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नकल पर नकेल

बिहार के एक परीक्षा केंद्र पर अभिभावकों द्वारा जान जोखिम में डाल कर नकल कराने की तस्वीर (ऊपर) पिछले दिनों अखबारों, न्यूज चैनलों और सोशल साइट्स के जरिये देश-दुनिया में खूब देखी गयी. इस तस्वीर के कारण बिहार की शिक्षा और परीक्षा व्यवस्था का जम कर मजाक उड़ाया गया. पटना हाइकोर्ट ने मामले का संज्ञान […]

बिहार के एक परीक्षा केंद्र पर अभिभावकों द्वारा जान जोखिम में डाल कर नकल कराने की तस्वीर (ऊपर) पिछले दिनों अखबारों, न्यूज चैनलों और सोशल साइट्स के जरिये देश-दुनिया में खूब देखी गयी. इस तस्वीर के कारण बिहार की शिक्षा और परीक्षा व्यवस्था का जम कर मजाक उड़ाया गया.
पटना हाइकोर्ट ने मामले का संज्ञान लिया और फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उच्चस्तरीय बैठक बुला कर स्थिति की समीक्षा की. बाद में राज्य में दर्जनों केंद्रों की परीक्षा रद की गयी, सैकड़ों छात्र एवं अभिभावक नकल करने-कराने के प्रयास में गिरफ्तार किये गये और अनेक शिक्षकों व पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई के आदेश दिये गये. नकल की यह चिंताजनक स्थिति उस बिहार की है, जहां के विद्यार्थी बड़ी संख्या में हर साल राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं में चुने जाते हैं. सच्चई यह भी है कि अभिभावकों द्वारा नकल कराने की ऐसी झलक बिहार तक सीमित नहीं है, कई अन्य राज्यों और कुछ दूसरे देशों से भी बड़े पैमाने पर नकल की खबरें आती रही हैं.
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम नकल को जायज ठहराना चाहते हैं, बल्कि इस सवाल की तह तक पहुंचना चाहते हैं कि आखिर क्यों अभिभावक अपने बच्चों को गलत तरीके से पास कराना चाहते हैं? नकल करने और कराने की सामूहिक प्रवृत्ति के क्या हैं कारण और कैसे लग सकती है इस पर रोक, यह जानने-समझने के लिए हमने ‘नकल पर नकेल’ नामक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं, आज का ‘समय’ इसी की पहली कड़ी है.
बीमारी नयी नहीं, जड़ पर चोट की जरूरत
प्रो कृष्ण कुमार
प्रसिद्ध शिक्षाविद्
वसंत के मौसम में परीक्षा में नकल की बातें अक्सर सामने आती हैं. जैसे ही परीक्षा का मौसम का खत्म होता है, सबकुछ सामान्य हो जाता है. अब जिस व्यवस्था में पढ़ाई का एक मात्र लक्ष्य परीक्षा पास करना हो, और हमने उसी तरह की परीक्षा प्रणाली भी विकसित की हो जिसमें ज्ञान अजिर्त करना छात्रों का उद्देश्य न हो, बल्कि परीक्षा में अधिक अंक लाना ही एकमात्र उद्देश्य हो, तो फिर इस तरह की विकृ तियां तो देखने को मिलेंगी ही. अगर हम वास्तव में नकल को लेकर चिंतित हैं, तो इसकी वजह समझना होगा और कमियों को दूर करना होगा.
हाल के दिनों में परीक्षा में नकल को लेकर कई तरह की खबरें आयीं. नकल क्यों हो रहा है, इस सवाल पर विचार करने के बजाय इसे इस तरह से पेश किया गया जैसे यह बीमारी अभी ही शुरू हुई है. न इसकी ऐतिहासिकता को लेकर कोई चर्चा हुई, न ही इसके पीछे छुपे कारणों पर ध्यान दिया गया.
