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क्यों हारे झारखंड के दिग्गज ?

किसी को वोटरों से दूरी बनाना महंगा पड़ा, तो कोई किलाबंदी में नाकाम रहा विधानसभा चुनाव में बड़ा उलटफेर हुआ. चुनाव परिणाम ने राजनीति के गलियारे में सनसनी फैला दी है. राजनीति के दिग्गजों का हारना सबको चौंकाया. दिग्गजों के अभेद किले ध्वस्त हो गये. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश कुमार […]

किसी को वोटरों से दूरी बनाना महंगा पड़ा, तो कोई किलाबंदी में नाकाम रहा
विधानसभा चुनाव में बड़ा उलटफेर हुआ. चुनाव परिणाम ने राजनीति के गलियारे में सनसनी फैला दी है. राजनीति के दिग्गजों का हारना सबको चौंकाया. दिग्गजों के अभेद किले ध्वस्त हो गये. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश कुमार महतो, विनोद सिंह, राजेंद्र सिंह जैसे सूरमा हार गये. इन बड़े खिलाड़ियों की हार के कारणों की समीक्षा हो रही है. आखिर इनके विरोधियों ने कैसा दावं चला कि सूरमा पिछड़ गये. दिग्गजों की हार पर एक विश्‍लेषण.
अर्जुन मुंडा
खरसावां पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का अभेद किला था. यहां से लगातार चार बार विधायक रहे पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार हार का सामना करना पड़ा. झामुमो के दशरथ गागराई ने भाजपा प्रत्याशी अर्जुन मुंडा को 11 हजार 982 मतों के बड़े अंतर से मात दी. अर्जुन के गढ़ में झामुमो ने रणनीति के तहत चुनाव लड़ा और भाजपा के इस किले को ध्वस्त किया.
अर्जुन मुंडा की हार में कई फैक्टर प्रभावी रहे. चुनाव प्रचार में भी अर्जुन मुंडा ने खरसावां में काफी कम समय दिया. पूरी तरह से कार्यकर्ताओं पर निर्भर रहे. इस कारण वह क्षेत्र में उनके खिलाफ चल रही हवा भांप नहीं सके. क्षेत्र में बड़े पैमाने पर उड़िया वोटर हैं, उनकी परिसीमन को लेकर पूर्व की कुछ डिमांड थी. यह पूरा नहीं होने से उनकी नाराजगी थी.
पूर्व की तरह इस बार के चुनाव में विपक्षी मतों का बिखराव नहीं हुआ. झामुमो प्रत्याशी दशरथ गागराई सिर्फ भाजपा ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के वोट बैंक में भी सेंध लगाने में सफल रहे. झामुमो को उन बूथों में भी वोट मिले, जहां सामान्य वर्ग के लोगों की संख्या अधिक है. भाजपा के लिये कमजोर कड़ी खूंटपानी व कुचाई ब्लॉक रहा. यहां से झामुमो को जबरदस्त बढ़त मिली. आदिवासी बहुल इन दो प्रखंडों में वोट को झामुमो अपने पक्ष में मोड़ने में सफल रहा. खूंटपानी व कुचाई में चुनाव प्रचार के दौरान झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन की मार्मिक अपील का भी असर दिखा. खूंटपानी में संगठन की कमजोरी भी प्रमुख वजह बनी. पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो, आजसू के पूर्व केंद्रीय अध्यक्ष ललित महतो व हरमोहन महतो लगातार क्षेत्र में दौरा कर बड़ी संख्या में कुड़मी मतदाताओं को झामुमो के पक्ष में मोड़ने में सफल रहे. अल्पसंख्यक वोट भी झामुमो के पक्ष में गये.
बार-बार क्षेत्र बदलना पड़ा महंगा, वोटरों से नहीं जुड़े
बाबूलाल मरांडी
विधानसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी जैसे दिग्गज नेता को हार का मुंह देखना पड़ा. बाबूलाल मरांडी की हार अप्रत्याशित थी. झाविमो के सुप्रीमो की हार ने पार्टी को सकते में डाल दिया है. बाबूलाल मरांडी राजधनवार और गिरिडीह से चुनाव लड़ रहे थे. दोनों ही जगह उन्हें शिकस्त मिली. राजधनवार में लंबा राजनीतिक संघर्ष कर रहे राजकुमार यादव से हारे, वहीं गिरिडीह में कभी उनके ही साथी रहे निर्भय शाहाबादी ने पटकनी दी. बाबूलाल मरांडी राज्य में संताल परगना से लेकर उत्तरी छोटानागपुर के अलग-अलग क्षेत्र से लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. संताल में शिबू सोरेन को हरा कर सबको दंग किया था, तो कोडरमा से संसदीय चुनाव जीते.
