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मोदी का राजनीतिक नकार नहीं दिल्ली

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार केजरीवाल की ओर मुड़े 20 फीसदी मतों ने भाजपा को परास्त किया है. क्योंकि जो बड़े, व्यापक और शीघ्र परिवर्तनों के वादे मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर किये थे, वैसे ही वादे केजरीवाल ने दिल्ली चुनाव के दौरान किये. इस महीने की 10 तारीख को बहादुर और छोटी आम आदमी पार्टी […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
केजरीवाल की ओर मुड़े 20 फीसदी मतों ने भाजपा को परास्त किया है. क्योंकि जो बड़े, व्यापक और शीघ्र परिवर्तनों के वादे मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर किये थे, वैसे ही वादे केजरीवाल ने दिल्ली चुनाव के दौरान किये.
इस महीने की 10 तारीख को बहादुर और छोटी आम आदमी पार्टी के हाथों दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी को पराजय नरेंद्र मोदी के पिछले 14 साल के लंबे राजनीतिक जीवन की पहली चुनावी हार है. साल 2001 में नरेंद्र मोदी पूर्णकालिक राजनेता तब बने थे, जब उन्हें बाहर से लाकर सीधे गुजरात का मुख्यमंत्री बना दिया गया था. उस राज्य में भारतीय जनता पार्टी को पहले से ही वोट मिलता रहा था और 1995 से ही विधानसभा में उसका बहुमत था. पार्टी के आंतरिक मतभेदों पर काबू पाने के लिहाज से नरेंद्र मोदी को केशुभाई पटेल की जगह मुख्यमंत्री बना कर भेजा गया था. उसके अगले साल यानी 2002 में गुजरात में एक बड़ा दंगा हुआ, जिसे टेलीविजन पर दिखाये जाने के कारण दूर-दूर तक चर्चा मिली.
इस दंगे के कुछ महीने बाद, 2002 के आखिरी चरण में, मोदी ने अपने नेतृत्व में पहला और भाजपा के लिए तीसरा चुनाव जीता. वर्ष 2007 और 2012 में मोदी की ही अगुवाई में जीत को बड़े बहुमत के साथ दोहराया गया. इन जीतों से उनके मन में यह बात घर कर गयी कि भाजपा की राजनीति के प्रति गुजरातियों के समर्थन के बजाय विकास पर उनके जोर, उनकी लोकप्रियता और समझ के कारण पार्टी को चुनावी जीत मिल रही है.
इस भावना को गहरा करने में मोदी के प्रशंसकों, खासकर राष्ट्रीय मीडिया, की भी भूमिका थी. बहुतों को उनमें एक ऐसा विशेष व्यक्ति नजर आया, जो न सिर्फ बेहतर भाषण देता है, बल्कि जिसमें अलग तरीके से सोचने और उस सोच को सच बनाने की क्षमता भी है. इस छवि के देश और फिर विदेशों में प्रसार ने भी मोदी को 2014 के आम चुनाव में जादुई जीत हासिल करने में मदद पहुंचायी.
दिल्ली की हार यह पहला अवसर है, जब नरेंद्र मोदी ने नेतृत्व किया हो और जनता ने उन्हें नकार दिया हो. एक ऐसे व्यक्ति के लिए जो खुद को एक ‘रॉक स्टार’ की तरह देखा जाना पसंद करता हो और जिसके अनुयायी उनमें मसीहाई छवि देखते हों, उन्हें अपने हालिया कवरेज नागवार गुजरे होंगे. गुजरात दंगों के कवरेज के बाद से मोदी भारतीय मीडिया को ‘बाजारू’ मानते रहे हैं, परंतु विदेशी मीडिया में अपनी छवि पर मोहित रहे हैं.
ब्रिटेन के डेली टेलीग्राफ ने दिल्ली की हार पर चुटकी लेते हुए खबर बनाया- ‘क्या भारत के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री एक धारीवाले कोट की कीमत के मुद्दे पर हार गये?’. उनके प्रशंसकों में कुछ तब बहुत नाराज हुए थे, जब उन्होंने अपना नाम लिखा हुआ भद्दा सूट पहना था. लेकिन, जो लोग उन्हें 2001 से देख-परख रहे हैं, उनकी यह हरकत उनके चरित्र के बिल्कुल अनुकूल थी. दस साल पहले जब मैं अहमदाबाद में एक अखबार के लिए काम करता था, तब मोदी वरिष्ठ अधिकारियों समेत तीन दर्जन से अधिक लोगों के अपने सचिवालय को एक बैठक के लिए कच्छ के रण में लेकर गये थे.
