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आम आदमी पार्टी : गुबार में गुम हो रहा कारवां?

भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह चमकी आम आदमी पार्टी दिल्ली में विशाल बहुमत से सत्ता में वापसी करने के एक महीने के भीतर ही आंतरिक कलह की चपेट में है. महीने भर पहले की चुनावी जीत के बाद बड़ी राजनीतिक शक्ति बनने की इसकी संभावनाएं अब इसके अस्तित्व को लेकर आशंकाओं में बदलती प्रतीत […]

भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह चमकी आम आदमी पार्टी दिल्ली में विशाल बहुमत से सत्ता में वापसी करने के एक महीने के भीतर ही आंतरिक कलह की चपेट में है. महीने भर पहले की चुनावी जीत के बाद बड़ी राजनीतिक शक्ति बनने की इसकी संभावनाएं अब इसके अस्तित्व को लेकर आशंकाओं में बदलती प्रतीत हो रही हैं. हालांकि पहले भी पार्टी में ऐसे विवाद होते रहे हैं, लेकिन इस बार न सिर्फ मामला गंभीर है, बल्कि स्टिंग टेपों के सिलसिले ने इसमें बाहरी आयाम भी जोड़ दिये हैं. प्रस्तुत है कलह की पृष्ठभूमि और जानकारों की राय …

* 2012 राजनीति बदलने के दावे के साथ शुरुआत

भारतीय संविधान की 63वीं वर्षगांठ के अवसर पर 26 नवंबर, 2012 को आम आदमी पार्टी के गठन की आधिकारिक घोषणा की गयी थी. इस घोषणा के लिए जगह के रूप में दिल्ली के जंतर-मंतर को चुना गया था, क्योंकि एक तो यह लोकतांत्रिक विरोध का प्रतीक-स्थल है, और दूसरे, यहीं से 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन का सूत्रपात हुआ, जिससे यह पार्टी निकली है.

स्थापना के समय ही पार्टी ने यह दावा किया था कि ह्यआपह्ण का उद्देश्य राजनीति करना नहीं, बल्कि राजनीति बदलना है. पार्टी ने भारतीय राजनीति के आम चलन, जैसे- आला कमान संस्कृति, परिवारवाद, अपराधीकरण आदि के विरुद्ध कड़ा रुख दिखाते हुए अपने आधारभूत सिद्धांतों में लोगों की राय से प्रत्याशी चुनने और नीतियां बनाने, भ्रष्ट और दागी लोगों को परे रखने, पूर्ण वित्तीय पारदर्शिता रखने आदि को शामिल किया. पार्टी के संगठन में भी पारदर्शिता, विकेंद्रीकरण, आंतरिक लोकपाल जैसी नीतियां अपनाने की बात की गयी थी.

* 2013-14 दिल्ली में सरकार

दिसंबर, 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव एक साल पुरानी आम आदमी पार्टी के लिए पहली अग्नि-परीक्षा थी. नये तेवर और जुझारू चेहरों के साथ पार्टी ने 70 में से 28 सीटें जीत कर राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया. 32 सीटों पर आप भाजपा के बाद दूसरे स्थान पर रही थी. 28 दिसंबर को कांग्रेस के आठ सदस्यों के समर्थन के बूते अरविंद केजरीवाल ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

सत्ता में आते ही आप की सरकार ने तेजी से अपने प्रमुख वादों- 29 किलोलीटर तक पानी हर माह मुफ्त करना, बिजली की दरें घटाना, बिजली आपूर्ति करनेवाली कंपनियों का लेखा परीक्षण कराना, सिख-विरोधी दंगों की विशेष जांच, गैस की कीमतें मनमाने ढंग से बढ़ाने के आरोप में केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली, पूर्व मंत्री मुरली देवड़ा और उद्योगपति मुकेश अंबानी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कराना, पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर कथित घोटाले में मुकदमा आदि- पर अमल करना शुरू किया.

