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राष्ट्रपिता के दिखाये रास्तों पर हमारे राजनेताओं को चलना है
66वें गणतंत्र दिवस पर आज के नॉलेज में हम देश के पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के भाषण का अनूदित अंश प्रकाशित कर रहे हैं. साथ में है 26 जनवरी, 1948 को प्रार्थना सभा में दिये गये महात्मा गांधी के भाषण का मूल पाठ और 14-15 अगस्त, 1947 की […]
66वें गणतंत्र दिवस पर आज के नॉलेज में हम देश के पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के भाषण का अनूदित अंश प्रकाशित कर रहे हैं.
साथ में है 26 जनवरी, 1948 को प्रार्थना सभा में दिये गये महात्मा गांधी के भाषण का मूल पाठ और 14-15 अगस्त, 1947 की रात दिये गये पंडित जवाहर लाल नेहरू के भाषण का मुख्य अंश. इन तीनों ऐतिहासिक भाषणों में देश की तत्कालीन चुनौतियां और भविष्य की आशाएं प्रतिध्वनित हुई हैं.
इन भाषणों के जरिये आपको यह समझने में आसानी होगी कि हमारा देश आजादी के बाद किस दिशा में बढ़ना चाहता था और गणतंत्र भारत के 65 वर्षो के सफर में देश की प्राथमिकताओं, चिंताओं और दशा-दिशा में कितना अंतर आया है.ये भाषण बेहतर कल के लिए सूत्र भी देते हैं..
हमारे देश के लिए आज का दिन बहुत बड़ा है. भारत का इतिहास बहुत पुराना है और उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. इसके कुछ हिस्से धुंधलकों से भरे रहे हैं तो कुछ हिस्से चमकदार. पूरे देश को एक संविधान और एक नियम के अंतर्गत लाया गया है. ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था.
उस वक्त भी नहीं, जिसे रिकॉर्ड में सबसे स्वर्णिम काल कहा जाता है. हमारी किताबों में कई गणराज्यों की चर्चा की गयी है. हमारे इतिहासकारों ने इससे जुड़ी हुई कई घटनाओं और स्थानों की चर्चा की है. लेकिन ये सभी गणराज्य आकृति और आकार में यूनानी गणराज्यों की तरह ही छोटे थे.
हमलोग राजा और राजकुमारों का जिक्र करते हैं. उनमें से कुछ को चक्रवर्ती कहा जाता है, जिसके आधिपत्य को दूसरे राजा भी मानते थे. ब्रिटिश काल में भी ब्रिटेन का आधिपत्य मानते हुए, स्थानीय राजा अलग-अलग राज्यों में अपने तरीके से शासन कर रहे थे. यह पहली बार हुआ है, जब हमने एक संविधान को अपनाया है.
यह पूरे देश में प्रभावी है. इस तरह एक संघीय गणराज्य की शुरुआत हुई है, जिसमें राज्यों की अपनी संप्रभुता नहीं है और वास्तव में वे एक संघ या प्रशासनिक ढांचा के अंग हैं.
नीदरलैंड के राजदूत ने इस देश के पूर्वी और पश्चिमी देशों के साथ संबंधों और संसर्गो का उल्लेख किया है. अन्य देशों के साथ हमारा संबंध हमेशा से मैत्रीपूर्ण रहा है.
हमारे पूर्वजों ने हमारे गुरुओं के अत्यंत दूरदर्शी और व्यापक संदेश को हम तक पहुंचाया है कि जब साम्राज्य कमजोर पड़ने लगे थे, तो सांस्कृतिक संबंधों ने ही उन्हें विनाश से बचाया. हमारे संबंध ही हमें जीवित रखते हैं, क्योंकि वे लोहे, इस्पात या सोने जैसे किसी धातु के बने हुए नहीं होते हैं, बल्कि इंसानों की आत्मा के जोड़ से बने होते हैं. कई बार भारत पर अन्य देशों ने आक्रमण किये.
भारत ने प्राय: उन देशों के समक्ष घुटने टेक दिये. लेकिन एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है, जब भारत ने किसी अन्य देश के खिलाफ सैन्य आक्रमण या आक्रामक लड़ाई की हो. ऐसा हमारी भव्य सांस्कृतिक परंपरा के कारण हो सका है कि हमने बिना रक्तपात किये, शांतिपूर्ण तरीके से आजादी हासिल की है.
