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नये आयोग का पुराना ईश्वर!

जब कोई कहता है कि इतिहास हमारे साथ है, तो फिर इतिहास की गतिकी सर्वनियंता ईश्वर का दर्जा हासिल कर लेती है. फिर वह इतिहास-गति को रोकनेवालों को दंड दे सकता है, क्योंकि उसके हाथों होनेवाली हिंसा, हिंसा नहीं होती. नीति आयोग नया है, लेकिन उसका ईश्वर वही पुराना है. फोन पर एक वरिष्ठ साथी […]

जब कोई कहता है कि इतिहास हमारे साथ है, तो फिर इतिहास की गतिकी सर्वनियंता ईश्वर का दर्जा हासिल कर लेती है. फिर वह इतिहास-गति को रोकनेवालों को दंड दे सकता है, क्योंकि उसके हाथों होनेवाली हिंसा, हिंसा नहीं होती. नीति आयोग नया है, लेकिन उसका ईश्वर वही पुराना है.

फोन पर एक वरिष्ठ साथी का सवाल था. ‘नीति आयोग बन गया है, आपको लगता है कि कुछ नया होगा?’ वे उत्साहित थे. साल नया, आयोग नया, तो फिर उम्मीद की ही जा सकती है कि कुछ नया होगा. साथी के सवाल पर मुङो साढ़े छह साल पहले का एक साक्षात्कार याद आया. यूपीए राज के उन दिनों में पी चिदंबरम का यह साक्षात्कार तहलका पत्रिका के एक अंक में छपा था. उसमें एक प्रश्न आता है- ‘बीजेपी और कांग्रेस की नीतियों में बड़े थोड़े ही का फर्क है. इससे क्या अर्थ निकाले जायें?’ चिदंबरम का चतुराई भरा उत्तर था कि ‘बीजेपी किसी आर्थिक नीति की जन्मदाता नहीं रही. कांग्रेस ही नयी आर्थिक नीति की जन्मदाता है, बीजेपी तो बस इस नीति को अपने तरीके से आगे बढ़ाती है..’ साढ़े छह साल पहले यह बात जितनी सच थी, उससे ज्यादा आज है!

नाम बदला है लेकिन क्या नीयत बदली है? योजना आयोग की जगह नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिग इंडिया (नीति आयोग) बना देने से नीयत का बदलना सूचित नहीं होता. पूछिए कि चिदंबरम के वित्तमंत्री रहते योजना आयोग किस नीयत से संचालित हो रहा था? और, तुलना के लिए देखिए कि नीति आयोग की स्थापना के पीछे वही नीयत काम कर रही है या नहीं? उसी साक्षात्कार में चिदंबरम ने अपनी नीयत के बारे में साफ-साफ कहा था कि ‘शहरीकरण को अब रोका नहीं जा सकता. यह एक अनवरत चलनेवाली प्रक्रिया है. मुङो नहीं लगता कि कोई देश या वहां की जनता इसको रोक सकती है. हमें चाहिए कि इसमें हस्तक्षेप न करें, बल्कि उसका प्रबंधन करें. गरीबी से मुक्त मेरे सपनों में एक ऐसा भारत है, जहां लगभग 85 प्रतिशत लोग शहरों में बसे होंगे. इसलिए कि 6 लाख गांवों की जगह शहरों में लोगों को पानी, बिजली, शिक्षा, सड़क, मनोरंजन और सुरक्षा प्रदान करना कहीं ज्यादा आसान है.’

नीति आयोग का अपने काम की शुरुआत करना शेष है, तो भी उसके बारे में एक बात पक्की है. यह आयोग चिदंबरम की सोच और नीयत के दायरे में ही काम करेगा. आयोग यह मान कर चलेगा कि शहरीकरण एक अनवरत चलनेवाली प्रक्रिया है. भारत के रूपांतरण की उसकी नीतियां इस सोच से संचालित होंगी कि देश की 85 प्रतिशत आबादी को हर हाल में शहरों में बसाना है. और, इस सोच से निकली नीतियां इस बात से बेफिक्र होंगी कि दरअसल, वे एक सभ्यता का विध्वंस कर रही हैं.

एक बार राजनाथ सिंह को लगा था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था तो एक सभ्यता है, उसका विनाश किसी भी तर्क से उचित नहीं है. तब वे विपक्ष में थे. यूपीए राज में भूमि अधिग्रहण के लिए बननेवाले कानून पर चल रही बहस में 29 अगस्त, 2013 को उन्होंने याद दिलाया था कि ‘जमीन खरीदन-बेचनेवाली चीज भर नहीं. खेती-बाड़ी सिर्फ आर्थिक गतिविधि नहीं है. जमीन का सवाल किसानों की भावनाओं और संस्कृति से जुड़ा है..’ आज वही राजनाथ सिंह सत्ता-पक्ष में हैं और उनकी सरकार ठीक पी चिदंबरम की लीक पर चलते हुए ग्रामीण सभ्यता के विनाश के कदम उठा रही है. पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण के लिए लाया गया अध्यादेश इसका एक छोटा सा प्रमाण है.

‘शहरीकरण एक अनवरत-अविराम चलनेवाली सहज प्रक्रिया है, सो विरोध बेमानी है’— यह सत्तापक्ष का सेक्यूलरी भाग्यवाद है. यह नया भारत है और उस भारत के विरोध में तैयार हो रहा है, जब कहा जाता था- ‘भागो नहीं, गांव को बदलो!’ किसी प्रक्रिया को अविराम मान लेने का अर्थ है, अपने को नियति के हाथों सौंप देना, उस प्रक्रिया में हस्तक्षेप ना करना. यह सोच एक पवित्रता की रचना करती है. जो पवित्र है, आप उसे छूते नहीं, दूर-दूर से देखते हैं. शहरीकरण को स्वाभाविक माननेवाली सेक्यूलरी सोच कुछ पवित्रताएं गढ़ती है. इन पवित्रताओं को औद्योगिक कॉरिडोर, सड़क, अस्पताल, विश्वविद्यालय, हाउस-सोसायटीज आदि कहा जाता है. आप इनके निर्माण को नहीं छेड़ सकते, इसलिए आप भूमि अधिग्रहण भी नहीं रोक सकते. यदि आप रोकेंगे तो दरअसल, विकास-प्रक्रिया को रोकने के कारण दंड के भागी बनेंगे. इन पवित्रताओं के जोर के आगे यह सवाल खो जायेगा कि शहरीकरण को अनिवार्य बतानेवालों के ज्ञान, कर्म और नैतिकताएं हिंसक हैं. उनकी बसाहटें किसी को उजाड़ रही हैं. देश के 664 जिलों में से 165 में एक साल के भीतर लगभग 250 मामलों में लोग भूमि-अधिग्रहण के नाम पर हो रहे उजाड़ को रोकने के लिए आगे आये हैं और दंड के भागी बने हैं.

जब कोई कहता है कि इतिहास हमारे साथ है, तो फिर इतिहास की गतिकी सर्वनियंता ईश्वर का दर्जा हासिल कर लेती है. फिर वह इतिहास-गति को रोकनेवालों को दंड दे सकता है, क्योंकि उसके हाथों होनेवाली हिंसा, हिंसा नहीं होती. नीति आयोग नया है, लेकिन उसका ईश्वर इस देश के अभिजन ने बहुत पहले से तय कर रखा है.

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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