कश्मीर के अलगाववादी नेता मसारत आलम की रिहाई पर राजनीतिक बहस जारी है, पर अधिकतर मसलों की तरह यह भी आरोप-प्रत्यारोप तक ही सीमित दिखती है. यह सवाल ठीक है कि जिस व्यक्ति पर लोगों को भड़काने और सार्वजनिक शांति भंग करने के आरोप हैं,
क्या उसे इतनी आसानी से रिहा किया जाना चाहिए, लेकिन विचारणीय यह भी है कि करीब पांच वर्षो तक हिरासत में रखने के बावजूद जम्मू-कश्मीर पुलिस मसारत के खिलाफ आरोप-पत्र क्यों नहीं दाखिल कर सकी है. पुलिस की ढिलाई को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि इस नेता को तीन मामलों में पहले ही जमानत मिल चुकी है. जांच एजेंसियों और न्यायायिक प्रक्रिया की शिथिलता का मामला जम्मू-कश्मीर तक ही शामिल नहीं है. देश की विभिन्न जेलों में बड़ी संख्या में ऐसे कैदी हैं, जिन पर या तो लंबे समय से अभियोग तय नहीं किये जा सके हैं या फिर उनकी सुनवाई बड़े अंतराल पर होती है.
मसलन, बिहार में बरसों पहले हुए एक नरसंहार में आरोपित कुछ महीने पहले अदालत द्वारा बरी कर दिये गये. नरसंहार एक सच है, और यह भी सच है कि उसे किसी गिरोह ने अंजाम दिया था,तो क्या हमारी पुलिस और अदालतें दोषियों को सजा दिलाने में चूक रही हैं! ऐसे मामले अकसर सामने आते रहे हैं, जिनमें निदरेष लोग बर्षो सलाखों के पीछे रहने के लिए अभिशप्त होते हैं. इसलिए मसारत के मामले को पुलिस व न्यायिक प्रक्रिया के ढीलेपन के नतीजे के रूप में भी देखा जाना चाहिए. मुफ्ती मोहम्मद सईद 2002 में भी घाटी में भरोसे का माहौल बनाने के लिए अतिवादियों को आम माफी देने की बात कर चुके हैं. तब कांग्रेस भी उनके साथ थी.
इस बार के विधानसभा चुनाव में भी राजनीतिक कैदियों को रिहा करना उनका चुनावी वादा था. ऐसे में इस मामले को ‘देशभक्ति’ के चश्मे से देखना मूल बिंदु से भटकना होगा. ‘देशभक्ति’ की अवधारणाओं की समझ विचारधाराओं में अंतर के साथ अलग-अलग हो सकती हैं. इसलिए ऐसे मामलों में बहस का आधार जांच एजेंसियों और न्याय-तंत्र की चुस्ती होना चाहिए. बहस को बेमानी तर्को में उलझाने से शांति-प्रक्रिया को नुकसान ही पहुंचेगा. उम्मीद है कि राजनीतिक पार्टियां बेमानी बहसों में न उलझ कर घाटी में अमन-चैन की बहाली पर ध्यान केंद्रित करेंगी.