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वभाव से अनूठे नहीं थे, बल्कि अहिंसा की भावना के प्रतिरूप थे, जो हमारी महान विरासत रही है. उनके अतुल्य नेतृत्व में न सिर्फ हमने आजादी प्राप्त की है, बल्कि अन्य देशों के साथ और मजबूत संबंध स्थापित करने में सफल रहे. हम उन्हें भी धन्यवाद कहना चाहते हैं, जिनकी नीति के विरुद्ध हम लड़े और विजय प्राप्त की.
हमारा संविधान साधारण लोगों की स्वतंत्रता के लिए एक लोकतांत्रिक हथियार है, जिसकी स्वतंत्रता बहुत जरूरी है. भारत ने किसी विचारधारा के लिए कभी भी मुकदमा नहीं चलाया है. हमारे सिद्धांत में किसी भी भगवान को मानने वाले या न मानने वाले के लिए बराबर जगह है.
इसी के बल पर हम संविधान को लागू कर सकते हैं, जो हमारी परंपरा से लिया गया है. जिस नयी व्यवस्था की आज हम शुरुआत कर रहे हैं, हमें विश्वास है कि हम अपने गुरुओं द्वारा दी गयी शिक्षा के अनुरूप विश्व में शांति कायम कर सकेंगे. सभी देशों के साथ हमारा रवैया अत्यंत मैत्रीपूर्ण है. हमारा किसी देश के खिलाफ शत्रु भाव नहीं है, और न ही किसी भी देश पर प्रभुत्व की कोई मंशा है.
हमारा विश्वास है कि दूसरे देशों का भी हमारे खिलाफ कोई गलत मंसूबा नहीं होगा. अतीत में कुछ देशों के आक्रमण से हमें काफी नुकसान उठाना पड़ा है. लेकिन, हम इस बात की उम्मीद करते हैं कि भविष्य में हमें आत्मरक्षा के लिए भी कोई कदम न उठाना पड़े. मुङो मालूम है कि आज विश्व सबसे अधिक अनिश्चय और चिंताजनक दौर से गुजर रहा है.
एक पीढ़ी के भीतर दो विश्वयुद्ध के कारण पैदा हुई तबाही और कष्ट से इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि एक युद्ध के बाद युद्धों का सिलसिला खत्म हो जायेगा. इन विश्व युद्धों के खत्म होने के बाद इससे मिले अनुभव को सकारात्मक चीजों में लगाने की जरूरत है, न कि विनाश के लिए. हम यह सोचने का जोखिम उठा रहे हैं कि इस देश ने बीते समय में दुनिया में विश्वास और सहयोग का माहौल स्थापित किया था.
हमारा कोई पुराना शत्रु नहीं है. इसलिए हमारा गणतंत्र एक ऐसे वैश्विक मंच पर प्रवेश कर रहा है, जहां कोई घमंड या पक्षपात नहीं है, बल्कि राष्ट्रपिता के दिखाये गये रास्तों पर हमारे राजनेताओं को चलना है, जो रास्ता सहनशीलता, समझदारी और अहिंसा से होकर हमें आगे बढ़ाता है.
यह बहुत सुखद अवसर है. हमारे लोक प्रतिनिधियों ने मुङो इस पद के लिए चुना है. आप आसानी से मेरी घबराहट को समझ सकते हैं, जो न सिर्फ इस बात से पैदा हुई है कि कठिन परिश्रम करके जो आजादी हमने पायी है, वरन इस बात से भी है कि मैं इस भूमिका में कितना सफल हो सकूंगा. यह इसलिए भी है कि इस पद पर बैठे व्यक्ति ने संघर्ष और विवादों के दौर में भी सराहनीय काम किया है. आप चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को जानते हैं, जिनकी अद्भुत विद्वत्ता, व्यावहारिक आजादी और शिष्टाचार का हम सभी ने अनुभव किया है.
यह मेरे लिए गौरव की बात है कि मैं उनसे पिछले तीस वर्षो से जुड़ा रहा हूं. कई मुद्दों पर बहुत अधिक मत-भिन्नता होने के बावजूद हमारे निजी रिश्ते कभी खराब नहीं हुए. मुङो विश्वास है कि आने वाले समय में किसी भी संकट की स्थिति में उनके सुझाव का मुङो लाभ मिलता रहेगा.