सरकारी दफ्तरों में घूसखोरी, काम में अनावश्यक देरी और जनता को परेशानी जैसे मसलों पर सरकार के कडे़ रुख से आम आदमी पार्टी को लोकप्रियता में तेजी से बढ़ोतरी हो रही थी. इसी बीच 16 जनवरी की रात कानून मंत्री सोमनाथ भारती द्वारा कथित रूप गैरकानूनी ढंग से दिल्ली के एक इलाके में रह रहीं अफ्रीकी मूल की स्त्रियों के आवासों पर छापे की कार्रवाई से सरकार की बहुत आलोचना हुई. भारती के खिलाफ कार्रवाई करनेवाले पुलिसकर्मियों की बर्खास्तगी की मांग पर मुख्यमंत्री केजरीवाल के धरने से विवाद. 14 फरवरी को लोकपाल और स्वराज विधेयक पर कांग्रेस और भाजपा का समर्थन न मिल पाने के आधार पर केजरीवाल का इस्तीफा.

* 2014 आम चुनाव में हार

दिल्ली की जीत और लोकप्रियता के आधार पर आप को देशव्यापी समर्थन की उम्मीद थी. पार्टी ने 2014 के आम चुनाव में कुल 432 उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन इसे पंजाब की चार सीटों- पटियाला, संगरुर, फरीदकोट और फतेहगढ़ साहिब- पर ही जीत मिल सकी. भारी संख्या में पार्टी के प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई.

* 2015 दिल्ली विधानसभा चुनाव

लोकसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन से पार्टी में हताशा तो थी, लेकिन उसने पूरी ताकत और नयी रणनीति से दिल्ली में दुबारा वापसी की कवायद जारी रखी. फरवरी, 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें और 50 फीसदी से अधिक मत हासिल कर देश के राजनीतिक इतिहास में नया अध्याय जोड़ा और 2014 में दिये गये इस्तीफे के ठीक एक साल बाद 14 फरवरी, 2015 को दिल्ली के रामलीला मैदान में अरविंद केजरीवाल ने दुबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

* विवाद और आंतरिक कलह

एक तरफ आम आदमी पार्टी राजनीति में स्थापित ताकत बनने की कोशिश में लगी हुई है, लेकिन दूसरी ओर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में आपसी खींचतान के कारण पार्टी टूट के कगार पर पहुंचती दिखायी देती है. लेकिन पार्टी में आंतरिक कलह का सिलसिला नया नहीं है.

* विनोद कुमार बिन्नी का निष्कासन : 19 जनवरी, 2014 को पार्टी की अनुशासन समिति ने संस्थापक सदस्य और विधायक विनोद कुमार बिन्नी को पार्टी और नेतृत्व पर ह्यगलत आरोपह्ण लगाने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया. वरिष्ठता और राजनीतिक अनुभव के बावजूद बिन्नी मंत्री न बनाये जाने के कारण नाराज थे और निष्कासन से तीन दिन पूर्व उन्होंने सार्वजनिक रूप से पार्टी पर सिद्धांतों से भटकने का आरोप लगाया था.

* शाजिया इल्मी और कैप्टन गोपीनाथ का इस्तीफा : लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के कुछ दिन बाद ही 24 मई, 2014 को पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी ने पार्टी पर निरंकुशता और गुटबाजी का आरोप लगाकर आप से इस्तीफा दे दिया. इल्मी ने पार्टी की ओर से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था. एक अन्य उम्मीदवार और उद्योगपति कैप्टन गोपीनाथ ने भी इन्हीं आधारों पर पार्टी से किनारा कर लिया. इस दौरान अन्य कई लोगों ने आप से दूरी बनानी शुरू कर दी थी, जिनकी अन्ना आंदोलन और आप की स्थापना में भूमिका रही थी. दिल्ली विधानसभा के हालिया चुनाव से पूर्व शाजिया इल्मी और बिन्नी भारतीय जनता पार्टी में शमिल हो गये थे.

