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दिल्ली के चुनाव से निकलते संदेश
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार मोदी सरकार के नौ महीने के बाद यह सवाल दिल्ली के मतदाताओं को बेचैन करने लगा था कि क्या अंतरराष्ट्रीय मुद्दे ही मोदी को सदैव व्यस्त रखेंगे? उनकी नित बदलती आकर्षक वेशभूषा भी आम आदमी के साथ उनके रिश्ते को धुंधलाने लगी है. दिल्ली विधानसभा के चुनावों के नतीजों की औपचारिक […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
मोदी सरकार के नौ महीने के बाद यह सवाल दिल्ली के मतदाताओं को बेचैन करने लगा था कि क्या अंतरराष्ट्रीय मुद्दे ही मोदी को सदैव व्यस्त रखेंगे? उनकी नित बदलती आकर्षक वेशभूषा भी आम आदमी के साथ उनके रिश्ते को धुंधलाने लगी है.
दिल्ली विधानसभा के चुनावों के नतीजों की औपचारिक घोषणा के पहले ही इस मुकाबले में आम आदमी पार्टी की ‘जीत’ और भाजपा की ‘नाकामी’ का स्पष्ट अहसास होने लगा है.
सभी पूवार्नुमान- ओपिनियन तथा एक्जिट पोल- इस बारे में एकराय हैं कि इस बार अरविंद केजरीवाल अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने जा रहे हैं. जो लड़ाई कांटे की समझी जा रही थी, मतदान संपन्न होने तक ‘इकतरफा’ मुकाबला बनता नजर आने लगी. ‘क्या से क्या हो गया, कब हुआ, कैसे हुआ’ का विेषण देर तक जारी रहेगा, लेकिन यहां हमारा मकसद यह समझने-समझाने का नहीं. अंतमरुखी चिंतन एवं मंथन का यह काम भाजपा के नेतृत्व, कार्यकर्ताओं तथा शुभचिंतकों को निश्चय ही देर तक व्यस्त रखेगा. बहरहाल जिस सवाल का जवाब तलाशना हमारी राय में प्राथमिकता सूची में सर्वोपरि समझा जाना चाहिए वह आनेवाले दिनों में इन नतीजों का देश की राजनीति पर प्रभाव है.
क्या अब यह बात साफ हो रही है कि मोदी-शाह की जुगलबंदी को हर चुनाव में शर्तिया जीत की गारंटी नहीं समझा जा सकता? मोदी का करिश्मा हो या शाह की संगठनात्मक जादूगरी, इस बार अपना चमत्कार नहीं दिखला पाये.
अगर यह बात मान भी लें कि सभी पूवार्नुमान गलत सिद्ध होंगे और अंतत: भाजपा जैसे-तैसे सरकार बनाने में कामयाब हो जायेगी, तब भी इस सच को नकारना नामुमकिन होगा कि कुछ ही महीने पहले पस्त और तितर-बितर, फूट और बगावत से जूझती आम आदमी पार्टी ने जबर्दस्त टक्कर देकर भाजपा के नये दिग्विजयी अवतार के ‘देवत्व’ की कलई खोल दी है. निश्चय ही मोदी-शाह के नेतृत्व में जो अश्वमेध सरीखा अभियान जारी था- भारत में एकछत्र आधिपत्य की स्थापना के लिए उसमें अप्रत्याशित गतिरोध आता दिख रहा है.
यह बात कही जा सकती है कि दिल्ली भारत नहीं.
यहां रहनेवाले विधानसभा चुनाव के लिए मतदान करते वक्त नगरपालिका के चुनाव जैसे मुद्दों को ही निर्णायक महत्व का समझते हैं. इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हाल के वर्षो में राजधानी दिल्ली का भौगोलिक विस्तार और आबादी का चेहरा बहुत तेजी से और नाटकीय ढंग से बदला है. आज यह महानगर देश के हर हिस्से से आये नागरिकों का भी घर है. इसके अलावा मतदाताओं की बहुतायत नौजवानों की है, जो इतिहास के बोझ से दबे या जाति अथवा मजहब की बेड़ियों से जकड़े नहीं हैं.
अपने भविष्य के बारे में चिंतित, आशंकित इन मतदाताओं के आचरण के बारे में कोई भी ज्योतिष-फलित या गणित-त्रिकालदर्शी होने का दावा नहीं कर सकता. लोकसभा चुनावों में मोदी-भाजपा की अभूतपूर्व जीत और उसके बाद संपन्न अनेक राज्यों के चुनावों में लगातार प्रतिपक्षियों को धूल चटानेवाली टोली के मंसूबे इस बार पूरे नहीं हो सके हैं- फिलहाल तो इसे झुठलाया नहीं जा सकता है.