आदिवासी नेता होने के बावजूद अनारक्षित सीट से चुनाव लड़ कर जीतते रहे हैं. बार-बार क्षेत्र बदलना बाबूलाल को इस बार महंगा पड़ा. राजधनवार गृह क्षेत्र था, लेकिन वह जातीय समीकरण को अपने पक्ष में नहीं कर सके. भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी के साथ-साथ अल्पसंख्यक वोट का हिसाब-किताब कर राजधनवार पहुंचे थे, लेकिन सफल नहीं हो सके.
अल्पसंख्यकों का भरोसा नहीं जीत पाये. राजधनवार से निर्दलीय प्रत्याशी शफीक अंसारी ने 28 हजार वोट ला कर बाबूलाल की गणित गड़बड़ा दी. वहीं भाजपा के उम्मीदवार लक्ष्मण सिंह भी 31 हजार वोट ले आये. भाजपा का बड़ा वोट बैंक बाबूलाल के पक्ष में नहीं छिटका. वहीं माले का आधार वोट इंटैक्ट रहा. गिरिडीह में बाबूलाल अपने पक्ष में हवा नहीं बना पाये. भाजपा के शहरी वोट बैंक में बाबूलाल का जलवा नहीं चला. देहात का वोट झामुमो के पक्ष में गया. आदिवासी वोट ने यहां बाबूलाल का साथ नहीं दिया.
क्षेत्र में असंतोष नहीं भांप सके सुदेश
सुदेश महतो
राज्य बंटवारे से ठीक पहले संयुक्त बिहार की राजनीति में एक युवा चेहरा का उदय हुआ था. सभी प्रकार की राजनीतिक आंकलन के विपरीत सिल्ली विधानसभा सीट से यूजीडीपी की टिकट पर सुदेश महतो जीत कर आये थे. उस समय सिल्ली में केशव (केशव महतो कमलेश) हटाओ, सुदेश लाओ का नारा था. राज्य बंटवारे के बाद की राजनीति में वह महत्वपूर्ण चेहरा बन गये. समय के साथ उनका कद बढ़ता गया. लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते. राज्य में कई वर्षो तक विभिन्न विभागों के मंत्री रहे. उप मुख्यमंत्री भी रहे. मंत्री रहते हुए उन्होंने अपने क्षेत्र के लिए विधायक फंड से लेकर विभागीय फंड से करोड़ों का काम भी कराया. कई पुल-पुलिया व सड़क का निर्माण भी कराया.
बढ़ते कद के साथ-साथ जनता की अपेक्षा भी बढ़ती गयी. जनता की अपेक्षा से वह दूर होते गये. जनता उनसे विधायक और मंत्री से ज्यादा अपेक्षा करने लगी. उनके आसपास ऐसे लोगों का घेरा बना, जहां सामान्य लोगों की पहुंच मुश्किल होने लगी. इनकी सुरक्षा व्यवस्था और शहरी तामझाम से ग्रामीणों को तालमेल बैठाने में मुश्किल होने लगी. 2000 के विधानसभा चुनाव में साथ रहनेवाले कई पुराने साथियों का साथ भी छूटने लगा. मंत्री रहते क्षेत्र में किये गये कार्यो से वह जनता को नहीं जोड़ पाये. इसी दौरान सुदेश महतो ने 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ने का निर्णय ले लिया. इसका कहीं-कहीं विरोध भी हुआ. इनमें कई ऐसे राजनीतिक लोग भी थे, जो समर्थन दल में होते हुए भी इनके लिए काम नहीं किया.
