दीपक कुमार मिश्र
प्रभात खबर, भागलपुर
हमारे गांव में एक थे महावीर मामा. बच्चे, बूढ़े जवान सबके लिए वे मामा थे. मजाक में लोग उन्हें लोग ‘इंटरनेशनल मामा’ भी कहते. लोटा भर कर चाय पीते. रास्ते में रोक-रोक कर बच्चों से कोई सवाल पूछ बैठते और जो बच्च सबसे अंत में उत्तर देता, उसे कहते कि पिछला रोटी खाते हो. चंद दिन पहले जब सिने अभिनेता शशि कपूर को दादा साहब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा हुई, तो अचानक मुङो महावीर मामा की याद आ गयी.
मैं शशि कपूर के चयन पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा कर रहा हूं. वे इस कद के अभिनेता हैं कि उन्हें यह पुरस्कार मिलना चाहिए. सवाल तो यह है कि पुरस्कार देने में इतनी देरी क्यों होती है? पुरस्कार मिलना किसी भी व्यक्ति के लिए गौरव व सम्मान की बात होती है. पुरस्कार पाने वाले को कितनी हार्दिक खुशी होती है, यह तो पुरस्कार पाने वाला व्यक्ति ही बता सकता है. पुरस्कार पानेवाला जरूर अपनों से अपनी खुशी बांटना चाहता है. लेकिन अपने यहां पुरस्कार देने या चयन की जो स्थिति रही है कि उस देख कर यही लगता है कि पुरस्कार पानेवाला किससे अपनी खुशियां बांटे.
आज शशि कपूर अस्वस्थ हैं. पुरस्कार पाने की खुशी वो कैसे बांट सकेंगे. यही स्थिति अभिनेता प्राण के साथ हुई थी. उन्हें जब पुरस्कार मिला तो वह चलने-फिरने लायक भी नहीं थे. हम किसी के काम का मूल्यांकन तब करते हैं जब वह काम बंद कर देता हो या फिर खुशी बांटने लायक नहीं रह गया हो. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और महामना मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न मिला है. वाजपेयी जी भी शारीरिक रूप से इस स्थिति में नहीं हैं कि वो खुशी बांट सकें. महामना तो कब के गुजर गये. महामना व वाजपेयी जी को इस पुरस्कार के लिए चुना जाना कहीं से गलत नही है. वे इसके हकदार थे और हैं. पर, का वर्षा जब कृषि सुखानी.
पद्म पुरस्कारों के चयन को लेकर भी हमेशा कुछ न कुछ विवाद होता है. कई लोग इसलिए पुरस्कार नहीं लेना चाहते क्योंक उनसे कम योग्यता वालों को यह पुरस्कार मिल चुका होता है. शशि कपूर डेढ़ दशक से अधिक समय से सिनेमा से अलग है. इसलिए यह तो कहा ही जा सकता है कि उनके पुराने कामों को ही आधार मानकर उन्हें सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना गया.
यही काम अगर कुछ साल पहले हुआ होता, तो शशि कपूर अपनी खुशी अपनों के बीच बांटते. अभी तो स्थिति यह है कि वो अपनी खुशी दूसरों के बीच क्या बांटें, उसका इजहार तक नहीं कर सकने की स्थिति में नहीं है. यही स्थिति अटल जी की भी है. अपने यहां पुरस्कार चयन को लेकर नुक्ताचीनी भी होती है. और हो भी क्यों नहीं, जब चयन में पारदर्शिता न बरती जाए. सरकार को तो चाहिए इसकी पूरी अलग व्यवस्था हो और इसमें राजनीतिक दखल नहीं हो.