* अवाम का गठन : अगस्त, 2014 में पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं ने पार्टी में एक खास गुट के दबदबे से नाराज होकर एक संगठन- आम आदमी पार्टी वोलंटियर एक्शन मंच यानी अवाम-बनाया, जिसका घोषित मकसद आम आदमी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए दबाव बनाना है. इसी समूह ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी पर नाजायज तरीके से चंदा उगाहने का आरोप लगाया था.

* विवाद जो बन सकता है आप की टूट का कारण

स्थापना के बाद से आम आदमी पार्टी आंतरिक और बाहरी हमलों से जूझती रही है, लेकिन इनसे उसकी राजनीतिक यात्रा पर नकारात्मक असर पड़ता नहीं दिख रहा था, लेकिन दिल्ली में प्रचंड बहुमत के साथ दुबारा सरकार बनाने के साथ ही शीर्ष नेतृत्व में मतभेदों और मनभेदों का प्रकरण शुरू हुआ है, उससे पार्टी में टूट की आशंका बढ़ती जा रही है क्योंकि यह संकट थमने की जगह और भी पेचीदा होता जा रहा है. इस संकट की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सक्ता है कि पार्टी के दो वरिष्ठ संस्थापकों-योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण- को पार्टी की सर्वोच्च समिति से हटा दिया गया है. पार्टी स्पष्ट रूप से दो खेमों में बंटी हुई है, जहां अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तथा प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव आमने-सामने खडे़ दिख रहे हैं.

* 26 फरवरी केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही पार्टी के अंदर एक व्यक्ति-एक पद के तहत उनके राष्ट्रीय संयोजक पद छोड़ने की बातें उठने लगीं. केजरीवाल ने 26 फरवरी को अपना इस्तीफा पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी को भेज दिया, जिसे कमिटी ने एक राय से खारिज कर दिया. केजरीवाल समर्थकों का आरोप है कि इस मांग के पीछे योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण हैं. हालांकि इन दोनों ने इस बात से इंकार किया है.

* 4 मार्च अरविंद केजरीवाल खेमा अपने आरोप की ताकीद में शांतिभूषण के बयानों, पार्टी की बैठकों में यादव और भूषण की बातों और आंतरिक पत्रों का हवाला दे रहा है. इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री के पक्ष में खुल कर सामने आये वरिष्ठ नेताओं ने इन दोनों नेताओं पर पार्टी को चुनाव में हराने का षड्यंत्र रचने का आरोप तक लगा दिया.

केजरीवाल की अनुपस्थिति में पार्टी की निर्णायक संस्था राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इन मसलों पर चर्चा हुई और आठ के मुकाबले 11 मतों के बहुमत से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी की पॉलिटिकल अफेयर्स से हटाने का निर्णय ले लिया.

इस बैठक में मौजूद और मतदान से अलग रहे महाराष्ट्र के पार्टी नेता मयंक गांधी ने सार्वजनिक बयान देकर कहा कि ये दोनों नेता स्वेच्छा से जब कमिटी से हट रहे थे, तो उन्हें इस तरह से हटाना वाजिब नहीं था और यह सब केजरीवाल के इशारे पर हो रहा है.

* बयानबाजी का दौर जारी है अभी

इस अवधि में और अब तक बयानबाजी का दौर जारी है. बैठक के निर्णय पर यादव और भूषण ने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन बड़ी संख्या में उनके समर्थन में बातें सोशल मीडिया पर आ रही थीं. पार्टी के समर्थक मांग करने लगे थे कि इन नेताओं के खिलाफ आरोपों को सबूतों के साथ सार्वजनिक किया जाये.

इस मांग के दबाव में केजरीवाल खेमे के चार वरिष्ठ सदस्यों- मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, पंकज गुप्ता और गोपाल राय- ने एक पत्र जारी किया जिसमें आरोपों को दुहराया गया. इसके जवाब में यादव और भूषण ने कार्यकर्ताओं के नाम एक अपील जारी की जिसमें आरोपों का खंडन किया गया था. अब मसला पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की इस महीने के आखिर में होनेवाली बैठक में विचार के लिए लाया जाना है.

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