जबकि सच्चई यही है परीक्षा में, खास कर स्कूल और कॉलेजों की परीक्षा में नकल कोई नयी बात नहीं है. लेकिन, नकल की बीमारी पर हमारा ध्यान उस वक्त आकृष्ट होता है, जब हर साल मार्च महीने में इसकी खबरें आती हैं. ये खबरें अक्सर इस अंदाज में दी जाती हैं कि बीमारी का जिक्र चिंता पैदा करने की जगह लोगों का मनोरंजन करे.
यह बीमारी किसी प्रदेश विशेष तक सिमटी हो, ऐसा भी नहीं है. न सिर्फ भारत में, बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशियाई समाज को इस बीमारी की आदत है. यह बीमारी कितनी पुरानी है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि रवींद्रनाथ टैगोर ने परीक्षा में नकल का हवाला अपने एक सार्वजनिक व्याख्यान में दिया था. उन्होंने समझाया था कि समस्या सिर्फ़ नकल करके सफलता हासिल करने वाले छात्रों की नहीं है. जो छात्र नकल का सहारा नहीं लेते, रटंत विद्या पर निर्भर है, वे पूरी किताब रट कर याद कर लेते हैं. टैगोर ने उनकी तुलना हनुमान से की थी, जो संजीवनी बूटी लाने गये थे, पर पूरा पहाड़ ले आये.
दरअसल, टैगोर की व्यंजना हमें समझाती है कि परीक्षा में नकल की बीमारी दरअसल स्वयं एक बीमारी नहीं है, यह एक बीमार व्यवस्था का लक्षण है. यह इशारा करती है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाई का उद्देश्य समझना नहीं, इम्तिहान में अधिक अंक लाना है. मां-बाप, बच्चे और अध्यापक सभी का जोर परीक्षा की तैयारी पर रहता है. शिक्षा का अधिकार (आरटीई) के तहत यह व्यवस्था की गयी थी परीक्षा पर अंकुश लगे, लेकिन फिर से परीक्षा की ओर लौटने का दबाव बढ़ रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि परीक्षा की तैयारी कैसे हो. इसके लिए तो स्कूल में पढ़ाई की व्यवस्था करनी होगी. स्कूल को नियमित रूप से चलाना होगा.
अभी हाल में सर्वेक्षण के लिए कुछ जगहों पर जाने का मौका मिला. व्यवस्था कैसी है, इस पर जवाब देने के बजाय बच्चों द्वारा यह सवाल खड़ा किया गया कि सर्वेक्षण के लिए अभी क्यों आये. स्कूल में पढ़ाई होती नहीं, छोटी-छोटी बातों पर छुट्टियां हो जाती हैं. जब पढ़ाई की मुकम्मल व्यवस्था ही नहीं होगी और सिर्फ पास करना या कराना ही परीक्षा का उद्देश्य होगा, तो फिर छात्र के सामने विकल्प क्या है?
पाठ्यक्रम बनानेवाले भी परीक्षा के दृष्टिकोण से ज्ञान की मात्र तय करते हैं. परीक्षा का पर्चा बनानेवाले और उत्तरों पर नंबर देनेवाले परीक्षक भी छात्र की समझ पर ध्यान नहीं देते. प्रश्न होते ही इस तरह के हैं कि उसका उत्तर रट कर दिया जा सके. यदि कोई छात्र ऐसा उत्तर लिख दे, जिसमें समझने का प्रयास या कल्पना के लक्षण नजर आते हों, तो उसे कम नंबर मिलेंगे.
जो अध्यापक बच्चों में समझ या जिज्ञासा विकसित करने का प्रयास करता है, उसे अनोखा माना जाता है! बच्चों में जिज्ञासा पैदा करने की बजाय स्कूल के प्राचार्य और बच्चों के माता-पिता शिक्षक पर इस बात के लिए जोर डालते हैं कि बच्चों को परीक्षा के लिए तैयार करें. मतलब कि समझने की जगह याद करना और प्रश्नों का जवाब फटाफट देना सिखाएं.
अब जिस व्यवस्था में पढ़ाई का एक मात्र लक्ष्य परीक्षा पास करना हो, और हमने उसी तरह की परीक्षा प्रणाली विकसित की हो जिसमें ज्ञान अजिर्त करना छात्रों का उद्देश्य न हो, बल्कि परीक्षा में अधिक अंक लाना ही एकमात्र उद्देश्य हो, तो फिर इस तरह की विकृ तियां तो देखने को मिलेंगी ही.
