मुंबई हमलों के अभियुक्त जकीउर रहमान लखवी को हिरासत में रखने के पाकिस्तानी सरकार के आदेश को इस्लामाबाद हाइकोर्ट ने खारिज कर दिया है. इस फैसले ने एक बार फिर आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में पाकिस्तान के विरोधाभासी चरित्र को रेखांकित किया है. इस महीने की 18 तारीख को इस्लामाबाद की एक अदालत ने मुंबई हमलों पर सुनवाई करते हुए सबूतों की कमी के आधार पर लखवी को जमानत दे दी थी, लेकिन पेशावर हत्याकांड के बाद आंतरिक और वैश्विक रोष के कारण सरकार ने उसे हिरासत में रखने का आदेश दिया था.
यह वारदात पाकिस्तान के लिए कोई अभूतपूर्व घटना नहीं थी. ऐसी हर घटना के बाद यह उम्मीद की जाती है कि पाकिस्तानी सरकार और समाज चरमपंथी गिरोहों पर लगाम लगाने के लिए ठोस कदम उठायेंगे, लेकिन नतीजा हर बार निराशाजनक ही होता है. पेशावर के बाद बंधी उम्मीदों का हश्र अलग होने की अपेक्षा भी बेकार है, क्योंकि कट्टरपंथियों को आधार देने का सूत्र पाकिस्तान के संविधान में ही मौजूद है.
इस संविधान के अनुच्छेद 277 में स्पष्ट कहा गया है कि पाकिस्तान के समस्त कानून कुरान और सुन्नत पर आधारित होंगे और ऐसे किसी कानून की अनुमति नहीं दी जायेगी, जो इसलामी सिद्धांतों के प्रतिकूल हों. 1980 में जनरल जियाउल हक की तानाशाही के दौरान शासन और आम जीवन में तेजी से इसलामी सिद्धांतों का दखल बढ़ा. इसी के साथ जुड़ा हुआ मामला अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के खिलाफ जेहाद को सक्रिय समर्थन देना था, जिसमें पाकिस्तान के अलावा अन्य इसलामी देशों से चरमपंथी लड़ाके अफगानिस्तान में लाये गये थे. आधुनिक राष्ट्र बनने की इच्छा और इसलामी राज्य बनने की जिद्द ने पाकिस्तान को एक ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया है, जहां से निकलनेवाला बेहतरी का रास्ता पाकिस्तान के विचार में बुनियादी बदलाव के बिना संभव ही नहीं है. पाकिस्तान में आतंक दुनिया के लिए बड़ी चुनौती है. आज जरूरत यह है कि पाकिस्तान का शासन और समाज अपने राज्य-व्यवस्था के उन तत्वों पर पुनर्विचार करें और उन्हें संशोधित करें, जो आतंक के लिए जगह बनाते हैं. इस प्रयास में पाकिस्तान के नागरिक समाज की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है.