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दिल्ली के नतीजे में दलों के लिए सबक

राजनीतिक दलों को समझना चाहिए कि आम चुनाव में भाजपा को वोट क्यों मिले, दिल्ली के चुनाव में आप किन वजहों से गैर-भाजपा वोटों को अपनी तरफ खींच पायी और इसका दोहराव दूसरे राज्यों में हो, इसके अनिवार्य कारक क्या होने चाहिए? दिल्ली में केजरीवाल की महा जीत को लेकर तमाम तरह के विश्‍लेषण किये […]

राजनीतिक दलों को समझना चाहिए कि आम चुनाव में भाजपा को वोट क्यों मिले, दिल्ली के चुनाव में आप किन वजहों से गैर-भाजपा वोटों को अपनी तरफ खींच पायी और इसका दोहराव दूसरे राज्यों में हो, इसके अनिवार्य कारक क्या होने चाहिए?

दिल्ली में केजरीवाल की महा जीत को लेकर तमाम तरह के विश्‍लेषण किये जा रहे हैं. कुछ लोग बता रहे हैं कि उनकी जीत से लालू-मुलायम जैसे नेताओं को ऑक्सीजन मिल गयी है और अब मोदी विरोध की आवाजें मजबूत होकर उभरेंगी. कुछ लोग बता रहे हैं कि भाजपा का वोट तो इंटैक्ट है, उसे दिक्कत तो कांग्रेस का वोट आप में शिफ्ट हो जाने से हुई है. कुछ कह रहे हैं कि किरण बेदी की वजह से हारे भाजपावाले. सबसे सही बात कही है प्रतिबद्ध दक्षिणपंथी पत्रकार-कॉलमनिस्ट स्वप्नदास गुप्ता ने. वह लिखते हैं कि अच्छे दिनों की आहट तक नहीं सुनाई पड़ना और पार्टी नेताओं तथा संघ परिवार के सदस्य संगठनों-व्यक्तियों द्वारा कट्टरपंथी बयानों के चलते भाजपा साफ हुई. स्वप्नदास गुप्ता की बात को और बारीकी से समझने की जरूरत है.

अगर दिल्ली विधानसभा चुनाव के वोट प्रतिशत को देखें तो साफ है कि भाजपा का अपना वोट लगभग इंटैक्ट है. 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को 34 फीसदी वोट मिले थे, जो इस बार 32.7 फीसदी रह गया. आप को 2013 में 29.5 फीसदी वोट मिले थे, जो इस बार 54.3 प्रतिशत हो गया. कांग्रेस 24.6 फीसदी से घट कर 9.7 फीसदी और बीएसपी, जेडीयू तथा निर्दल का वोट 11.9 फीसदी से घट कर 3.3 फीसदी रह गया. यानी भाजपा का वोट लगभग स्थिर रहा.

सवाल उठता है कि यह वोट किस मुद्दे पर भाजपा से जुड़ा है और अच्छे दिनों की आहट न सुनाई देने और कॉरपोरेट प्रेम के बावजूद यह वोट टस से मस नहीं हुआ? इसका जवाब तलाशने के लिए यह समझना जरूरी है कि पिछले आम चुनाव में जिस तरह मोदी के पक्ष में माहौल बना था, उसकी कोर वजह क्या थी? इसी वजह की ताकत से माहौल बनना शुरू हुआ और मोदी ने उस माहौल को कांग्रेस के नकारापन के खिलाफ बेहतर गवर्नेस देने और नये-नये राजनीतिक मुहावरों के जरिये नौजवानों को बेहतर भविष्य के सपनों से जोड़ दिया. इन्हीं में से सबसे ताकतवर मुहावरा था- ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं’. इसने रंग दिखाया और वे लोग जिनको न कम्युनल से मतलब था और न शूडो-सेकुलर से, आकर्षित होते गये. सेकुलर-कम्युनल मुद्दा ही नहीं बन पाया. यह मुहावरा जिस कोर पर खड़ा होकर प्रभावी बन पाया, वह कोर क्या है?