दसवीं, बारहवीं की परीक्षा में बच्च अधिक से अधिक अंक हासिल करे, इसके लिए ट्यूशन और कोचिंग का व्यापार खूब फल-फूल रहा है. यह एक उद्योग की शक्ल ले चुका है, जिसमें अरबों रुपये लगते और लगाये जाते हैं. बच्चों का पठन-पाठन ही नहीं, बल्कि शिक्षक का प्रशिक्षण भी पूरी तरह से उद्योग की शक्ल ले चुका है.
परीक्षा में नकल कराना या नकल के सहारे पास करना स्वयं में एक असंगठित उद्योग है और भ्रष्ट व्यवस्था तंत्र का हिस्सा बन चुका है. पूरी हिंदी पट्टी में इस उद्योग के केंद्र फैले हैं. माता-पिता की बात तो छोड़ ही दें, शिक्षक भी बच्चों को नकल कराते हैं और उन्हें अच्छे नंबर से पास होने की गारंटी दी जाती है.
यह बात और है कि कुछ प्रदेशों, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश के कुछ जिलों, में यह प्रक्रिया ज्यादा बड़े और व्यवस्थित तरीके से संपन्न होती है. पास कराने और अच्छा नंबर दिलवाने की गारंटी ली जाती है. इनमें कुछ परीक्षा केंद्रों की ठेकेदारी का चलन है. दसवीं, बारहवीं या विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में पास होने के लिए दूर-दूर से छात्र इन केंद्रों का रोल नंबर लेते हैं. ऐसा नहीं है कि ये बातें गुपचुप तरीके से होती हैं. शासन-प्रशासन, सबको इस बात की जानकारी होती है. वे इसमें पूरी तरह से सहभागी होते हैं.
आप अंदाज लगा सकते हैं कि परीक्षा यदि बच्चों की बेहतरी के लिए है, तो फिर इसमें पुलिस प्रशासन का क्या काम? आखिर क्या कारण है कि हमें परीक्षा संचालित करने के लिए पुलिस बल की सहायता लेनी पड़ती है. हिंदी पट्टी ही क्यों, समूचे देश में वसंत के मौसम में परीक्षा संपन्न कराना पुलिस की एक बड़ी जिम्मेवारी बन जाती है. स्वयं शिक्षा विभाग अपने उड़न दस्ते बनाता है. इधर-उधर कुछ घटनाएं नकल पर प्रहार करती हैं. कई बार कुछ मामले कचहरी में भी जा पहुंचते हैं. लेकिन, वसंत की विदाई के साथ सब कुछ सामान्य हो जाता है.
हालांकि सभी जगह एक जैसे ही हालात हैं, ऐसा भी नहीं हैं. ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा-2005’ के तहत लाये गये सुधार केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसइ) से जुड़े स्कूलों पर कुछ असर दिखला सके हैं. वहां व्यवस्थाएं सुधरी हैं. परीक्षा, पाठ्यक्रम और अध्यापन में सुधार के प्रयास लगातार हुए हैं और उन्हें सफलता भी मिली है. लेकिन, इनकी संख्या देश के कुल माध्यमिक स्कूलों की संख्या के मुकाबले दस फीसदी से भी कम है. बाकी स्कूल प्रांतीय बोर्डो से जुड़े हैं. इनमें से कुछ ने 2005 की पाठ्यचर्चा के द्वारा शुरू हुए सुधारों को लागू करने का प्रयास किया है, लेकिन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे बड़ी आबादीवाले राज्यों ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है.