क्या यह नतीजा निकालना तर्क-संगत है कि निकट भविष्य में बिहार और फिर बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि के विधानसभा चुनावों में भाजपा की मुश्किलें बढ़ती जायेंगी? क्या आप के इस प्रदर्शन से अन्य खस्ताहाल विपक्षी दलों का मनोबल बढ़ेगा और क्या वे भाजपा को हराने के लिए एकजुट हो, मौकापरस्त ही सही, मोर्चाबंदी करने को तैयार होंगे?
क्या वास्तव में देश भर में मतदाता यह सोचने को मजबूर होगा कि मोदी महामानव नहीं और न ही हर मौके पर अमित शाह के साथ रंग जमाया जा सकता है? क्या विचारधारा और मुद्दों के ऊपर व्यक्ति को तरजीह देने की वजह से ही भाजपा को ये दिन देखने पड़ रहे हैं?
मेरा मानना है कि सभी नतीजे एक साथ निकाल कर ‘हर मर्ज की एक दवा’ वाला नुस्खा पेश करने की उतावली से बचने की जरूरत है. जो नतीजे निर्विवाद कहे जा सकते हैं, वे सिर्फ दो हैं. पहली बात गांठ बांधने की यह है कि आज कांग्रेस को हाशिये से भी बाहर पहुंचा दिया गया है. उस दल की पहचान खानदानी उजड़ी जागीर या दिवालिया होते जा रहे पारिवारिक कारोबार से ज्यादा कुछ नहीं बची है. जब तक सोनिया का पुत्र मोह नहीं समाप्त होता और कुनबापरस्त चापलूस दरबारियों की नवरत्न बिरादरी ही सलाहकारों में शिखर शिरोमणि बनी रहती है, तब तक कुछ और कहना बेकार है.
दिल्ली हो या कहीं और, अब यह दोहराना भी बेवकूफी लगता है कि मरा हाथी भी सवा लाख का होता है और मिथकीय सुर्खाब की तरह यह विचित्र पक्षी भी अपनी राख से बारंबार पुनर्जन्म ले सकता है! दूसरी बात यह है कि दिल्ली में आप की जीत का मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि बस इसी क्षण का इंतजार देश को था- नये जनतांत्रिक ज्वार के स्वागत के लिए.
बल्कि अधिक संभावना तो यह है कि दिल्ली में केजरीवाल का राज मुगलिया सल्तनत के आखिरी दौर के मशहूर बादशाह शाह आलम सरीखा रहेगा- लालकिले से पालम तक सिमटा. दिल्ली के मुख्यमंत्री के हाथ आज भी बंधे हैं- नायब लाट हो या केंद्रीय सरकार का गृह अथवा शहरी विकास मंत्रलय, असली ताकत इन्हीं के पास बरकरार है.
दिल्ली को संपूर्ण राज्य का दर्जा दिये जाने तक, संवैधानिक संशोधन होने तक, यह स्थिति बदलनेवाली नहीं है. इसलिए जब चुनावी वादे पूरे करनेवाली कसौटी पर केजरीवाल कसे जायेंगे, तब यह बात देखने लायक होगी कि मतदाता का मोहभंग होने में कितनी देर लगती है.
मोदी सरकार को कार्यभार संभाले नौ महीने भर हुए हैं- यह सवाल दिल्ली के मतदाता को बेचैन करने लगा था कि क्या अंतरराष्ट्रीय मुद्दे ही नरेंद्र मोदी को सदैव व्यस्त रखेंगे? उनकी नित बदलती आकर्षक वेशभूषा भी आम आदमी के साथ उनके रिश्ते को धुंधलाने लगी है. दसलखिया सूट, जो नौलखा हार को मात देता है, मफलरधारी की चुनौती के सामने कम असरदार लगता रहा. पैराशूट लगा कर आसमान से उतरने की कोशिश करती किरण बेदी खजूर में अटकती दिखीं.
परंतु क्या यह सोचना तर्क-संगत नहीं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही नहीं, बल्कि भाजपा के अन्य नेता भी इस अनुभव से सबक लेंगे और आगामी चुनावी चुनौतियौं का सामना करने के लिए अपनी भूल-सुधार करने में कामयाब होंगे. अब संगठन को अहमियत दी जायेगी, वर्ण व्यवस्था या ‘स्वधर्म’, ‘स्वदेशी संस्कृति’ के आधार पर ‘घर वापसी’ जैसे आत्मघाती ध्रुवीकरण को तज कर वास्तविक समावेशी विकास के आधार पर राजनीतिक दंगल में उतरने की कसरत होने लगेगी.
भाषण पर जोर नहीं, समयबद्ध कार्यक्रम को निर्णायक समझा जायेगा. अल्पसंख्यक या किसी दूसरे वोट बैंक का दोहन अब काम आनेवाला नहीं है. ये सबक सिर्फ भाजपा के लिए ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के लिए दीवार पर लिखी इबारत नजर आने लगे हैं!
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