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टकरा न जाये शिया-सुन्नी दुनिया

रहीस सिंह विदेशी मामलों के जानकार संभवत: सऊदी अरब ने हूती विद्रोहियों को अब सुन्नी दुनिया के लिए चुनौती के तौर पर देखना शुरू कर दिया है. इजरायल लंबे समय से कुछ ऐसा ही चाह रहा था जिससे ईरान घेरे में आये. यमन की अशांति से वे समीकरण बनते दिख रहे हैं, जो इजरायल के […]

रहीस सिंह
विदेशी मामलों के जानकार
संभवत: सऊदी अरब ने हूती विद्रोहियों को अब सुन्नी दुनिया के लिए चुनौती के तौर पर देखना शुरू कर दिया है. इजरायल लंबे समय से कुछ ऐसा ही चाह रहा था जिससे ईरान घेरे में आये. यमन की अशांति से वे समीकरण बनते दिख रहे हैं, जो इजरायल के मंसूबों के अनुकूल हैं. अब दुनिया को महान चालें चलने की बजाय उचित समाधान निकालने के लिए कदम बढ़ाने होंगे, अन्यथा मध्य-पूर्व एक नये संकट की ओर खिसक जायेगा.
यमन में उन आवाजों की पुनरावृत्ति हो रही है, जिन्होंने कई देशों के तानाशाहों को जमींदोज कर दिया था. ‘अमेरिका, इजरायल का नाश हो’, ‘अल्लाह यहूदियों का विनाश करे’, ‘इसलाम की जीत हो’.. जैसी मनोदशा से ग्रस्त हूती विद्रोहियों ने यमन की सत्ता पर कब्जा कर लिया है.
खबर है कि राष्ट्रपति अब्द रब्बुह मंसूर हादी कहीं भाग गये हैं. विद्रोही उन्हें पकड़ने के लिए इनाम घोषित कर रहे हैं और सऊदी अरब ने उनकी वैध सरकार की रक्षा के लिए सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी है. रक्षा मंत्री महमूद अल सुबाही भी विद्रोहियों के कब्जे में हैं. ऐसे में बड़ा सवाल है कि इसके अंतिम परिणाम क्या होंगे? कहीं हूतियों का विद्रोह और उसके खिलाफ सुन्नी दुनिया के देशों तथा संगठनों की प्रतिक्रिया इसलाम जगत में शिया व सुन्नी इलाकों के बीच की विभाजक रेखा को और गाढ़ी तो नहीं कर देगी, जिसे मिटाना मुश्किल हो जाये?
लंबे समय से हाशिये पर रहे शिया विद्रोहियों ने बीते वर्ष सितंबर में राजधानी सना पर हमला कर सत्ता में बड़ी हिस्सेदारी मांगी थी. कोई हल के न निकलने के कारण चार महीने बाद जनवरी में इस समूह ने राष्ट्रपति महल पर भी कब्जा जमा लिया और राष्ट्रपति को सना में ही नजरबंद कर दिया. हादी वहां से किसी तरह अदन भागने में कामयाब रहे, जो सना से करीब 300 किमी दूर है. सवाल है कि क्या हूती इतने ताकतवर हैं?
हूती विद्रोही स्वयं को ‘अंसार अल्लाह’ (अल्लाह के समर्थक) के नाम से प्रतिष्ठित किये हुए हैं और शियाओं में भी अल्पसंख्यक समूह जैदी शिया समूह के हैं. इन्होंने अपने संगठन का नाम हुसैन बद्रेददीन अल हूती के नाम पर रखा है, जिसने 2004 में सरकार के खिलाफ विद्रोह किया था और उसी वर्ष सितंबर में यमनी सेना द्वारा मारा गया. अब इसका नेतृत्व अब्दुल मलिक अल-हूती के पास है, जो आंदोलन को युवाओं पर निर्भर बनाये हुए है.
सही अर्थो में हूतियों ने 2011 से क्रांति में भाग लेना शुरू किया, जब उन्होंने दावा किया था कि उनका साद और अल जॉफ नामक दो गवर्नरेट्स पर कब्जा हो गया है और तीसरे गवर्नरेट हज्जाह पर कब्जे के करीब हैं, जो उन्हें यमन की राजधानी सना पर नियंत्रण में मदद करेगी. 21 सितंबर, 2014 को हूतियों ने घोषणा की कि उन्होंने यमनी राजधानी सना के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया है, जिसमें सरकार भवन और रेडियो स्टेशन शामिल हैं.
जहां तक इनकी ताकत का सवाल है, तो यमन पोस्ट के अनुसार इस समूह के पास करीब एक लाख लड़ाके हैं. हूती विशेषज्ञ अहमद अल बहरी भी इनकी संख्या एक से सवा लाख बताते हैं. जाहिर है, हूती लड़ाकों की इतनी बड़ी संख्या किसी भी सैन्य बल के लिए चुनौतियां पैदा करेगी.
खतरा दूसरा भी है. ईरान इस या उस तरह के शिया विद्रोही समूहों की धुरी रहा है. उसका समर्थन हमास और हिज्बुल्ला को मिलता रहा है. अब यदि इन तीनों में एका हुई तो स्थितियां और अधिक चुनौतीपूर्ण होंगी. उक्त स्थितियां एक दिन में तय नहीं हो गयीं, बल्कि वैश्विक कूटनीति में चली गयीं महान चालों का परिणाम लगती हैं.
