वामिभक्ति ही उसके शासन का आधार है. अगर यह भावना खंडित हुई, तो राज का बचना संभव न होगा. और भारत के बिना साम्राज्य भी बिखर जायेगा.
विश्व युद्ध के तुरंत बाद हुए नौसेना विद्रोह में बोस का प्रभाव स्पष्ट था. इसी के साथ उलटी गिनती शुरू हुई थी. सुभाषचंद्र बोस और उनकी सेना भले युद्ध हार गयी थी, पर उन्होंने एक बड़ी जीत हासिल की, जो अपने आप में एक सुनहरे अध्याय के रूप में लिखे जाने योग्य है. सुभाष बोस एक ऐसे योद्धा थे, जैसा भारत ने विगत एक शताब्दी में नहीं देखा था. जब 1946 में अंगरेजों ने इंडियन नेशनल आर्मी के अधिकारियों पर देशद्रोह के आरोप में मुकदमा चलाना शुरू किया, तब देश में स्वत:स्फूर्त जन-आंदोलन खड़े हो गये. भारतीयों की नजर में ये सिपाही शहीद थे, गद्दार नहीं.
अंगरेज भारत छोड़ने के लिए तैयार हो रहे थे, पर वे जिस भारत को छोड़ कर जा रहे थे, उसके लिए उनकी कुछ योजनाएं भी थीं. उस परिस्थिति में विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के एक दिलचस्प गठजोड़ का एक उद्देश्य समान था : सुभाषचंद्र बोस की अनुपस्थिति.
ब्रिटिश शासन बोस का बोस से पूरी तरह वैमनस्य था. वे कांग्रेस को वश में कर सकते थे, किंतु बोस को नहीं. मुसलिम लीग को बोस स्वीकार्य नहीं हो सकते थे, क्योंकि जिस अनुकरणीय स्वरूप में उन्होंने इंडियन नेशनल आर्मी में हिंदू-मुसलिम-सिख एकता की स्थापना की थी, वह उस भारत का खाका था, जो वह बनाना चाहते थे. दक्षिण-पूर्व एशिया से प्रसारित अपने रेडियो संबोधनों में बोस ने जिन्ना और पाकिस्तान की संभावना की कठोरता से आलोचना की थी. अगर बोस भारत में उपस्थित होते, तो वे विभाजन के जोशीले विरोधी होते. कांग्रेस स्वाभाविक कारणों से बोस को पसंद नहीं करती थी : वे उस सत्ता के दावेदार होते, जिसकी आकांक्षा पार्टी और उसके नेता जवाहरलाल नेहरू को अपने लिए थी.
यदि पंडित नेहरू इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि बोस की मृत्यु हो चुकी है, तो फिर बोस के परिवार पर उन्होंने निगरानी करना क्यों जारी रखा था? जैसा कि दस्तावेजों से जाहिर होता है, 1957 में जापान की यात्रा के दौरान नेहरू परेशान क्यों हो गये थे?
अगर उस हवाई दुर्घटना में सुभाषचंद्र बोस बच गये थे, तो फिर उन्हें कहां ले जाया गया, तथा कब और कहां उनकी मृत्यु हुई? हमें उनके बारे में किसी सच्चाई का पता नहीं है. हमारे सामने सिर्फ वह आधिकारिक स्पष्टीकरण है कि सच के उजागर होने से हमारे दोस्ताना देशों के साथ संबंध प्रभावित हो सकते हैं. एक ऐसा देश निश्चित रूप से ब्रिटेन है, क्योंकि नेहरू के अधीन कार्यरत इंटेलिजेंस ब्यूरो ने बोस के विरुद्ध ब्रिटेन की गुप्तचर संस्था से सहभागिता की थी. सुनने में यह भी आता है कि दूसरा देश स्टालिन का सोवियत संघ था, जो 1945 में ब्रिटेन का सहयोगी देश था. ऐसा कहा जाता है कि स्टालिन ने ही यह समझ दी थी कि सुभाषचंद्र बोस एक बेरहम फासीवादी थे. बहरहाल, अभी तक गोपनीय रखी गयीं फाइलों के सार्वजनिक होने से पहले हम कुछ भी भरोसे के साथ कहने की स्थिति में नहीं है.
इस संबंध में राजनीतिक समीकरण बहुत सरल है. सुभाषचंद्र बोस उम्र के हिसाब से जवाहरलाल नेहरू से आठ वर्ष छोटे थे. उनके पास समय था. बोस या उनकी पार्टी 1952 तक बंगाल और ओड़िशा में चुनाव जीत सकते थे. राष्ट्रीय स्तर पर बोस विपक्षी पार्टियों के गंठबंधन की धुरी बन सकते थे, और यह गंठबंधन 1957 में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता था और 1962 के आम चुनाव में पराजित कर सकता था. तब क्या चीन भारत पर आक्रमण करता? यह हम निश्चितता से नहीं कह सकते हैं. लेकिन यह बात निर्विवाद तौर पर कही जा सकती है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास की कहानी बिल्कुल अलग होती.
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
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