मुङो इस बात को लेकर तनिक भी घबराहट और फिक्र नहीं है कि मुङो प्रधानमंत्री, उप-प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्रियों, न्यायविदों और बहुत बड़ी संख्या में लोगों का पूर्ण विश्वास हासिल होगा. इस विश्वास को पाने और उस पर खरा उतरने के लिए मैं पूरी कोशिश करूंगा. मुङो इस बात की भी आशा है कि भारत अन्य देशों का विश्वास और जरूरत पड़ने पर उनकी मदद प्राप्त कर सकेगा. आपकी शुभकामनाओं के प्रति आभार व्यक्त करने में मैं बहुत हर्ष की अनुभूति कर रहा हूं.
(देश के पहले गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा दिये गये भाषण का अनूदित अंश.)
आज विश्व सबसे अधिक अनिश्चय व चिंताजनक दौर से गुजर रहा है. एक पीढ़ी के भीतर दो विश्वयुद्ध के कारण पैदा हुई तबाही से इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि युद्धों का सिलसिला अब खत्म हो जायेगा. इन विश्व युद्धों के खत्म होने के बाद इससे मिले अनुभव को सकारात्मक चीजों में लगाने की जरूरत है, न कि विनाश के लिए. हम यह सोचने का जोखिम उठा रहे हैं कि हमारे देश ने बीते समय में दुनिया में विश्वास और सहयोग का माहौल स्थापित किया था.
हमें निरंतर परिश्रम करना होगा..
14 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि में जवाहरलाल नेहरू द्वारा अंगरेजी में दिये ऐतिहासिक भाषण का अनूदित अंश :
बहुत वर्ष हुए, हमने भाग्य से एक सौदा किया था, और अब अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का समय आ गया है. पूरे तौर पर या जितनी चाहिए उतनी तो नहीं, फिर भी काफी हद तक. जब आधी रात के घंटे बजेंगे, और जब सारी दुनिया सोती होगी, उस समय भारत जाग कर जीवन और स्वतंत्रता प्राप्त करेगा. यह एक ऐसा क्षण है, जो कि इतिहास में कम ही आता है, जब हम पुराने को छोड़ नये जीवन में पग धरते हैं.
जब एक युग का अंत होता है और जब वर्षो से राष्ट्र की शोषित एक देश की आत्मा अपनी बात कह सकती है. यह एक संयोग है की इस पवित्र मौके पर हम समर्पण के साथ खुद को भारत व उसकी जनता की सेवा, और उससे भी बढ़ कर सारी मानवता की सेवा करने के लिए प्रतिज्ञा ले रहे हैं.
इतिहास के उषाकाल में भारत ने अपनी अंतहीन खोज आरंभ की, और न जाने कितनी सदियां उसके उद्योग, उसकी विशाल सफलता और उसकी असफलताओं से भरी मिलेंगी. चाहे अच्छे दिन रहे हों, चाहे बुरे, उसने इस खोज को आंखों से ओझल नहीं होने दिया. न उन आदर्शो को ही भुलाया, जिनसे उसे शक्ति प्राप्त हुई. आज हम दुर्भाग्य के एक युग का अंत कर रहे हैं और भारत ने अपने आप को फिर पहचाना है. आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वह महज एक कदम है, नये अवसरों के खुलने का. इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां आने वाली हैं. इस अवसर को ग्रहण करने और भविष्य की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए क्या हममें पर्याप्त साहस और पर्याप्त बुद्धिमत्ता है?
आजादी और ताकत जिम्मेवारी लाती है. वह जिम्मेवारी इस सभा पर है, जो भारत के संपूर्ण सत्ताधारी लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली संपूर्ण सत्ताधारी सभा है. स्वतंत्रता के जन्म से पहले हमने प्रसव की सारी पीड़ाएं सहन की हैं और हमारे हृदय इस दुख की स्मृति से भरे हुए हैं. इनमें से कुछ पीड़ाएं अब भी चल रही हैं. फिर भी अतीत समाप्त हो चुका है और अब भविष्य हमारा आह्वान कर रहा है. भविष्य में हमें विश्रम नहीं करना है, बल्कि निरंतर प्रयास करना है ताकि हम जो वचन बार-बार दोहराते रहे हैं और जिसे हम आज भी दोहरायेंगे उसे पूरा कर सकें.