इस तरह देखें तो आप कह सकते हैं कि नकल की बीमारी का थोड़ा-बहुत इलाज जिन स्कूलों में चल रहा है, वहां भारत के अभिजात्य वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं. वहां यह समस्या उतनी बड़ी नहीं है. शेष स्कूल, जहां बड़ी आबादी के बच्चे पढ़ते हैं, न सरकारों के ध्यान में रहते हैं, न मीडिया की सुर्खियों में. हमें नकल की सुर्खियों का इंतजार करने के बजाय पूरी व्यवस्था पर सोच-विचार करना होगा, तभी हम वसंत के महीने में अच्छे परिणाम की अपेक्षा कर सकते हैं. (संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
बिहार और उत्तर प्रदेश में नकल का स्वरूप अलग-अलग
जरूरी हैं कुछ बुनियादी सुधार
डॉ सूर्य प्रताप सिंह
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एवं नकल विरोधी कार्यकर्ता
शिक्षाविदों एवं विश्लेषकों ने यह सुझाव बार-बार दिया है कि शिक्षा-व्यवस्था में रटने और नौकरियों में अंकों पर दिये जा रहे जोर में बदलाव की आवश्यकता है. आम तौर पर परीक्षाएं वर्ष में एक बार होती हैं और छात्र को पूरे साल के पाठ्यक्रम के आधार पर परीक्षा देनी होती है. इसमें सुधार कर समय-समय पर आंतरिक मूल्यांकन तथा सेमेस्टर सिस्टम लागू किया जाना चाहिए.
परीक्षाओं में नकल का सीधा अर्थ है शैक्षणिक बेईमानी और शिक्षा-व्यवस्था के साथ खिलवाड़. हालांकि हमारी शिक्षा-व्यवस्था के साथ यह समस्या दशकों पहले से है, लेकिन पिछले कुछ वर्षो से यह तेजी से बढ़ी है. बिहार से पिछले दिनों आयी खबरों और तस्वीरों ने परीक्षा में कदाचार पर नियंत्रण की बहस को फिर से तेज किया है, जो कि बहुत आवश्यक है. यहां यह बात भी समझनी होगी कि बिहार की घटनाएं नकल और कदाचार के पूरे स्वरूप का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं हैं. जो लोग तस्वीरों में परीक्षार्थियों को पुर्जे आदि पहुंचा रहे हैं, वे उनके परिजन हैं. इससे संबंधित दूसरी गंभीर समस्या हैं नकल माफिया.
उत्तर प्रदेश में हमारी मुख्य चुनौती यही सांगठनिक अपराध यानी नकल माफिया से निपटने की है. शिक्षा-व्यवस्था से जुड़े लोगों से सांठगांठ और परिक्षार्थियों से धन उगाही करके परचे बाहर लिखवाने और अच्छे अंकों के साथ पास कराने का यह धंधा उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार समेत कुछ और राज्यों में भी सक्रिय हो सकता है. फिलहाल बिहार की तस्वीर के द्वारा इस समस्या को सुर्खियों में जगह मिली है और इस पर व्यापक चर्चा भी हुई, पर अफसोस यह भी है कि ये बहसें बहुत गंभीरता से दीर्घकालिक उपायों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही हैं. नकल रोकने की कोशिशें और अध्ययनों के निष्कर्ष इस समस्या के उन्मूलन के प्रयास में काफी हद तक योगदान दे सकते हैं.
नकल करनेवालों छात्रों की सामान्यत: चार श्रेणियां होती हैं. एक, ऐसे छात्र जो आदतन नकलची नहीं होते, पर पूरी तैयारी न होने या पढ़ाई के बोझ के कारण नकल करते हैं; दूसरी, शिक्षा के महत्व को न समझनेवाले छात्र; तीसरी, कक्षा में प्रतिद्वंद्विता से घबराये छात्र; और चौथी, कदाचार सहित किसी भी तरीके से परीक्षा पास कर सर्टिफिकेट या डिग्री हासिल करने की इच्छा रखनेवाले छात्र.
परीक्षाओं में कदाचार करने के अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे- किसी तरह दूसरों से आगे निकलने की दुर्भावना, नैतिक मानदंडों की कमी, सहपाठियों द्वारा नकल से दुष्प्रेरणा, अध्यापकों का पक्षपाती या अनुचित रवैया, स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता का अभाव, परीक्षा में पास होने और अच्छे अंक लाने को वरीयता देना आदि.