1979 की ईरानी क्रांति के बाद से उग्र शिया इसलामवाद के एजेंडे पर कार्य शुरू हुआ, जिसका नेता बना ईरान. ईरान ने अपनी सीमाओं के बाहर शिया लड़ाकों, आतंकी समूहों और पार्टियों को समर्थन देना शुरू कर दिया. ईरान की तरफ उत्पन्न इस चुनौती को सुन्नी सरकारों ने एक बड़ा खतरा माना और इसके खिलाफ सुन्नी इसलामवादी एजेंडे पर रणनीतिक ढंग से कार्य शुरू कर दिया. खाड़ी देशों में सुन्नी संगठनों, यहां तक कि सुन्नी विचारधारावाले आतंकी समूहों और सुन्नी सरकारों को मजबूत किया गया तथा दुनिया भर में बिखरे सुन्नी आंदोलनों में एकता स्थापित करने के लिए बड़े पैमाने पर धन का व्यय किया गया.
ईरानी रणनीति का एक परिणाम यह हुआ कि लेबनान में गृहयुद्ध के दौरान शियाओं ने हिजबुल्ला की सैन्य कार्रवाइयों के कारण राजनीतिक रूप में मजबूती हासिल कर ली. इन टकरावों का एक नतीजा यह हुआ कि इराक और सीरिया में जारी संघर्ष ने शिया और सुन्नियों के बीच एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी. दोनों देशों में सुन्नी युवा विद्रोही गुटों में शामिल हुए और शिया अपने समूहों में.
जहां ईरान की नीतियों ने हिजबुल्ला और हूती जैसे संगठनों को मजबूत किया, वहीं सुन्नी दुनिया के सहयोग ने पहले अलकायदा, फिर इसलामी स्टेट को नासूर बना दिया. सीरिया में शिया शासक असद को सत्ता से बेदखल करने के लिए सुन्नी विद्रोहियों को पर्याप्त आर्थिक मदद और हथियार मुहैया कराये गये, जिसके कारण इसलामी स्टेट इस मुकाम तक पहुंच पाया.
इसमें सऊदी अरब और सुन्नी देशों की ही नहीं, बल्कि अमेरिका भूमिका भी निर्णायक रही. उसने इसलामी स्टेट के संबंध में दोहरा खेल खेला. एक तरफ असद के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मदद दी, दूसरी तरफ इराक के पूर्व राष्ट्रपति मलिकी को ईरान से नजदीकी रखने के कारण नीचा दिखाने हेतु इराक में इसलामी स्टेट की गतिविधियों के खिलाफ कार्रवाई में पर्याप्त विलंब किया. यही कार्य-कारण संबंध हूतियों के संबंध में भी दिख रहे हैं.
हूती विद्रोहियों ने यमन में विगत 20 जनवरी को ही राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर गंभीर चुनौती पेश की थी. लेकिन, तब से लेकर 26 मार्च तक यमन सरकार को सऊदी अरब या अमेरिका सहित पश्चिमी दुनिया ने कोई सहायता नहीं दी. उधर हूती विद्रोही इजरायल और अमेरिका का नाश करने जैसे स्लोगन पोस्टरों पर लिख रहे थे, जो ईरानी क्रांति के समय से ईरान के मूलभूत सिद्धांतों में शामिल हैं और इधर अमेरिका ईरान के साथ शांति प्रक्रिया स्थापित करने का प्रयास कर रहा था.
इस स्थिति में यह कैसे संभव था कि अमेरिका ईरान समर्थित किसी समूह पर कार्रवाई करे. यदि यही कारण था, तो मान लेना चाहिए कि दुनिया ऐसी महान चालों का हिस्सा बन चुकी है, जिसके अंतिम नतीजे बेहतर नहीं आने हैं. सऊदी अरब भी अमेरिकी छतरी के बाहर आकर ऐसी कोई कार्रवाई नहीं कर सका, जो अमेरिकी इच्छा के विरुद्ध हो.
अब शायद उसने इसे सुन्नी दुनिया के लिए चुनौती के तौर पर देखना शुरू कर दिया है. महत्वपूर्ण यह है कि इजरायल लंबे समय से कुछ ऐसा ही चाह रहा था जिससे ईरान घेरे में आये. यमन की अशांति से वे समीकरण बनते दिख रहे हैं, जो इजरायली मंसूबों के अनुकूल हैं.
यमन लंबे समय ऐसी अस्थिरताओं से घिरा था, जहां व्यवस्था को ‘क्लिप्टाक्रैसी’ नाम से संबोधित किया जाने लगा था. लोग हूतियों द्वारा अंजाम दी जा रही घटनाओं को बदलाव के संदर्भ में भी देख रहे थे. उन्हें लगता था कि यह कदम उस राजनीतिक शून्य को भरनेवाला हो सकता है, जिसने एक अर्से से यमन को बंधक सा बना रखा था. इसीलिए जब वहां जब क्रांतिकारी परिषद की स्थापना हुई, तो लोगों को लगा कि अब एक सरकार तो होगी. मगर, यमन की स्थितियों को देखते हुए आशंका है कि देश कहीं शिया-सुन्नी आबादी में बंट कर ऐसे संघर्ष की ओर न चला जाये, जिससे हुई हानि का मूल्य बहुत ज्यादा हो.
वहां अलकायदा की सऊदी और यमनी शाखाएं एकजुट होकर ‘अलकायदा फॉर अरब पेनिंसुला’ का रूप ले चुकी हैं, जो बड़े पैमाने पर सुन्नी युवाओं को आकर्षित करने में सफल हो रही हैं. ऐसे में दुनिया को महान चालें चलने की बजाय उचित समाधान निकालने के लिए कदम बढ़ाने होंगे, अन्यथा मध्य-पूर्व एक नये संकट की ओर खिसक जायेगा.

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