भारत की सेवा का अर्थ है लाखों- करोड़ों पीड़ित लोगों की सेवा करना. इसका मतलब है गरीबी और अज्ञानता को मिटाना, बीमारियों और अवसर की असमानता को मिटाना. हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही महत्वाकांक्षा रही है कि हर एक आंख से आंसू मिट जाएं. शायद ये हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों कि आंखों में आंसू हैं, तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा. और इसलिए हमें परिश्रम करना होगा, और कठिन परिश्रम करना होगा ताकि हम अपने सपनों को साकार कर सकें. वे सपने भारत के लिए हैं, पर साथ ही पूरी दुनिया के लिए भी हैं.
आज कोई खुद को बिलकुल अलग नहीं सोच सकता, क्योंकि सभी राष्ट्र और लोग एकदूसरे से बड़ी नजदीकी से जुड़े हुए हैं. शांति को अविभाज्य कहा गया है, इसी तरह से स्वतंत्रता भी अविभाज्य है, समृद्धि भी और विनाश भी, अब इस दुनिया को छोटे-छोटे हिस्सों में नहीं बांटा जा सकता है.
आज नियत समय आ गया है, एक ऐसा दिन जिसे नियति ने तय किया था और एक बार फिर वर्षो के संघर्ष के बाद, भारत जागृत और स्वतंत्र खड़ा है.
आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता भी है समय की मांग
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 26 जनवरी, 1950 को भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति पद की शपथ ली. उस अवसर पर उनके संबोधन को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
हमारे गणराज्य का उद्देश्य है इसके नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता और समता प्राप्त करना तथा इस विशाल देश की सीमाओं में निवास करने वाले लोगों में भ्रातृ-भाव बढ़ाना, जो विभिन्न धर्मों को मानते हैं, अनेक भाषाएं बोलते हैं और विभिन्न रीति-रिवाजों का पालन करते हैं. हम सभी देशों के साथ मित्रता करके रहना चाहते हैं. हमारे भावी कार्यक्रमों में रोग, गरीबी और अज्ञान का उन्मूलन शामिल है.
हम उन सभी विस्थापित लोगों को फिर से बसाने तथा उन्हें फिर से स्थिरता देने के लिए चिंतित हैं, जिन्होंने बड़ी मुसीबतें सही हैं और हानियां उठायी हैं और जो अभी भी मुसीबत में हैं. जो लोग किसी प्रकार के अधिकारों से वंचित हैं, उन्हें विशेष सहायता मिलनी चाहिए. इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम उस स्वतंत्रता को सुरक्षित रखें, जो आज हमें प्राप्त है लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता के समान ही आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता भी समय की मांग है. वर्तमान हमसे अतीत की अपेक्षा और भी अधिक निष्ठा व बलिदान की मांग कर रहा है.
मैं आशा और प्रार्थना करता हूं कि हमें जो अवसर मिला है, हम उसका सदुपयोग करने में समर्थ हो सकेंगे. हमें अपनी सारी भौतिक और शारीरिक शक्तियां अपनी जनता की सेवा में लगा देनी चाहिए. मैं यह भी आशा करता हूं कि इस शुभ और आनंदमय दिवस के आगमन पर खुशियां मनाती हुई जनता अपनी जिम्मेवारी का अनुभव करेगी और अपने आपको फिर उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए समर्पित कर देगी, जिसके लिए राष्ट्रपिता आजीवन काम करते रहे.
जरूरत होगी एक ऊंचे दज्रे के नैतिक शासन की
26 जनवरी, 1948 की प्रार्थना सभा में दिये गये गांधीजी के भाषण का मूल पाठ.भाइयो और बहनो, आज 26 जनवरी स्वतंत्रता का दिन है. अब तक हमारी आजादी की लड़ाई जारी थी और आजादी हमारे हाथ में नहीं आयी थी, तब तक इसका उत्सव मनाना जरूर मानी रखता था. किंतु अब आजादी हमारे हाथ में आ गयी है और हमने इसका स्वाद चखा है तो हमें लगता है कि आजादी का हमारा स्वप्न एक भ्रम ही था जो कि अब गलत साबित हुआ है. कम से कम मुङो तो ऐसा लगा है.