उत्तर प्रदेश में स्वैच्छिक संस्था ‘वॉलंटरी एक्शन फॉर सोशल ट्रांसफॉर्मेशन’ के अंतर्गत चलाये जा रहे नकल रोको अभियान का मुख्य उद्देश्य शैक्षणिक ईमानदारी को बढ़ावा देना और शिक्षकों व छात्रों के बीच स्वस्थ एवं सकारात्मक संबंध स्थापित करना है. शिक्षाशास्त्री विलियम्स केसी एवं पॉलस डी के विचार में दंड का भय नकल रोकने में सक्षम नहीं होता है, परंतु यदि विद्यार्थी परिणामों की चिंता किये बगैर अपनी क्षमता और ईमानदारी पर विश्वास करते हैं, तो कदाचार को सफलतापूर्वक रोका जा सकता है. इस प्रयास में छात्रों के साथ अभिभावकों, अध्यापकों और समाज को मिल कर काम करने की आवश्यकता है.
छात्रों के शैक्षणिक और सामाजिक उत्थान में शिक्षकों और उनके बीच के रचनात्मक संबंध बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. ऐसी स्थिति में छात्र ज्ञान प्राप्त करने और सीखने के लिए उत्साहित होंगे. स्कूल और कक्षा में बेहतर वातावरण भावनात्मक विकास में भी सहायक होता है.
छात्रों को शिक्षकों, पुस्तकालयों आदि के साथ जरूरी बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया करानी होगी, ताकि शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर हो सके. माता-पिता को भी नकल रोकने में सक्रिय भूमिका निभानी होगी. इस मसले पर उन्हें बच्चों के साथ खुल कर बात करनी चाहिए. घर पर बेहतर वातावरण देने के साथ-साथ बच्चों को समय का सुनियोजित सदुपयोग करने की सीख देनी चाहिए. अभिभावकों को बच्चों में बेजा लक्ष्य और नकारात्मक भावना नहीं पनपने देना चाहिए.
शिक्षाविदों एवं विश्लेषकों ने यह सुझाव बार-बार दिया है कि शिक्षा-व्यवस्था में रटने और नौकरियों में अंकों पर दिये जा रहे मौजूदा जोर में बदलाव करने की आवश्यकता है. आम तौर पर परीक्षाएं वर्ष में एक बार होती हैं और छात्र को पूरे साल के पाठ्यक्रम के आधार पर परीक्षा देनी होती है. इसमें सुधार कर समय-समय पर आंतरिक मूल्यांकन तथा सेमेस्टर सिस्टम लागू किया जाना चाहिए. इससे न सिर्फ बच्चों पर बोझ कम होगा, बल्कि वे बिना दबाव के बेहतर ज्ञानाजर्न भी कर सकेंगे. ऐसी व्यवस्थाएं जिन संस्थानों में हैं, वहां नकल भी बहुत कम होती है और परीक्षा के परिणाम भी बहुत बढ़िया होते हैं.
इसलिए पाठ्यक्रम और मूल्यांकन व्यवस्था में कुछ बुनियादी परिवर्तन के साथ-साथ सभी प्रकार की नौकरियों में लिखित परीक्षा को अनिवार्य करना बेहद जरूरी है. कुल मिलाकर, कहा जा सकता है कि छात्रों, अभिभावकों और समाज की प्रवृत्ति में सुधार के साथ सरकार की पहलों के समुचित समन्वय से ही नकल की समस्या का समाधान किया जा सकता है.
(बातचीत पर आधारित)
उत्तर प्रदेश का नकल-विरोधी कानून, 1992
1992 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और शिक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने नकल-विरोधी अध्यादेश लाकर परीक्षाओं में अनुचित तौर-तरीकों और कदाचार को गैर-जमानती आपराधिक मामलों की श्रेणी में डाल दिया था. इस कानून के अंतर्गत एक ही वर्ष परीक्षाएं आयोजित हो सकी थीं और तब स्कूलों-कॉलेजों में सफल परीक्षार्थियों की संख्या महज 12-14 फीसदी रह गयी थी.