भाजपा ने चला सही कार्ड, विरोधी वोट गोलबंद हुए
अन्नपूर्णा देवी
राजद प्रत्याशी सह पूर्व मंत्री अन्नपूर्णा देवी की हार का मुख्य कारण विरोधी मतों की गोलबंदी रही. अपने पति रमेश प्र यादव के 1998 में निधन के बाद राजनीति में आयीं अन्नपूर्णा के लिए पहला चुनाव काफी कठिन था, पर सहानुभूति की लहर में उन्होंने 52046 मत प्राप्त किये थे, जबकि भाजपा के रमेश सिंह को 30960 मत मिले थे.
वर्ष 2005 में अन्नपूर्णा को 46452 व तीसरे स्थान पर रही भाजपा की लालसा सिंह को मात्र 19805 मत मिले थे. वर्ष 2009 में अन्नपूर्णा ने 46922 व भाजपा के विजय कुमार साव तीसरे स्थान पर रहते हुए 27654 मत प्राप्त किये थे. इस चुनाव में झाविमो के रमेश सिंह को 29639 मत प्राप्त हुए थे. इन चुनावों पर नजर डालें तो यह पता चलता है कि अब तक विरोधी मतों के बिखराव का फायदा अन्नपूर्णा को मिलता रहा. पर वर्ष 2014 के इस चुनाव में मोदी लहर के साथ-साथ भाजपा ने कोडरमा में एक साथ दो-दो कार्ड खेला. यादव जाति की अन्नपूर्णा के खिलाफ यादव उम्मीदवार डॉ नीरा यादव को उतारा. महिला उम्मीदवार के खिलाफ शिक्षित व जुझारू महिला को उतारते ही मुकाबला रोचक हो गया. परिवर्तन व मोदी लहर ने डॉ नीरा को जीत दिलायी.
लालगढ़ को जातीय समीकरण ने ध्वस्त किया
विनोद सिंह
माले नेता विनोद सिंह की हार ने सबको चौंकाया है. 25 वर्षो से बगोदर माले का गढ़ रहा है. यहां चुनाव में लाल लहर बहती रही है. पहली बार भाजपा ने जातीय समीकरण के सहारे इसे ध्वस्त किया. माले विधायक विनोद सिंह को इस बार तरीके से घेरा गया. भाजपा को नागेंद्र महतो के रूप में पुराना खिलाड़ी मिला. नागेंद्र महतो लगातार क्षेत्र में राजनीतिक संघर्ष करते हुए माले विरोधी वोट बैंक को अपने पक्ष में गोलबंद कर चुके थे. नागेंद्र महतो के वोट के साथ मोदी के नाम पर हुई गोलबंदी ने फायदा पहुंचाया. उधर माले का कैडर नये क्षेत्र और वर्ग में विस्तार करने में विफल रहा.
कुछ खास इलाके में माले कैडरों से लोगों के बीच असंतोष था. प्रत्याशी के रूप में विनोद सिंह की बेदाग छवि के प्रति लोगों का रुझान तो था, लेकिन कैडरों से पनपे असंतोष को दूर नहीं किया गया. माले के क्षेत्र में जनसमस्यओं को लेकर लगातार उपस्थिति रही, लेकिन जन संघर्ष में नये जमात को नहीं जोड़ पाये. उधर झाविमो के उम्मीदवार ने भी माले को नुकसान पहुंचाया. भाजपा विरोधी वोट की गोलबंदी नहीं हो सकी. झाविमो के उम्मीदवार ने 10 हजार से ज्यादा मत ला कर माले का रास्ता रोक दिया.
दुमका के वोटरों के अंडर करंट को नहीं समझ पाये हेमंत सोरेन
हेमंत सोरेन
दुमका विधानसभा इस चुनाव में हॉट सीट थी. इस सीट पर जहां नमो के नेतृत्व में पूरी केंद्र सरकार और भाजपा के प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय नेताओं ने अपनी ताकत झोंक दी, वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर अपनी सीट बचाने के अलावा पूरे झारखंड में झामुमो उम्मीदवारों को जिताने की जिम्मेवारी थी.
कहा जा रहा है कि मोदी की लहर व ओवर कांफिडेंस के कारण झामुमो की दुमका से हार हुई. हेमंत को कांफिडेंस था कि दुमका और राजमहल लोकसभा चुनाव उन्होंने अपने दम पर जीता है, तो इसका फायदा उन्हें विधानसभा में भी मिलेगा, लेकिन दुमका में भाजपा की जीत का समीकरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 15 दिसंबर की रैली के दिन से ही बदल गया. नमो की रैली के कारण कहीं न कहीं ट्रायबल व अल्पसंख्यक वोटर भाजपा से जुड़े. दुमका की जनता ने बदलाव का संकेत लोकसभा चुनाव परिणाम में दे दिया था. 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दुमका विधानसभा सीट से लीड किया था.