आज हम किस चीज का उत्सव मनाने बैठे हैं? हमारा भ्रम गलत साबित हुआ, इसका नहीं. मगर अपनी इस आशा का उत्सव हमें मनाने का जरूर हक है कि काली से काली घटा अब टल गयी है और हम उस रास्ते पर हैं जिस पर आते-जाते हुए तुच्छ ग्रामवासी की गुलामी का अंत आयेगा और वह हिंदुस्तान के शहरों का दास बन कर नहीं रहेगा. बल्कि देहातों के विचारमय उद्योगों के माल की विज्ञप्ति और बिक्री के लिए शहर के लोगों का उपयोग करेगा. वह यह सिद्ध करेगा कि वह सचमुच हिंदुस्तान की भूमि का जायका है.
इस रास्ते पर आगे जाते हुए अंत में सब वर्ग और संप्रदाय एक समान होंगे. यह हर्गिज न होगा कि बहुसंख्या अल्पसंख्या पर- चाहे वह कितनी ही कम या तुच्छ क्यों न हो – अपना प्रभुत्व जमाये या उसके प्रति ऊंच-नीच का भाव रखे. हमें चाहिए कि इस आशा के फलीभूत होने में हम ज्यादा देरी न होने दें कि जिससे लोगों के दिल खट्टे हो जायें.
दिन-प्रतिदिन की हड़तालों और तरह-तरह की बदअमनी जो देश में चल रही है वह क्या इसी चीज की निशानी नहीं कि आशाएं पूरी होने में बहुत देर लग रही है? यह हमारी कमजोरी और रोग की सूचक है. मजदूर वर्ग को अपनी शक्ति और गौरव को पहचानना चाहिए. उनके मुकाबिले में वह शक्ति या गौरव पूंजीपतियों में कहां है जो कि हमारे आम वर्ग में भरा है.
सुव्यवस्थित समाज में हड़तालों का बदअमनी के लिए अवसर या अवकाश ही नहीं होना चाहिए. ऐसे समाज में न्याय हासिल करने के लिए काफी कानूनी रास्ते होंगे. खुली या छुपी जोरावरी के लिए स्थान ही न होगा. कानपुर या कोयले की खानों में या कहीं भी हड़तालें होने से सारे समाज और खुद हड़तालियों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. मुङो यह याद दिलाना निकम्मा होगा कि यह लंबा लेक्चर मेरे मुंह से शोभा नहीं देता, जब कि मैंने खुद इतनी सफल हड़तालें करवाई हैं.
अगर कोई ऐसे टीकाकार हैं तो उन्हें याद रखना चाहिए कि उस वक्त न तो आजादी थी और न इस किस्म के कानून जाब्ते थे, जो कि आजकल हैं. कई बार तो मुङो ताज्जुब होता है कि क्या हम सचमुच ताकत की सियासी शतरंज और सत्ता पर चंगुल मारने की वबा (बीमारी) से, जो कि पूर्व और पाश्चात्य के सब देशों में फैल रही है, बच सकते हैं.
इससे पहले कि मैं इस विषय को यहां छोड़ूं, मैं यह आशा प्रकट किये बिना नहीं रह सकता कि यद्यपि भौगोलिक व राजनैतिक दृष्टि से हिंदुस्तान दो भागों में बंट गया, पर हमारे दिल जुदा नहीं हुए और हम हमेशा के दोस्त बन कर भाइयों की तरह एक – दूसरे की मदद करते रहेंगे और एक- दूसरे को इज्जत की निगाह से देखेंगे. जहां तक दुनिया का ताल्लुक है हम एक ही रहेंगे.
कपड़े पर से अंकुश उठाने के फैसले का सब तरफ से स्वागत किया गया है. कपड़े की कभी कमी थी ही नहीं, और हो भी कैसे सकती है, जब कि देश में इतनी रुई और कातने वाले और बुनने वाले मौजूद हैं. कोयले और जलाने की लकड़ी पर से अंकुश उठने पर भी इतना ही संतोष प्रकट किया गया है.