परीक्षाओं में बड़ी संख्या में छात्र गिरफ्तार कर जेल भी भेजे गये थे. अगले वर्ष के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार हुई और मुलायम सिंह के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की गंठबंधन सरकार ने इस कानून को निरस्त कर दिया. विश्लेषकों की राय है कि भाजपा की करारी हार में यह कठोर कानून भी एक बड़ा कारण था.
जिस वर्ष यह कानून लागू था, नकल के कुल 25,565 मामले दर्ज किये गये थे, पर इसके हटाये जाने के बाद यह संख्या घट कर 19,657 हो गयी थी. 1998 में जब राजनाथ सिंह के नेतृत्व में जब फिर भाजपा की सरकार बहुजन समाज पार्टी के सहयोग से बनी तो इस कानून को फिर से लाया गया, लेकिन उसके प्रावधानों को नरम बना दिया गया.
नकल के लिए कठोर दंड के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय
4 नवंबर, 2008 के एक फैसले में न्यायाधीशद्वय जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस मार्कण्डेय काटजू की खंडपीठ ने कहा था कि नकल करनेवालों को कठोरता से दंडित करने की जरूरत है, क्योंकि इससे देश की प्रगति और अकादमिक स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद गलती मान लेने पर दोषी छात्रों को माफ करने की प्रवृत्ति को न्यायाधीशों ने ‘अनुचित सहानुभूति’ की संज्ञा दी थी और टिप्पणी दी थी कि ‘यदि देश को आगे बढ़ना है, तो हमें उच्च शैक्षणिक स्तर स्थापित करना होगा, और यह तभी संभव है, जब परीक्षाओं में कदाचार पर कठोरता से रोक लगायी जाये.
इस निर्णय में दिल्ली विश्वविद्यालय के एकल पीठ के उस निर्णय को भी नकार दिया गया था जिसमें माफीनामे को स्वीकार करते हुए संस्थान द्वारा एक छात्र को कदाचार के लिए एक वर्ष के लिए निलंबित करने के आदेश को निरस्त कर दिया गया था. उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में छात्र की इस दलील को मान लिया था कि उसने जेब में पड़ी पर्ची का उपयोग नहीं किया था, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अस्वीकार करते हुए पर्ची ले जाने को कदाचार माना था.
इस निर्णय में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा था कि न्यायालय ने पहले भी ऐसे निर्देश दिये हैं कि उच्च न्यायालय को आमतौर पर शैक्षणिक मसलों में संस्थान के आंतरिक तंत्र द्वारा लिये गये निर्णयों में दखल नहीं देना चाहिए. फैसले के अंत में यह भी कहा गया था कि परीक्षाओं की पवित्रता बहाल रहनी चाहिए और अनुचित तरीके अपनानेवाले छात्रों के साथ किसी तरह की उदारता नहीं बरती जानी चाहिए.
नकल नहीं, नागरिक हो सकने की एक लड़ाई
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
वैशाली जिले के गांधी हाइस्कूल में 10वीं की परीक्षा देते विद्यार्थियों के लिए नकल के र्फे पहुंचाते संगी-साथी, नाते-रिश्तेदारों को अपने कैमरे के लेंस से तसवीर के रूप में कैद करनेवाली नजर चीजों को बाहर-बाहर से देखने वाली एक अमर्यादित नजर थी. इस नजर में चीजों के निर्माण के इतिहास को खोजनेवाला ठहराव नहीं था.
एक सैलानी की नजर होती है. यह नजर चीजों को बाहर-बाहर से देखती है, बाहर-बाहर से देख कर ही चीजों के बारे में फैसले देती है. इस देखने में मर्यादा नहीं होती. देखने की मर्यादा की मांग है कि चीजों को ठहर कर देखा जाये. ठहर कर देखना चीजों से अपनापा कायम करता है. इस अपनापे के भीतर ही देखने वाली आंख के लिए चीजें अपना भीतरी अर्थ खोलती हैं, वह अर्थ जो कि चीजों के निर्माण के इतिहास ने बरसों-बरस से उन चीजों के भीतर संचित किया है.
