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द कॉल ऑफ द सोल

अनुराग कश्यप – वह, उदारीकरण-भूमंडलीकरण के बाद जवान हुई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं. सन् 1987 में न्यू यॉर्क सिटी (अमेरिका) में पैदा हुईं, पली-बढ़ीं और फिर देश के सर्वश्रेष्ठ व अत्याधुनिक शहर मुंबई में 13 से 18 वर्ष की उम्र तक पढ़ाई की. – प्रोफेशनल वर्ल्ड की बाजीगरी देखी है. न्यू यॉर्क के एक […]

अनुराग कश्यप
– वह, उदारीकरण-भूमंडलीकरण के बाद जवान हुई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं. सन् 1987 में न्यू यॉर्क सिटी (अमेरिका) में पैदा हुईं, पली-बढ़ीं और फिर देश के सर्वश्रेष्ठ व अत्याधुनिक शहर मुंबई में 13 से 18 वर्ष की उम्र तक पढ़ाई की.
– प्रोफेशनल वर्ल्ड की बाजीगरी देखी है. न्यू यॉर्क के एक विश्वविद्यालय से फैशन इंडस्ट्री में बिजनेस की डिग्री लेने के बाद भारतीय मुद्रा के हिसाब से सालाना 7.56 करोड़ रुपये की नौकरी की.
– दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत, जहां की दो तिहाई आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है, उस युवा भारत की विशाल तसवीर में उनकी भी आभा है, लेकिन वह, उनके लिए आदर्श नहीं, जो पैसे व सत्ता की चकाचौंध के मोहपाश में बंधे हैं.
– कम-से-कम समय में किसी-न-किसी हथकंडे से अधिक-से-अधिक पैसा व पावर की चाह रखनेवाले युवाओं के लिए निराशा का प्रतीक हैं.
– बेहिसाब पैसे कमाने की चाह में एमबीए, एमसीए व अन्य प्रोफेशनल पढ़ाई करने, महंगे फोन रखने, महंगी गाड़ी खरीदने, इंटरनेट पर घंटों गुजारने और गर्ल-ब्वॉयफ्रेंड की संस्कृति के कट्टर समर्थक युवाओं के बीच एक नया अवतार हैं.
यह निशा है. पूरा नाम निशा मनोज भाई कपासी. (नाम के साथ पिता का नाम जोड़ने की गुजराती परंपरा.) 18 जनवरी, 2015 को निशा (27) अचानक सुर्खियों में आयीं. सालाना करोड़ों रुपये पैकेज की नौकरी छोड़ दी. न्यू यॉर्क से सीधे झारखंड के गिरिडीह जिला स्थित मधुवन पहुंचीं. बेशकीमती कपड़े और गहने त्याग दिये.
कमाई दौलत लोगों में बांट दिये. जैन धर्म की श्वेतांबर परंपरा के तहत संन्यास लिया. श्वेतांबर जैन गुरु पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कीर्तियशसूरीश्वरजी की शिष्या साध्वी प्रसमिता श्रीजी महाराज की 75वीं प्रशिष्या बनीं निशा का नया नाम है : संवेज्ञ प्रज्ञा श्रीजी. निशा के संवेज्ञ प्रज्ञा बनने का गवाह बने देश के विभिन्न इलाकों के साथ-साथ न्यू यॉर्क, शिकागो, बेल्जियम, कनाडा, लंदन से पहुंचे सैकड़ों लोग.
वह अब जैन अर्थात जिन की अनुयायी हैं. जि+न. जि यानी जीतना. न यानी वाला. जिन यानी जीतने वाला. जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, वाणी को जीत लिया, काया को जीत लिया.
वे हैं जिन. संवेज्ञ प्रज्ञा के तन पर अब बेशकीमती कपड़ों की जगह हाथ से बुने श्वेत कपड़े हैं. जैन परंपरा के तहत उसका मुंडन हो चुका है. एक-एक बाल खींच कर निकाले जाते हैं. अब आजीवन श्वेत वस्त्र धारण करेंगी. 24 घंटे में एक या दो बार भिक्षा मांग कर भोजन करेंगी. अब जीवन की हर यात्र बिना चप्पल के पैदल ही तय करेंगी. कोई गाड़ी नहीं, किसी की सवारी नहीं.
चौकी पर सोयेंगी. पानी से स्नान नहीं करेंगी. पूरा जीवन उबला पानी पीयेंगी. केशलोंच करेगी यानी अपने हाथों से सिर के बाल उखाड़ेंगी. और कई कठिन नियमों का पालन करेंगी. जैन साध्वी की दिनचर्या, नित्य क्रिया को जानने के बाद ही सुविधा भोगी मन डर जाये, पालन करना तो दूर की बात है.
न्यू यॉर्क में रहना-बसना कमोवेश हर भारतीय युवा का सपना हो सकता है. हम जिस परिवेश में पले-बढ़े हैं और सामने जो समाज दिख रहा है, उसमें 27 वर्ष की किसी पढ़ी-लिखी लड़की द्वारा अच्छी नौकरी, अच्छा जीवनसाथी, गाड़ी-बंगला, सुंदर घर-परिवार, ऐश-ओ-अराम की जिंदगी का सपना संजोने की बात समझ आती है, मगर निशा का सब कुछ छोड़ कर साध्वी होने का फैसला बेचैन करनेवाला है. यही बेचैनी गिरिडीह जिले के मधुवन स्थित जैन तीर्थ स्थल आने की वजह है.
मन में कई सवाल अस्तित्व बना चुके हैं. क्या निशा महत्वाकांक्षाओं के कारण पैदा हुए सपने और उन्हें पूरा करने की कशमकश से थक-हार कर भागी हैं? एक रोमांचक युवा कथा का अंत बदलाव की सनसनीखेज दास्तान के बतौर हुआ है?
इन सवालों के साथ मधुवन पहुंचना हूं. निशा से मुलाकात की कोशिश के क्रम में उनसे सीनियर साध्वी जिन प्रज्ञा मिलती हैं. साध्वी जिन प्रज्ञा की ओर से संग्रहीत व संपादित 354 पेज की अंगरेजी भाषा की एक पुस्तक हाथ लगती है, जिसका शीर्षक है : ‘‘द कॉल ऑफ द सोल.’’ इस शीर्षक को पढ़ने के बाद मानो निशा के संन्यास को लेकर मन में उठे कई सवालों का जवाब मिल गया है.

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