यह बड़ी देखने की चीज है कि अब बाजार में गुड़ जरूरत से ज्यादा आ कर जमा हो रहा है, और गुड़ गरीब आदमी की खुराक में गरमी देने वाली चीज के अंश को पूरा कर सकता है. गुड़ के इन जमा हुए ढेरों को घटाने या जहां गुड़ बनता है वहां से गुड़ पहुंचाने की कोई सूरत नहीं अगर तेजी से सामान ढोने का बंदोबस्त न हो.
एक मित्र, जो इस विषय को खूब समझते हैं, एक पत्र में लिखते हैं, वह ध्यान देने लायक है : ‘यह कहने की जरूरत नहीं कि अंकुश उठाने की नीति की सफलता का ज्यादा आधार इस चीज पर ही है कि रेलगाड़ी या सड़क से सामान की नकली हरकत का ठीक -ठीक बंदोबस्त किया जाये. अगर रेल से माल इधर-उधर ले जाने के तंत्र में सुधार न हुआ तो देशभर में कहत (अकाल) फैलने और अंकुश उठाने की सब योजना अस्त-व्यस्त हो जाने का डर है.
आज जिस तरह से माल ले जाने का हमारा तंत्र चल रहा है उससे दोनों, अंकुश चलाने और उठाने की नीति, सख्त खतरे में हैं. हिंदुस्तान के जुदा-जुदा हिस्सों में, भावों में इतना भयंकर फर्क होने की वजह भी माल उठाने के साधनों की यह कमी है. अगर गुड़ रोहतक में आठ रुपये मन और बंबई में पचास रुपये मन के हिसाब बिकता है तो यह साफ बताता है कि रेलवे तंत्र में कहीं सख्त गड़बड़ है.
महीनों तक मालगाड़ी के डिब्बों में से सामान नहीं उतारा जाता, डिब्बों और कोयले की कमी और तरह-तरह के माल को तरजीह देने के बहाने, मालगाड़ी के डिब्बों को किराये पर हासिल करने के लिए सैकड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं और कई-कई दिनों तक स्टेशनों पर झक मारनी पड़ती है. डिब्बों की मांग पूरी करने और डिब्बों को चलते रखने में ट्रांसपोर्ट के मंत्री को रेल और सड़क की सारी ट्रांसपोर्ट व्यवस्था की फिर से जांच-पड़ताल करनी होगी. तभी यह नीति जिन गरीब लोगों को राहते देने के लिए चलायी जा रही है, उनको फायदा पहुंचा सकेगी.
आज इस ट्रांसपोर्ट के कसूर से लाखों और करोड़ों देहातियों को सख्त तकलीफ उठानी पड़ती है और उनका माल मंडी तक पहुंचने ही नहीं पाता.
जैसा मैं पहले लिख चुका हूं, पेट्रोल का राशनिंग बंद करना ही चाहिए और सड़क से सामान ढोने के साधनों का इजारा (ठेका) और परमिट का तरीका बिलकुल बंद होना चाहिए. इजारे में थोड़ी ट्रांसपोर्ट कंपनियों का ही लाभ होता है और करोड़ों गरीबों का जीवन दूभर हो रहा है. अंकुश उठाने की नीति को 95 फीसदी सफलता उपरोक्त शर्तो पर ही निर्भर है. जो सूचनाएं ऊपर दी गयी हैं उन पर अमल हुआ तो परिणामस्वरूप देहातों से लाखों टन खाद्य पदार्थ और दूसरा माल देशभर आने लगेगा.’
बेईमानी और घूसखोरी का विषय कोई नया नहीं है, केवल अब वह पहले से ज्यादा बढ़ गया है. बाहर का अंकुश तो कुछ रहा ही नहीं है. इसलिए यह घूसखोरी तक तक बंद न होगी जब तक जो लोग इसमें पड़े हैं वे समझ न लें कि वे देश के लिए हैं, न कि देश उनके लिए. इसके लिए जरूरत होगी एक ऊंचे दज्रे के नैतिक शासन की. उन लोगों की तरफ से, जो खुद घूसखोरी के इस मर्ज से बचे हुए हैं और घूसखोर अमलदारों पर जिनका प्रभाव है, ऐसे मामलों में उदासीनता दिखाना गुनाह है. अगर हमारी संध्याकाल की प्रार्थना में कुछ भी सच्चई है तो घूसखोरी के इस दौर को खत्म करने में उससे काफी मदद मिलनी चाहिए.
(गांधी वा्मय से)
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