वैशाली जिले के गांधी हाइस्कूल में 10वीं की परीक्षा देते विद्यार्थियों के लिए नकल के र्फे पहुंचाते संगी-साथी, नाते-रिश्तेदारों को अपने कैमरे के लेंस से तसवीर के रूप में कैद करनेवाली नजर चीजों को बाहर-बाहर से देखने वाली एक अमर्यादित नजर थी. इस नजर में चीजों के निर्माण के इतिहास को खोजनेवाला ठहराव नहीं था. इस नजर में कैमरे की एक क्लिक से सबकुछ जान लेने की हड़बड़ी और सबकुछ उजागर कर देने का अंधविश्वास था. अपनी हड़बड़ी और अंधविश्वास में इस नजर ने एक तस्वीर को पूरी दुनिया के आगे बिहार की स्कूली शिक्षा की बदहाली की प्रतिनिधि कहानी के रूप में पेश कर दिया.
ठहर कर देखनेवाले के लिए वैशाली जिले का वह स्कूल कुछ और तथ्य उजागर करता. उन तथ्यों की रोशनी में नजर आता कि 10वीं की परीक्षा में नकल करनेवाले विद्यार्थी, नकल कराने के लिए दूर-दूर से पहुंचे संगी-साथी, नकल करानेवालों से आंख फेरकर स्कूल परिसर के पिछवाड़े सुस्ताते सिपाही और भीतर चलती नकल से उदासीन अपनी कुर्सी पर आंखें नीची किये बैठे परीक्षक, सब के सब अपनी नियति से जुड़े साङो दु:ख से बंधे हैं. सबके सब उस दु:ख से अनिवार्य संघर्ष के भागीदार हैं. यह भारत नाम के राष्ट्रराज्य में अपने को एक नागरिक बनाये रखने का संघर्ष है और इस संघर्ष में हर वह आदमी शामिल है, जिसे इतिहास ने ‘वंचित’ और वर्तमान ने ‘पंगु’ बना कर रख छोड़ा है.
जान का जोखिम उन्हें भी रहा होगा, जान उन्हें भी हमारे-आपके तरह ही प्यारी रही होगी. तो भी वे नकल के र्फे पहुंचाने के लिए अपने पैर एक भयावह ऊंचाई पर अटका कर खड़े थे. जान- बूझ कर जान का जोखिम तो आदमी जंग में भी नहीं मोलता. बचाव के अस्त्र-शस्त्र लेकर चलता है, कवच और क्षत्र पहन कर निकलता है. नकल के र्फे पहुंचानेवाले वे लोग निष्कवच थे. तभी तो कैमरे की नजर उन्हें वेध सकी, किसी वेध दिये गये शिकार की तरह एक तस्वीर के रूप में अपने मनचीते आकार में उतार और दुनियाभर में पसार सकी. जान को जोखिम में डालनेवाले इन लोगों की कहानी को ठहर कर समझने की जरूरत है.
यह समझने की जरूरत है कि वे लोग इस देश में अपने को नागरिक बनाये रखने की जंग में शामिल हैं. नागरिक यानी एक ऐसा व्यक्ति, जो राज्यसत्ता से अपने अधिकारों का हिसाब ले सके और हिसाब न मिलने पर राज्यसत्ता को अवैध ठहरा सके. यह समझना तभी हो सकता है जब हम वैशाली के उस स्कूल के भीतर झांकें, थोड़ा ठहरें और उससे अपना अपनापा कायम करें.
