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ज्ञानियों के शहर में गंगा मैली क्यों?
विश्वत सेन प्रभात खबर, रांची गंगा. पतितपावनी गंगा. इलाहाबाद वाली नहीं. हरिद्वार और ऋषिकेश वाली भी नहीं, ठेठ बनारस वाली. एकदम सपाट. दक्खिन से उत्तर की ओर बहने वाली. नयी सरकार बनी, तो गंगा की सफाई पर हलचल भी बढ़ गयी. यह गाय और गंगा की सरकार जो है. बीते मार्च के अंतिम सप्ताह में […]
विश्वत सेन
प्रभात खबर, रांची
गंगा. पतितपावनी गंगा. इलाहाबाद वाली नहीं. हरिद्वार और ऋषिकेश वाली भी नहीं, ठेठ बनारस वाली. एकदम सपाट. दक्खिन से उत्तर की ओर बहने वाली. नयी सरकार बनी, तो गंगा की सफाई पर हलचल भी बढ़ गयी. यह गाय और गंगा की सरकार जो है. बीते मार्च के अंतिम सप्ताह में बनारस में शवों को गंगा में न बहने देने के लिए अरुण जेटली ने शववाहिनी नौका का भी उद्घाटन किया.
दुखद और चिंताजनक है कि यह शववाहिनी नौका मणिकर्णिका घाट के सामने खड़ी रहती है और उसी के सामने से लावारिस शव गंगा में प्रवाहित होते हुए दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ जाते हैं. बनारस ज्ञान का केंद्र है. इस शहर में ज्ञानी पैदा होते हैं और रहते हैं. यहां के दशाश्वमेध, असी और ललिता घाट पर नित्यप्रति सायंकाल को गंगा आरती होती है. आरती के समय देसी-विदेशी पर्यटकों के अलावा गंगा की छाती पर सुरक्षा कवच बनाते हुए नाविक अपनी नावों पर लोगों को सवार करके विहंगम दृश्य तैयार करते हैं. लेकिन ज्ञानियों की इस नगरी में लोग भूल जाते हैं कि अविरल प्रवाहिनी गंगा को स्वच्छ रखना भी है. गंगा जब संसार के पतितों के पाप को धो सकती है, तो भला खुद को स्वच्छ नहीं रख सकती?
गंगा को लेकर ज्ञानगंगा शिथिल हो जाती है और शिथिल हो जाते हैं वे लोग, जिनके कंधों पर इसे निर्मल बनाने की जिम्मेदारी है. उदघाटन और शिलान्यास कर दिया जाता है, लेकिन क्रियान्वयन की निगरानी का इंतजाम गंगा की धाराओं में बह जाता है. अगर बनारस का अपना अलग अंदाज और ठाठ है, तो भला उनका नहीं है क्या, जो निर्मलता को बढ़ावा देने का दिखावा कर रहे हैं.
पान की पीक की तरह शहर की गलियों से निकलनेवाला जलमल भी गंगा में समाहित होकर पाक-साफ होने की होड़ मचाता नजर आता है. यह जलमल थोड़े ही है? यह तो जल निगम द्वारा यहां के निवासियों को दिया जानेवाला गंगाजल ही है, जो नालियों के माध्यम से फिर गंगा में समाहित हो रहा है. जब गंगाजल पवित्र है, तो भला यह अपवित्र कैसे हो सकता है? यह तो औघड़ों, फक्कड़ों, फकीरों और फटेहालों की नगरी है. तभी तो गंगा के घाटों पर हर शाम मिलनेवाला माता अन्नपूर्णा के प्रसाद को ग्रहण करनेवालों का तांता लगा रहता है.
क्या अमीर और क्या गरीब. सभी समभाव से दान-दक्षिणा देते हुए प्रसाद ग्रहण करते हैं. यहीं दिखता है देश का असली समाजवाद. एक ही पांत में बैठ कर खानेवाले अमीर और गरीब, लेकिन जिस गंगा के घाट पर समाजवाद का यह चेहरा दिखता है, गंगा की सफाई के समय इसमें विद्रूपता आ जाती है. लोग बिसर जाते हैं सफाई अभियान को. कुछ भी हो भइया, बनारसी ठाठ के बीच गंगा की जो दयनीय स्थिति बनी है, वह चिंतन के लायक नहीं, बल्कि चिंतनीय है. बनारसी ठाठ के बीच गंगा लाचार और बेबस बनी है. जय हो गंगा मइया की, जय हो बाबा विश्वनाथ की.
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