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मध्य वर्ग की चिंता तक सिमटा मीडिया
मीडिया लगातार मध्य वर्ग की उस भावना के अनुरूप खबरें बनाता है, जिसमें गरीब खबरों के लायक नहीं होते, क्योंकि उनका जीवन (थॉमस हॉब्स के शब्दों में, ‘घिनौना, पशुवत और अल्प’) ही महत्वपूर्ण नहीं है. इस सप्ताह अखबारों की दो सुर्खियों से मैं प्रभावित हुआ. इनमें पहला शीर्षक भाजपा सांसद फिरोज वरुण गांधी के लेख […]
मीडिया लगातार मध्य वर्ग की उस भावना के अनुरूप खबरें बनाता है, जिसमें गरीब खबरों के लायक नहीं होते, क्योंकि उनका जीवन (थॉमस हॉब्स के शब्दों में, ‘घिनौना, पशुवत और अल्प’) ही महत्वपूर्ण नहीं है.
इस सप्ताह अखबारों की दो सुर्खियों से मैं प्रभावित हुआ. इनमें पहला शीर्षक भाजपा सांसद फिरोज वरुण गांधी के लेख का था : ‘ऐन अनसर्टेन हॉब्सियन लाइफ’. गांधी ने इस लेख में भारत में कृषि की स्थिति का आकलन करते हुए लिखा है कि ‘भारत के 12.1 करोड़ खेती योग्य भूमिधारकों में 9.9 करोड़ छोटे या सीमांत भूमिधारक हैं, जिनके हिस्से में कुल खेती के योग्य भूमि का मात्र 44 फीसदी है और किसानों की कुल आबादी में उनकी संख्या 87 फीसदी है. बहुफसलीय खेती के व्यापक प्रचलन के साथ ये किसान कुल सब्जी उत्पादन का 70 फीसदी और कुल अनाज उत्पादन का 52 फीसदी पैदा करते हैं. नेशनल सैंपल सर्वे कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार, कुल किसान परिवारों में 33 फीसदी परिवारों के पास 0.4 हेक्टेयर से कम जमीन है. तकरीबन 50 फीसदी किसान परिवार कर्ज के बोझ से डूबे हुए हैं.’ उन्होंने निष्कर्ष के रूप में कहा है कि ‘भारत के सीमांत किसान सदियों से बुरी दशा में रहते आये हैं’ और उनमें से बहुत ‘एक अनिश्चित हॉब्सियन जीवन जीते हैं : गरीब, पशुवत और अल्प’.
दूसरी सुर्खी थी : ‘मुंबई में 30 करोड़ की संपत्ति की मालकिन की उपेक्षा से मौत, उच्च न्यायालय ने सरकार को फटकार लगायी’. यह समाचार इस बारे में था कि किस तरह ‘नाराज बंबई उच्च न्यायालय ने यह सुन कर सरकार को खूब फटकार लगायी कि कैसे एक 68 वर्षीय बुजुर्ग महिला वर्सोवा के यारी रोड पर 30 करोड़ की संपत्ति की मालकिन होने के बावजूद लापरवाही के कारण मर गयी’. मुंबई शहर के इस उपनगर में बहुत-से धनी लोग निवास करते हैं. ‘न्यायालय ने इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि न तो उसके परिवार और न ही राज्य ने उसकी देखभाल की, जबकि बुजुर्ग नागरिकों के कल्याण के लिए बने कानून में यह आदेश है कि उन्हें चिकित्सकीय मदद और वृद्धाश्रम उपलब्ध कराया जाये. अदालत ने यह भी कहा कि अन्य बुजुर्गो को इस तरह के दुर्भाग्य से जूझना न पड़े. साथ ही उसकी इच्छा माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल तथा कल्याण से संबंधित 2007 के कानून के प्रयोजन और सीमा की समीक्षा की है.’
उस महिला का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील ने कहा कि ‘पांच वर्षो से वह बहुत बुरी दशा में थी और अन्य लोगों को ऐसी हालत से नहीं गुजरना चाहिए.’ उन्होंने यह भी कहा कि नये कानून के तहत, ‘जो कोई किसी बुजुर्ग की उपेक्षा करता है, जिसकी वजह से उन्हें दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों से गुजरना पड़ता है, ऐसे व्यक्ति को उस बुजुर्ग की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलना चाहिए.’ हालांकि न्यायालय ने इस बात को रेखांकित किया कि उस महिला की शव-परीक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई है’.
इस मामले में जो बात सबसे आपत्तिजनक थी, जैसा कि इस खबर की सुर्खी में लिखा गया है, वह यह थी कि एक धनी महिला को इस तरह से परेशान नहीं होना चाहिए था.
