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सहिष्णुता पर मोदी के बयान का मतलब

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार हमें आशा करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी के सहयोगी और संघ परिवार भी उनकी भाषा को अपनायेंगे. इस संदर्भ में वर्षो पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था कि नेताओं की अच्छी बातों का कोई मतलब नहीं है, अगर उनके समर्थकों का रवैया पहले की ही तरह बना रहे. विश्वनाथ प्रताप […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
हमें आशा करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी के सहयोगी और संघ परिवार भी उनकी भाषा को अपनायेंगे. इस संदर्भ में वर्षो पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था कि नेताओं की अच्छी बातों का कोई मतलब नहीं है, अगर उनके समर्थकों का रवैया पहले की ही तरह बना रहे.
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कभी भारतीय जनता पार्टी के बारे जो कहा था, वह आज भी उतना ही सही है, जितना उस समय था जब वे प्रधानमंत्री थे. सिंह ने 1980 के दशक के आखिरी वर्षो में राजीव गांधी की कांग्रेस को पराजित करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी से हाथ मिलाया था. यह वही दौर था जब अयोध्या आंदोलन मजबूत हो रहा था.
विश्वनाथ प्रताप सिंह को बाद में अहसास हुआ कि यह देश के लिए नुकसानदेह है और उन्होंने भाजपा से संबंध तोड़ लिया. इसी के साथ उनकी सरकार का भी अवसान हो गया, जो भाजपा के 82 लोकसभा सांसदों के समर्थन पर निर्भर थी. उन्हें दावा करने का मौका मिल गया कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की वेदी पर अपनी आहुति दे दी. उन्होंने अपने आखिरी वर्ष विभिन्न समूहों को संगठित करने में लगाये, जिसका मुख्य राजनीतिक उद्देश्य पहले की तरह कांग्रेस को रोकना नहीं, बल्कि भाजपा को हराना था.
इसी दौरान एक बार एक संवाददाता ने उन्हें बताया कि वाजपेयी ने नरमी दिखाते हुए एकता तथा सहिष्णुता का उपदेश दिया है और इस आधार पर लगता है कि समूची भाजपा सांप्रदायिक नहीं है. इस पर सिंह ने जवाब दिया था कि भाजपा को हमेशा आक्रामकता के साथ अपनी बात कहने की आवश्यकता नहीं है. इसके नेताओं की नहीं, बल्कि समर्थकों की बात ध्यान से सुनी जानी चाहिए. किस तरह की भाषा निचले स्तर पर प्रयोग में लायी जा रही है, यह उसके सबसे वरिष्ठ नेताओं के मीडिया को दिये जा रहे प्रवचनों से अधिक महत्वपूर्ण है.
उन्होंने कहा कि जमीन पर विषवमन किया जा रहा है और हिंदुत्व के अनुयायी समझते हैं कि यह इस देश में खेल का हिस्सा है, जो कि आमतौर पर सहिष्णु है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सद्भाव और सहिष्णुता पर कहे गये अच्छे शब्दों को सुन कर मुङो यह बात ध्यान में आयी. मोदी ने अपने चलन से परे जाकर उसी दौरान चर्च के एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया, जब दिल्ली में गिरिजाघरों में तोड़-फोड़ की घटनाएं बढ़ने की खबरें आ रही थीं.
उन्होंने संतत्व पाये केरल के दो धर्मपरायण लोगों- कुरियाकोस इलियास चवारा और यूफ्रेसिया- का गुणगान किया. मोदी ने चवारा के बारे में कहा कि ‘ऐसे समय में जब शिक्षा तक पहुंच सीमित थी, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हर गिरिजाघर के पास एक विद्यालय होना चाहिए. इस तरह उन्होंने समाज के हर वर्ग के लिए शिक्षा का द्वार खोला.’ संस्कृत के प्रभावी ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए (जिसका उच्चारण भी उन्होंने अच्छी तरह किया), मोदी ने प्राचीन ग्रंथों से सूक्तियों का उद्धरण दिया और उनके अर्थ बताये, जिनमें उदारता और सहिष्णुता के संदेश थे. उन्होंने स्वामी विवेकानंद का वह प्रसिद्ध कथन भी उद्धृत किया कि हिंदू सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता में ही भरोसा नहीं करते, बल्कि वे सभी धर्मो को सत्य के रूप में भी स्वीकार करते हैं.