मोदी के राजनीतिक कैरियर को देखें. जब वह पहली बार मुख्यमंत्री बने, उसी समय गुजरात में भूकंप आया. भूकंप के बाद गोधरा कांड और उसके बाद गुजरात के दंगे. गुजरात के दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री और भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी का राजधर्म वाला बयान. मोदी पर इस्तीफे का दबाव. पार्टी द्वारा इस्तीफा स्वीकार न करना. विधानसभा चुनाव में जीत और उसके बाद लगातार दो और चुनाव जीतना. पिछली बार जब मोदी विधानसभा चुनाव जीते तो उन्होंने केंद्र की राजनीति शुरू की. गुजरात में उनके कार्यकाल को लगातार यह कह कर प्रचारित किया जाना कि ‘देखो वहां कोई दंगा नहीं हुआ, क्योंकि दंगा तो मुसलमान करते हैं और मुसलमान 2002 के दंगों के बाद से डरे हुए हैं.’ अपने शुरुआती दिनों में मोदी को हिंदू हृदय सम्राट के तौर पर भी प्रचारित किया गया. जब वह गत विधानसभा चुनाव जीतने के बाद केंद्रीय राजनीति की ओर बढ़े, तो भाजपा के समर्पित वोटरों में जबरदस्त उत्साह दिखा कि मोदी आयेंगे, तो पूरे देश में अल्पसंख्यक ठीक हो जायेंगे. पिछले आम चुनाव में मोदी के साथ जो कोर इश्यू जुड़ा था, वह यही था. मोदी और उनकी टीम ने रणनीतिक तौर पर पूरे प्रचार के दौरान कहीं कोई भड़काऊ बात नहीं की. अलबत्ता, उन्होंने कालाधन, भ्रष्टाचार, गुड गवर्नेस, रोजगार और विकास के मुद्दे उठाये और नये राजनीतिक मुहावरे गढ़े.

दूसरी ओर कांग्रेस 2जी और कोयला घोटाले में फंसी दिखाई दे रही थी और परिपक्व राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में वह इनमें ही फंसती चली गयी. सांप्रदायिकता विरोध, सामाजिक न्याय और गांव के विकास का नारा देनेवाले क्षेत्रीय दलों के नेताओं के भ्रष्टाचार के कारनामे जगजाहिर हो चुके थे और कुछ तो सजायाफ्ता भी हो चुके थे. सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर सांप्रदायिक गोलबंदी करने की कलई खुल चुकी थी. सामाजिक न्याय और गरीब के विकास की जगह लोग नेताओं और उनके परिवार को ही आगे बढ़ते देख रहे थे. भ्रष्टाचार, जातिवाद और खराब कानून व्यवस्था के माहौल में मोदी ने नये राजनीतिक मुहावरों और संवाद के आधुनिक तौर-तरीकों के जरिये अपने प्रति एक आकर्षण पैदा किया और नारा दिया कि अच्छे दिन आनेवाले हैं. गुजरात जैसा पूरा देश क्यों नहीं बन सकता, पूरे प्रचार के केंद्र में यह सवाल रखा गया और जवाब तमाम इस तरह से दिये गये कि लगे, बन सकता है. अब तक इसलिए नहीं बना, क्योंकि केंद्र और राज्यों में सरकारें चलानेवाले दल भ्रष्ट हैं. चूंकि पहले से इन दलों व इनके नेताओं के प्रति निराशा का माहौल था, ये नेता युवा के साथ तारतम्य न बना सकने की स्थिति में थे और ऊपर से 2जी, कोयला घोटाला था ही, हरियाणा व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्रियों को भ्रष्टाचार के मामले में सजा भी सुनाई जा चुकी थी. आम चुनाव चायवाले (गरीब, मेहनती) और शहजादे (चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुए लोग) के बीच की लड़ाई बन गया. इस लड़ाई में वे लोग जो न सांप्रदायिक हैं और न उस तरह से सोचते हैं, वे लोग जो न जातिवादी हैं और न उस तरह से सोचते हैं, युवा जो बेहतर रोजगार चाहते हैं, मोदी की ओर मुड़ गये. जब कोई कहता कि मोदी सांप्रदायिक हैं, तो ये कहते कि 2002 को बीते 12 साल हो गये, कोर्ट में भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ और चुनाव में मोदी कोई ऐसी बात भी नहीं कह रहे हैं, वे तो सबको साथ लेकर चलने की बात कहते हैं.

अब देखिए कि दिल्ली के चुनाव के समय किस-किस तरह के बयान आये. एक मंत्री ने भाजपा समर्थकों को रामजादा और बाकी को हरामजादा कह डाला, चार से लेकर दस बच्चे पैदा करने का आह्वान किया गया आदि. इन पर कड़े तौर पर भाजपा नेतृत्व की ओर से कोई बयान तक नहीं आया. इसका असर उन वोटरों पर पड़ा, जो विकास की चाहत रखते हैं, लेकिन सामाजिक सद्भाव की कीमत पर नहीं और ये वोटर कोर नहीं हैं भाजपा के और जो कोर वोटर हैं, वे दिल्ली में भाजपा के साथ ही खड़े दिखाई दिये. अब विपक्षी दलों और खासतौर पर जनता परिवार की पार्टियों, जिनको लगता है कि भाजपा कमजोर हो गयी है, को बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है. उन्हें समझना चाहिए कि आम चुनाव में भाजपा को वोट क्यों मिले, दिल्ली के चुनाव में आप किन वजहों से गैर-भाजपा वोटों को अपनी तरफ खींच पायी और इसका दोहराव दूसरे राज्यों में हो, इसके अनिवार्य कारक क्या होने चाहिए? दिल्ली के नतीजों में सबके लिए सबक छिपे हैं, चाहें भाजपा हो या विपक्षी दल.

राजेंद्र तिवारी

कॉरपोरेट एडिटर

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