ठहर कर देखने पर वह नजर आयेगा कि वैशाली जिले के इस स्कूल की नौवीं और 10वीं क्लास में 100 या 200 नहीं बल्कि 1,700 विद्यार्थी हैं. सोचिए, जैसे एक अंगरेजी अखबार के संवाददाता ने सोचा, कि इन 1,700 विद्यार्थियों को अगर 13 सेक्शन में बांटा गया है, तो फिर ये 13 सेक्शन स्कूल की पांच कोठरियों में किस जतन से अंटते होंगे? सोचिए कि 1,700 विद्यार्थियों की विज्ञान की शिक्षा का भार सिर्फ दो शिक्षक कैसे संभाल पा रहे होंगे? कैसे हो पाती होगी उस स्कूल में विज्ञान की प्रायोगिक शिक्षा जहां 1,700 विद्यार्थियों के लिए भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान की प्रयोगशाला एक ही कमरे में अंटाने का कौतुक किया गया है. अचरज भले हो, लेकिन ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर के मुताबिक, काल-कोठरी प्रतीत होते इस स्कूल से 70 प्रतिशत विद्यार्थी 10वीं की बोर्ड की परीक्षा में पास करते हैं. इनमें ज्यादातर विद्यार्थियों के लिए नकल करना ही ‘पास’ होने का रास्ता है.
देश के सारे सरकारी या सरकारी वित्तीय सहायता प्राप्त स्कूल वैशाली के इस स्कूल की तरह सुविधाहीन नहीं हैं, तो भी सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच पढ़ाई के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधाओं के लिहाज से एक अलंघ्य खाई है. और इस खाई को बनाये रखने के लिए बिहार की सरकार उतनी ही दोषी है, जितनी कि किसी अन्य राज्य की या फिर खुद भारत सरकार.
हमारे देश की लोकतांत्रिक रीति से चुनी जानेवाली देश की सरकारों ने सुनिश्चित किया है कि सुविधाओं के मामले में सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच की दूरी बनी रहे. सत्तावर्ग जानता है कि ऐतिहासिक कारणों से इस देश की वह अधिसंख्य आबादी, जो जीविका के लिए खेती-बाड़ी या छोटे-मोटे स्वरोजगार पर निर्भर है, उसके लिए मध्यवर्गीय जीवन में प्रवेश करने का रास्ता माध्यमिक स्तर की शिक्षा हासिल करने के बाद ही खुलता है. माध्यमिक स्तर की शिक्षा यानी रोजमर्रा की चीजों की लागत और लाभ-हानि का गणित करने और भाषा के भीतर उसका राजनीतिक अर्थ परख कर अपने हित के अनुकूल निर्णय लेने की क्षमता. यह क्षमता ही किसी व्यक्ति को लोकतंत्र में ‘प्रजा’ से आगे बढ़ कर अधिकार-चेतस ‘नागरिक’ बनने की दशा में ले आती है.
पूरे सरकारी स्कूली शिक्षा तंत्र को सत्तावर्ग ने सुविधाविहीन रख कर यह सुनिश्चित किया है कि इस देश की अधिसंख्य आबादी ‘प्रजा’ की दशा में ही रहे, सदा हाथ पसारने की मुद्रा में सामने आये, वह नागरिक की दशा में आकर अपने साथ हो रहे बरताव पर प्रश्न पूछना न शुरू कर दे. यह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को महंगा और पहुंच से दूर बनाये रखने की साजिश से संभव होता है. इसी साजिश ने सरकारी स्कूलों को देश की अधिसंख्य आबादी की संतानों के लिए एक यातना-घर में तब्दील किया है.
यह साजिश इतनी पुख्ता है कि सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच की खाई पाटने के लिए सरकार कोई कामचलाऊ पुल बनाती है, तो उस पुल पर भी आवाजाही की मनाही हो जाती है. सोचिए, शिक्षा के अधिकार कानून के अंतर्गत अगर सभी गैर-सरकारी स्कूलों को आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करना जरूरी है, तो फिर शिक्षा सत्र 2013-14 में कुल 21 लाख ऐसी आरक्षित सीटों में से केवल 29 फीसदी सीटें ही क्यों भर पायीं?
परीक्षा में नकल चाहे वैशाली में हो या दिल्ली में, हमें याद रखना होगा कि वह हमारे गणतंत्र में प्रवेश के लिए की जानेवाली एक सेंधमारी है, एक ऐसी सेंधमारी, जिसे इस गणतंत्र से बाहर रहने को अभिशप्त अधिसंख्य लोग आकुल होकर करते हैं.

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