वर्षो पहले जब मैंने मोदी का साक्षात्कार लेते हुए इस पर, विशेषकर गुजरातियों में असहिष्णुता के बारे में, चर्चा की, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री बहुत सचेत थे. उन्होंने कहा कि वे सहिष्णुता के बारे में बात नहीं करना चाहते हैं तथा जोर दिया कि इसके बदले हमें हिंदू स्वीकार पर बात करना चाहिए, क्योंकि सहिष्णुता इससे एक कदम पीछे की अवधारणा है. उन्होंने इस समझ को खारिज कर दिया कि भारतीयों में सहिष्णुता है, क्योंकि उनके विचार से इनमें कुछ अलग भावना है, जो कि स्वीकार है. निश्चित रूप से स्वीकार पर यह जोर हमें संदिग्ध रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस विचार के करीब ले जाता है जिसके अनुसार आस्था (हिंदू होना) और राष्ट्र (भारतीय होना) एक ही बात है.
ईसाई आयोजन में उन्होंने इस समझदारी से अलग हटते हुए कुछ बातें बहुत स्पष्टता से कहीं, जिन्हें रेखांकित करना महत्वपूर्ण है. उनके शब्द इस प्रकार थे- ‘हम मानते हैं कि किसी धर्म या आस्था में रहना, उसे कायम रखना या उसे अपनाना नागरिक का व्यक्तिगत चयन है. मेरी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि धर्म की पूर्ण स्वतंत्रता हो और प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी दबाव और अवांछित प्रभाव के अपनी पसंद के धर्म में आस्था रखने और अपनाने का निर्विवाद अधिकार हो. मेरी सरकार किसी भी धार्मिक समूह को, चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दूसरों के प्रति द्वेष भड़काने की अनुमति नहीं देगी. मेरी सरकार सभी धर्मो को समान आदर देनेवाली सरकार होगी.’
यह महत्वपूर्ण है कि इस मसले पर प्रधानमंत्री ने बहुत स्पष्टता के साथ अपनी बात कही है. मोदी का यह भी कहना है कि वे इस मामले में अपने कुछ मंत्रिमंडलीय सहयोगियों, पार्टी के लोगों और संघ परिवार में अपने समर्थक-समूहों के बयानों से आहत हैं. उन्होंने भाजपा के सदस्यों को अनुशासनबद्ध नहीं किया (हालांकि हमें बताया गया कि कुछ कारण बताओ नोटिस जारी किये गये हैं), लेकिन उन्होंने यह संकेत जरूर दिया है कि वे उन लोगों के विचारों के साथ नहीं हैं.
ईसाई आयोजन में इस भाषण के बाद अगर सत्तारूढ़ दल और उसके विचारधारात्मक मित्र संगठन अपने रवैये पर कायम रहते हैं, तो मीडिया इस भाषण को संदर्भ बनाते हुए मोदी को जिम्मेवार ठहरा सकता है. उनका स्वयं को इस तरह से स्पष्ट करना यह संकेत करता है कि मोदी इस बात को बखूबी समझते हैं और वे अपनी टीम को नियंत्रण में रखने की जिम्मेवारी को स्वीकार करते हैं.
इस भाषण से मोदी के व्यक्तित्व का एक और पहलू सामने आया है, जो आम तौर पर सामने नहीं आता.
यह उनकी गुजराती भावना है, जो समझौता करना जानती है और जिसका रवैया विचारधारा के प्रति जिद्द के साथ चिपके रहने के बजाय लाभ की ओर रुख करने का होता है. मोदी इस पहलू का प्रदर्शन विकास के मसलों पर काम करते हुए नियमित रूप से करते हैं, जहां उन्होंने संघ की आर्थिक विचारधारा को पूरी तरह से दरकिनार कर तहस-नहस कर दिया है, जिसे अर्थशास्त्र पर उनके लेखक दीनदयाल उपाध्याय ने तैयार किया था.
दूसरी तरफ, मोदी शायद ही कभी धार्मिक संबंधों के मामलों पर अपने को स्पष्ट करते हैं. इसी कारण उनका यह भाषण बहुत विशिष्ट है. हमने अंतत: अपने नेता को सुन लिया है और उसके रवैये से परिचित हुए हैं. हमें आशा करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी के सहयोगी और संघ परिवार भी उनकी भाषा अपनायेंगे. इस संदर्भ में वर्षो पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था, ‘नेताओं की अच्छी बातों का कोई मतलब नहीं है, अगर उनके समर्थकों का रवैया पहले की ही तरह बना रहे’.

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