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जमाना है मैनेजमेंट और मैनेजरों का

राकेश कुमार प्रभात खबर, रांची हर जमाना किसी न किसी खास के नाम होता है. एक महान गीतकार ने 1980 के दशक में जमाने को नौकर बीवी का बता डाला था. आज के जमाने को आप कैसे परिभाषित करेंगे? बड़े-बड़े विद्वान इस पर बड़े-बड़े जवाब देंगे. मोदी से लेकर केजरीवाल तक का जमाना बतायेंगे. लेकिन […]

राकेश कुमार
प्रभात खबर, रांची
हर जमाना किसी न किसी खास के नाम होता है. एक महान गीतकार ने 1980 के दशक में जमाने को नौकर बीवी का बता डाला था. आज के जमाने को आप कैसे परिभाषित करेंगे? बड़े-बड़े विद्वान इस पर बड़े-बड़े जवाब देंगे. मोदी से लेकर केजरीवाल तक का जमाना बतायेंगे. लेकिन मेरे जैसा आम आदमी अपनी छोटी सी औकात के मुताबिक छोटा सा जवाब देगा कि ‘जमाना मैनेजमेंट का है’, यानी मैनेज करने की कला का है.
यह स्वदेशी ‘जुगाड़’ का आधुनिक रूप है. पश्चिमवाले सदियों से भारत से कच्च माल लेकर वापस हमें ही तैयार माल बेचते रहे हैं. उन्होंने हमारे ‘योग’ को ‘योगा’ बना दिया. हमारे ‘जुगाड़’ को चमका कर उन्होंने ‘मैनेजमेंट’ बना दिया.. और अब हम भारतीय बड़े गर्व से बताते हैं कि फलां ने हार्वर्ड से मैनेजमेंट में डिग्री ली है.
बचपन में सुना करता था कि सरकारी दफ्तरों में ठेकेदारी के लिए अफसरों को मैनेज किया जाता है. फिर राजनीति में इसकी धमक सुनायी देने लगी. खास कर जब गंठबंधन की राजनीति का दौर आया. अब तो हाल यह है कि आपके मैनेजमेंट में दम हो तो आप दो-चार दिन के लिए सूरज को भी पश्चिम से उगने के लिए पटा सकते हैं. राज्यसभा के चुनाव को ले लीजिए. जिसने राजनीति का ककहरा भी नहीं पढ़ा, वह भी मैनेजमेंट के बूते संसद पहुंच जाता है. झारखंड के लोगों से बेहतर यह कौन जानता है! लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में भी बूथ मैनेजमेंट सबसे बड़ा हथियार है.
मैनेजमेंट की महिमा इससे समङिाए कि आइआइटी से पढ़ कर निकले छात्र भी इंजीनियरिंग छोड़ मैनेजमेंट के पीछे भाग रहे हैं. एमबीए यानी मैनेजमेंट की पढ़ाई कराने के संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह खुलते जा रहे हैं और नयी पीढ़ी के लोग ‘काम करने’ के बजाय ‘काम करवाने’ की कला सीख रहे हैं. कोई भी दफ्तर हो, आज की तारीख में सबसे सफल बॉस वही होता है, जो कुछ भी मैनेज कर दे. जरूरत पड़े तो इसके लिए ‘कामिनी, कंचन और कादंब’ का सहारा लेने से भी नहीं चूके. यानी काम किसी भी तरह पूरा करना ही है. चाहे इसके लिए किसी को ‘कन्विन्स’ करना पड़े या फिर ‘करप्ट’.
वो दिन दूर नहीं जब सभी बड़े पदों पर मैनेजर ही बैठे दिखायी पड़ेंगे. थानेदार इंस्पेक्टर नहीं, मैनजर बनेगा. कोई विवाद सामने आने पर दोनों पक्षों को मैनेज कर लेगा और अपना कमीशन पक्का कर लेगा. वैसे बहुत से थानेदार यह काम पहले से कर रहे हैं, लेकिन मैनेजर इसे और बढ़िया से कर पायेगा. प्रकाशन समूहों और शोध संस्थानों में पहले बड़े-बड़े विद्वान सर्वोच्च पदों पर होते थे, लेकिन अब उनकी जगह मैनेजरों ने ले ली है. अब तो घर संभालनेवाली औरतों ने भी मांग शुरू कर दी है कि उन्हें ‘हाउस वाइफ’ नहीं, बल्कि ‘होम मेकर’ या फिर ‘होम मैनेजर’ कहा जाये.

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