जैसा कि गांधी के लेख से स्पष्ट है, जिस देश में लाखों लोग जीवित रहने के लिए लगातार संघर्षरत रहते हैं, वहां मीडिया का ध्यान एक धनिक पर है. कुछ हद तक ऐसा दुनियाभर में हो रहा है और प्रतिष्ठित व्यक्तियों की खबरें देना एक सही रवैये के रूप में स्थापित है तथा उनका जीवन समाचारों के लिए अधिक योग्य है. लेकिन भारत में ऐसा धनवानों, यहां तक कि मध्य वर्ग के मामलों में भी किया जाता है और अक्सर आबादी के बड़े हिस्से को खबरों से बाहर रखा जाता है.
भारत उन देशों में शामिल है, जहां सबसे अधिक सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, लेकिन खबरें वहीं बनायी जाती हैं, जिनकी सुर्खी ‘बीएमडब्ल्यू दुर्घटना’ होती है, क्योंकि एक फैंसी कार को अधिक कवरेज मिलना चाहिए. मीडिया में ऐसी खबर खोजना मुश्किल है, जिसमें बहुत कुछ, यहां तक कि कुछ भी, इस बारे में लिखा गया हो कि दुर्घटना में शामिल कार मारुति या महिंद्रा थी. खबरों के चयन की यह प्रवृत्ति चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुकी है. इस बात की ताकीद वे लोग कर सकते हैं, जो हमारे अखबारों से परिचित हैं.
ऐसी कवरेज का एक दूसरा उदाहरण किसी बड़ी कॉरपोरेट कंपनी, आम तौर पर सॉफ्टवेयर कंपनी, जिनका विज्ञापन पर बड़ा जोर नहीं होता है, का कर्मचारी है. बेंगलुरु में स्थित इन्फोसिस में एक लाख से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं, और ऐसे बड़े कार्यक्षेत्र में आत्महत्या, बलात्कार, हिंसा या चोरी की घटनाएं होना वैसे ही संभव है, जैसा आम आबादी में हो सकता है. लेकिन, मीडिया अपनी सुर्खियों में आवश्यक रूप से कंपनी का नाम लगायेगा. इंटरनेट पर ‘इन्फोसिस कर्मचारी ने की आत्महत्या’ और ‘विप्रो कर्मचारी ने की खुदकुशी’ जैसे शब्दों की खोज के परिणामों से यह बात स्पष्ट हो जाती है.
मीडिया यह तर्क दे सकता है कि इस तरह की कॉरपोरेट खबरें देने का तथ्य दिलचस्प है, लेकिन आप ‘रिलायंस कर्मचारी ने की खुदकुशी’ की खबरें खोजें, तो मीडिया का रवैया भिन्न पायेंगे. या तो रिलायंस के कर्मचारी आत्महत्या नहीं करते, या अगर करते हैं, तो मीडिया उन खबरों के साथ कंपनी का नाम नहीं जोड़ता है, भले ही वह इन्फोसिस और विप्रो के साथ उत्साह से ऐसा करता है. ऐसा क्यों? क्योंकि रिलायंस एक बड़ा विज्ञापनदाता है और उसकी हैसियत सॉफ्टवेयर कंपनियों की तुलना में बहुत अधिक है, जिनके लिए भारतीय अखबारों और टेलीविजन चैनलों में विज्ञापन देने का कोई अर्थ नहीं है.
मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मीडिया को रिलायंस कर्मचारियों से जुड़ी खबरों के साथ कंपनी का नाम जोड़ना चाहिए, बल्कि यह है कि सॉफ्टवेयर कंपनियों के साथ उनका ऐसा करना ठीक नहीं है. ऐसी ही समस्या अन्य खबरों के साथ भी है. भारत में बलात्कार की सालाना करीब 25 हजार घटनाएं होती हैं (जो कि पश्चिम समेत अन्य देशों की तुलना में बहुत कम हैं), लेकिन मीडिया उन्हीं पीड़ितों की खबरें उठाता है, जिन्हें वह महत्वपूर्ण समझता है. उच्च वर्ग के लिए चलायी जा रही एक टैक्सी सेवा की कार में हुए बलात्कार का उसी शहर में हुई दूसरी वैसी ही घटना की तुलना में अत्यधिक कवरेज होता है.
स्पष्ट है कि मीडिया लगातार मध्य वर्ग की उस भावना के अनुरूप खबरें बनाता है, जिसमें गरीब खबरों के लायक नहीं होते, क्योंकि उनका जीवन (थॉमस हॉब्स के शब्दों में, ‘घिनौना, पशुवत और अल्प’) ही महत्वपूर्ण नहीं है.
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
aakar.patel@me.com
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