आकर्षक पृष्ठभूमि में फोटो खिंचवाने के अलावा इस बैठक का कोई और उद्देश्य नहीं था. उन्होंने इस विचित्र बैठक का संचालन काउब्वॉय हैट, जैकेट और रंगीन चश्मा पहन कर किया था.
मोदी यह समझ ही नहीं सके कि इस सूट को पहनने का फैसला कितना खराब था. यह बात उनके चमचों के अलावा अन्य लोग भी मानेंगे, जो यह समझते हैं कि मोदी ऐसे मामलों पर सलाह लेते होंगे. दुर्भाग्य से मैं यह एक मिनट के लिए भी नहीं मान सकता कि मोदी में सुनने की सलाहियत आ गयी है.
यह धारीवाला सूट उन लोगों के लिए पुनर्विचार का एक मौका है, जो प्रधानमंत्री को सुलझी हुई समझ का व्यक्ति मानते हैं. मुङो इसमें भी संदेह है कि मोदी ने बराक ओबामा की उन्हें ‘फैशन आइकॉन’ कहने की चुटकी को ठीक से समझा होगा. वह भद्दा सूट कुछ खास गुजरातियों को ही अच्छा लग सकता है. पिछले दिनों खबर आयी थी कि सूरत में एक आदमी हीरे जड़े जूते दिखा रहा था. एक खबर यह भी थी कि एक गुजराती मंत्री मोदी की मूर्ति वाले मंदिर का उद्घाटन करनेवाला था, जिसमें उनके भक्त आराधना करेंगे.
बहरहाल, द इकोनॉमिस्ट ने लिखा है, ‘यह स्वीकार करने में चाहे जितनी असुविधा हो, दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अपनी पार्टी की हार की मुख्य जिम्मेवारी नरेंद्र मोदी की है.’ द न्यूयॉर्क टाइम्स ने कहा कि मोदी ने ‘अपने को आत्मविश्वासी और काम कर सकनेवाले नेता के तौर पर प्रस्तुत कर देश में और बाहर आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को बढ़ा दिया, जो अर्थव्यवस्था को सुधार देगा, सरकार को सक्रिय करेगा और लाखों लोगों को गरीबी से उबारेगा. अब तक कुछ खास नहीं हो पाया है और जैसा कि दिल्ली चुनाव से संकेत मिलता है, लोगों में निराशा है.’ इन रिपोर्टो में यह आकलन लगाया गया है कि इस हार का कारण उनके साथी भाजपाई मंत्रियों और सांसदों के द्वेषपूर्ण बयानों पर लगाम लगाने में मोदी की असफलता है.
इन बातों से मैं कुछ हद तक ही सहमत हूं. यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद् की पिछले कुछ महीनों की हरकतों से बहुत लोग नाराज हैं, लेकिन कुल मिला कर आम आदमी पार्टी के पक्ष में सकारात्मक मतदान हुआ है, न कि भाजपा के विरुद्ध.
मेरी समझ में भारतीय जनता पार्टी के आधारभूत मतदाता, वैसे लोग जो पार्टी के साथ विचारधारा या जाति के कारण जुड़े हैं, इसके साथ जुड़े हुए हैं. इसी कारण से उसका वोट प्रतिशत लगभग 32 फीसदी के आसपास बना रहा है. इस तरह के समर्थन से भाजपा देश के किसी भी राज्य का चुनाव जीत सकती है. दरअसल, अरविंद केजरीवाल की ओर मुड़े 20 फीसदी मतों ने भाजपा को परास्त किया है. संभवत: ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि जो बड़े, व्यापक और शीघ्र परिवर्तनों के वादे मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर किये थे, वैसे ही वादे केजरीवाल ने विधानसभा चुनाव के दौरान दिल्ली में किये.
जहां तक मैं समझ रहा हूं कि भविष्य के हिसाब से ये मतदाता मोदी से छिटके नहीं हैं. हालांकि, यह सच है कि मोदी ने अपने व्यवहार में कुछ गलतियां की हैं, लेकिन उन्हें यह मान कर नहीं चलना चाहिए कि यह नतीजा उनकी राजनीति का नकार है.
मुक्तिदाता की अवधारणा भारत में अभी भी ठोस रूप में बरकरार है. वास्तविकता यह है कि ‘पांच साल केजरीवाल’ के नारे में वही सुगंध है, जो ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ के नारे में है.

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