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नीति आयोग और राज्यों की चिंताएं

नीति आयोग की पहली बैठक में केंद्र जितना आश्वस्त दिखा, कुछ राज्य उतने ही चिंतित. प्रधानमंत्री ने ‘सबका साथ-सबका विकास’ के अपने विजन के अनुरूप कहा कि निवेश, आर्थिक-वृद्धि और रोजगार सृजन के मामले में नीति आयोग ‘सहकारी संघवाद’ की राह पर चलेगा, पर कई राज्य इस आश्वासन से संतुष्ट नहीं हैं. पश्चिम बंगाल की […]

नीति आयोग की पहली बैठक में केंद्र जितना आश्वस्त दिखा, कुछ राज्य उतने ही चिंतित. प्रधानमंत्री ने ‘सबका साथ-सबका विकास’ के अपने विजन के अनुरूप कहा कि निवेश, आर्थिक-वृद्धि और रोजगार सृजन के मामले में नीति आयोग ‘सहकारी संघवाद’ की राह पर चलेगा, पर कई राज्य इस आश्वासन से संतुष्ट नहीं हैं.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बैठक में शामिल नहीं हुईं, तो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को शिकायत है कि केंद्र के कदमों से तमिलनाडु में निवेश का वातावरण बिगड़ रहा है. केरल के मुख्यमंत्री ने ठीक ही कहा कि ‘जन धन’ या ‘बेटी बचाओ’ जैसी योजनाओं की केरल के संदर्भ में खास प्रासंगिकता नहीं है, क्योंकि वहां ये बाधाएं पहले ही पार कर ली गयी हैं.
मुख्यमंत्रियों की प्रतिक्रियाओं से जाहिर होता है कि वे योजना आयोग के समय की कार्यप्रणाली को न तो हड़बड़ी में बदलने के पक्षधर हैं और न इस विचार के पक्षधर कि नियोजन केंद्रित भारतीय अर्थव्यवस्था को तुरंत-फुरंत बाजार-केंद्रित कर दिया जाये. असम के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया शब्दश: यही थी. ठीक है कि किसी नयी संस्था की शुरुआत के समय उसकी कार्य-प्रणाली और प्राथमिकताओं को लेकर आशंकाएं होती हैं, लेकिन इस नाम पर नीति आयोग से जुड़ी राज्यों की चिंताओं को टाल देना ठीक नहीं होगा.
नये आयोग के एक सदस्य बिबेक देबरॉय स्पष्ट कर चुके हैं कि ‘जिन जगहों पर बाजार असफल रहता है, सिर्फ उन्हीं जगहों पर सरकार का काम वस्तुओं और सेवाओं को गरीब और जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाना है.’ असल में राज्यों की चिंता इसी सोच को लेकर है. यह सोच मान कर चलती है कि आर्थिक-वृद्धि उत्पादन के साधन के रूप में भू-संपदा, श्रम, उद्यम और पूंजी की गति के नियमन से नहीं, बल्कि उन्हें खुली छूट देने से होती है.
यह विचार भारत जैसे देश में राज्यों को आशंकित करने के लिए काफी है, जहां मानव-विकास, औद्योगिक-विकास और प्रति व्यक्ति आय के मामले में व्यापक असमानताएं हैं, जिन्हें आधार बना कर कुछ राज्य केंद्र से विशेष पैकेज की मांग करते रहे हैं. यह मांग नीति आयोग की सोच में फिट नहीं जान पड़ती. तो क्या आनेवाले दिनों में हम केंद्रीय आवंटन को लेकर नीति आयोग, केंद्र और राज्यों के बीच हितों की रस्साकशी देखनेवाले हैं!

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