‘‘का भैया आप में भी फूट पड़ गया ना?’’, बीच रास्ते पर यह आवाज अचानक मेरे नाम के संबोधन के साथ सुनायी पड़ी. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, मेरी पड़ोसी का हंसता-खिलखिलाता चेहरा उनकी खुशी और मुङो ताना मारने की बेचैनी बयां कर रहा था. मैंने हंसते हुए उन्हें टालने की कोशिश की.
लेकिन मेरे पड़ोसी आज अपने नेता की तरह 56 इंच की छाती का दम दिखा कर ही मानने वाले थे. उन्होंने रुकने का इशारा किया और मेरी तरफ बढ़ने लगे. सच कहूं, तो मुङो वो सारे ताने आज याद आ रहे थे जो मैंने लोकसभा चुनाव के दौरान उनके नेता को मारे थे.
हालांकि किसी पार्टी का समर्थन तो मैं नहीं करता, पर दिल्ली जीत के बाद ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) की थोड़ी तारीफ मुंह से निकल गयी थी. मन ही मन मैं आज उस दिन को भी कोस रहा था. उस दिन के बाद से मेरे पड़ोसी मुङो ‘आपियों’ में गिनने लगे थे. आज उनके बुलाने के इशारे पर मेरे दिल में ख्याल आया- बेटा अब तो तू गया! मेरा पड़ोसी भूखे शेर की तरह मेरी तरफ बढ़ रहा था और मैं एक शिकार की तरह आंखों ही आंखों में दया की गुहार कर रहा था. जैसे ही मेरे पास वह पहुंचे, उन्होंने शब्द-बाण चलाया, ‘‘तब पत्रकार साहेब, आपकी पार्टी को क्या हो गया? ये आम लोगों की पार्टी भी आम पार्टियों की तरह निकली. आपके चाणक्य ( योगेन्द्र यादव) तो खुद शिकार हो गये. उन्हें तो धक्के मार के बाहर निकाल दिया गया.’’
मैंने किसी तरह बचाव करते हुए कहा, ‘‘अरे भाई नयी पार्टी है, इसे अभी बहुत कुछ सीखना है. मैं आगे और सफाई देने वाला ही था कि उन्होंने बीच में ही मुङो रोकते हुए कहा, ‘‘रुकिए पत्रकार साहेब, क्या बात कर रहे हैं? केजरीवाल ने शपथ ग्रहण के दौरान एक गाना गाया था याद है आपको?’’ मैंने ‘हां’ में सिर हिला दिया. ‘‘गाने के बोल तो बताइये, अरे बताइये न..’’ मैंने गाने के बोल बताये- इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा.. इस पर श्रीमान पड़ोसी बोले, ‘‘अपना पैगाम दूसरों को दिया और खुद ही भूल गये? आप के ही नेता ने स्टिंग करना सिखाया, अब यह उनको ही भारी पड़ गया. बताइये कोई मुख्यमंत्री अपने लोगों को इस तरह गाली देता है क्या? बोलिए चुप क्यों हैं?’’ मैं कुछ कह पाता कि वह फिर शुरू हो गये, ‘‘अरे कुछ कहने के लिए नहीं है आपके पास. बेकार में नयी पार्टी के चक्कर में हैं. ‘ओल्ड इज गोल्ड’. मेरे नेता को देखिए, चुपचाप काम कर रहे हैं.’’ सच, आज चुप रहने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था. सोच रहा था कि ‘आप’ के थोड़े से वैचारिक समर्थन पर मुङो इतना ताना ङोलना पड़ रहा है, तो उन कार्यकर्ताओं और समर्थकों को क्या हाल होगा जो अपना काम-धाम छोड़ चुनाव के दौरान दिल्ली में अपना खून-पसीना एक किये हुए थे. उस बच्चे का अबोध मन आज उससे कितने सवाल करता होगा जिसने अपने गुल्लक में जमा पैसे पार्टी को दे दिये थे?
पंकज कुमार पाठक
प्रभात खबर.कॉम
pankajjust4you@gmail.com