दुमका से भाजपा 2671 वोटों से आगे थी. 2009 के चुनाव परिणाम की भी बात करें, तो हेमंत महज 2669 वोट से ही जीते थे. भाजपा के समर्थन में जो अंडर करेंट दुमका में, खासतौर से शहरी मतदाताओं में चल रहा था, उसे हेमंत सोरेन भांप नहीं पाये. नतीजा यह हुआ कि उन्हें 2014 विस चुनाव में शिकस्त मिली. चुनाव के दौरान ही हेमंत सोरेन ने एक चाल चली. दुमका से झाविमो के घोषित उम्मीदवार स्टीफन मरांडी को झामुमो की टिकट पर महेशपुर से लड़ाने की घोषणा की, लेकिन स्टीफन के झामुमो में शामिल होने का राजनीतिक लाभ मुख्यमंत्री दुमका में नहीं उठा पाये. क्योंकि स्टीफन ऐसे कद्दावर नेता रहे हैं, जो दुमका से लगातार छह टर्म विधायक रहे. एक तरह से उनकी परंपरागत सीट दुमका रही है. 1980 से 2000 तक लगातार वे दुमका से झामुमो के विधायक रहे. 2005 में झामुमो से हेमंत सोरेन खुद दुमका से लड़े. इस कारण स्टीफन निर्दलीय लड़े और जीते. 2009 में पुन: हेमंत लड़े और जीते. इस चुनाव में लुईस दूसरे नंबर पर रही थीं.
भाजपा ने की मजबूत घेराबंदी, धान भी बने रोड़ा
बंधु तिर्की
मांडर से बंधु तिर्की को हराना आसान नहीं था. पिछले चुनाव में 30 हजार से भी ज्यादा मतों से जीते थे. यूपीए फोल्डर में बंधु तिर्की मजबूत नेता के रूप में उभर कर सामने आये थे. 10 वर्षो में मांडर में उन्होंने अपने पक्ष में मजबूत समीकरण बना लिया था. उन्होंने आदिवासी वोट बैंक के साथ-साथ अल्पसंख्यकों के ध्रुवीकरण से जबरदस्त घेराबंदी कर ली थी. लेकिन वर्तमान विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मजबूत घेराबंदी की. आदिवासी वोट बैंक में सेंधमारी.
गंगोत्री कुजूर के पक्ष में कई समीकरण जुड़ते चले गये. भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस के पूर्व नेता व मांडर से विधायक रहे देवकुमार धान ने भी गंगोत्री का रास्ता आसान बना दिया. धान भाजपा के बागी उम्मीदवार थे, लेकिन उन्होंने गंगोत्री का ही रास्ता आसान बनाया. धान ने 38 हजार वोट ला कर सबको चौंका दिया. रवींद्र भगत ने भी 20 हजार वोट ला कर बंधु के वोट बैंक को दरकाया. अल्पसंख्यक वोट मांडर में पूरी तरह बंटा. सपा की प्रत्याशी सुखमनी तिग्गा ने हार में जो थोड़ी बहुत कसर बाकी थी, उसे पूरा कर दिया. यहां सिलागांई की आग की चपेट में विधानसभा चुनाव रहा. इस घटना से एक खास वर्ग में आक्रोश था.
बंधु भांप नहीं सके और विरोधी हवा देते रहे. सदान वोट बैंक का नया समीकरण बंधु अपने पक्ष में नहीं कर सके. इस खास वोट बैंक से बंधु अलग-थलग रहे. वहीं भाजपा के कैडरों ने पूरी ताकत लगा दी. मोदी की लहर में बंधु की नैया डूब गयी. सदान वोट बंधु के पक्ष में नहीं गये, वहीं आदिवासी वोट बैंक में विरोधियों ने तरीके से बंटवारा कर दिया. अल्पसंख्यक और ईसाई वोट प्रत्याशियों के बीच बंट गये, वहीं गंगोत्री का वोट बैंक इंटैक्ट रहा.

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