संसदीय जनतंत्र में बहुमत हासिल कर सरकार बना लेना बड़ी बात नहीं है. ऐसे में आजसू के साथ मिल कर सरकार बना लेने को सफलता मान लेना भाजपा की भूल होगी. भले ही भाजपा गंठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला हो, पर यह परिणाम चुनाव में उसकी विराट हलचल के अनुकूल तो हरगिज नहीं है. बिना किसी स्टार प्रचारक के झामुमो का अपनी पूर्व की हद (विस में 18 विधायक) को लांघने में एक बड़ा संदेश छुपा है.
यह परिणाम आशा और उत्साह से परे जनादेश की अहमियत की समझदारी से जुड़ा है. इस चुनाव में एक से एक दिग्गज चारों खाने चित हो गये. दिग्गजों की पराजय ने बता दिया है कि अवसरों को भुनाने में नाकामी को जनता बरदाश्त नहीं करनेवाली. तीन-तीन मुख्यमंत्रियों, एक उप मुख्यमंत्री, मौजूदा कैबिनेट के नौ मंत्रियों समेत कई दिग्गजों की पराजय जनतंत्र पर भरोसे को पुख्ता करती है और बताती है कि नाम और दबंगई से चुनाव नहीं जीते जा सकते. सरकार में आने वाले भाजपा गंठबंधन को जनादेश के इस संदेश को समझना चाहिए. स्थिति में सुधार के कारण झामुमो चाहे तो सदन में विपक्ष की सार्थक भूमिका निभा सकता है. सरकार से हटने को वह अपनी पराजय नहीं माने, बल्कि चुनौतियां पेश करने के मौकों और उन मौकों को अपने पक्ष में करने को लकर उसे गंभीर होना चाहिए. राजनीति में पराजय मौके लेकर तब आती है, जब हम दूसरे की आलोचना नहीं, आत्ममंथन करते हैं.
आलोचना करके तो विरोधी के लिए बैठे-बिठाये वातावरण निर्माण हो जाता है. भाजपा गंठबंधन को भी जागरूक रहना होगा. उसे इस जनादेश की चुनौतियों और जिम्मेवारियों को समझना होगा. केंद्र और राज्य में समान दल या समान गंठबंधन की सरकार होने के कारण जनाकांक्षा और अपेक्षाओं का बोझ उस पर कहीं ज्यादा होगा. उसे राज्य के लिए बेहतर करने, जनजातीय समुदाय के उत्थान और चुनाव पूर्व अपने एलान को लेकर गंभीर होना होगा. भाजपा के लिए अब प्रचार और ढिंढोरे का वक्त नहीं रह गया है. अब यह दिलासा देने का नहीं, कुछ कर दिखाने का वक्त है. ऐसा तभी संभव होगा जब भाजपा गंठबंधन इस परिणाम के रूप में मिले जनादेश की चुनौतियों और जिम्मेवारियों समझ लेता है.