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त्योहरों के बदलते रंग और चिंताएं

अंकित कुमार प्रभात खबर, दिल्ली मेरे गांव में रंग-गुलाल के साथ होली मनायी गयी. मैं इसमें ‘आपसी सद्भाव’ जैसे भारी-भरकम शब्द जोड़ने से गुरेज करूंगा. कारण यह कि अखबारी जीवन से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर होली मनाने गांव आया हूं. कुछ दिनों के लिए ही सही, अखबारी लफ्फाजी और शहर के शोर से दूरी […]

अंकित कुमार

प्रभात खबर, दिल्ली

मेरे गांव में रंग-गुलाल के साथ होली मनायी गयी. मैं इसमें ‘आपसी सद्भाव’ जैसे भारी-भरकम शब्द जोड़ने से गुरेज करूंगा. कारण यह कि अखबारी जीवन से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर होली मनाने गांव आया हूं. कुछ दिनों के लिए ही सही, अखबारी लफ्फाजी और शहर के शोर से दूरी बरतना चाहता हूं. हालांकि पिछले दो-तीन बार से मैं गांव आने पर कुछ अंतर महसूस कर रहा हूं.

लौटते वक्त, यह अंतर कुछ खुशी, तो कुछ चिंता छोड़ जाता है चेहरे पर. जब से खाड़ी देशों का द्वार खुला है भारतीय मजदूरों के लिए, मेरे इलाके से भी बड़ी संख्या में कुशल मजदूर दूसरे देशों में गये हैं. तब से गांव में आर्थिक समृद्धि की एक नयी राह खुलती नजर आ रही है. काफी कुछ बदल गया है गांव में. कथित रूप से विकास हुआ है. दोनों तरह से. कुछ सरकारी प्रयासों से और कुछ लोगों के खुद के सामथ्र्य से. जाहिर तौर पर इसका प्रभाव त्योहारों पर भी पड़ा है.

कुछ साल पहले तक होली के दिन मांस-मछली खरीदने के लिए गांव में सबके पास पैसे नहीं होते थे. शराब के लिए भी. इसलिए बहुत से लोग गांव के कुछ जमींदार व आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के घर इन दोनों चीजों के लिए जाते थे. विकास के साथ त्याहारों का यह रूप तेजी से बदल रहा है. आज हर घर में थोक भाव से मांस-मछली खरीदे जाते हैं (जिनका मूल्य पिछले कुछ सालों में कई गुना तक बढ़ गया है). बोतल की बोतल शराब (पुराने पाउच नहीं, बल्कि महंगी अंगरेजी शराब) खरीदी जाती है. आ गयी न चेहरे पर मुस्कान!

अब चिंता की बात- शराब, मांस, पैसे का कॉकटेल अब शहरों से निकल कर संक्र मण की तरह गांवों में भी फैल रहा है. ग्रामीण जीवन की सादगी खत्म हो रही है. हर तरफ केवल अभिमान है. ईष्र्या है. खोखला दिखावा है. आपसी सद्भाव दम तोड़ रहा है. अब कोई किसी की परवाह नहीं करता.

त्योहार में झुंड बना कर दूसरों के घर जाने का चलन खत्म हो चुका है. क्या हम आर्थिक तरक्की और ईष्र्या-अभिमान को अलग नहीं कर सकते? क्या हमारे गांव भी शहरों की तरह ही हो जायेंगे. दमघोंटू. इससे भी ज्यादा परेशान कर रहा है गांव के युवाओं का हाल. बड़ी संख्या में युवा शराब पीकर चौराहों पर फूहड़ गानों पर नाच रहे हैं. चेहरे पर कोई फिक्र नहीं अपने भविष्य की. आश्वस्त हैं कि कुछ नहीं हुआ तो पासपोर्ट बनवा कर लेबर क्लास में विदेश चल देंगे. उनका यह मनोभाव मुङो चिंतित कर रहा है.

जो लोग आज खाड़ी देशों में जा रहे हैं, जब वे लौटेंगे तो क्या हमारे पास वैसे उद्योग होंगे, जहां हम उतना मेहनताना व सुविधाएं दे पायेंगे? शायद नहीं. तब यही लोग अपने देश के नेताओं व शासकों को कोसेंगे. देश की स्थिति से हताश होंगे. चिंता यह है कि आज शराब के नशे में झूमते ये नवयुवक कल देश के लिए परेशानी बनेंगे, नयी चुनौतियां पेश करेंगे. क्या होली के बाद यह हमारी चिंता का विषय बनेगा?

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